जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

बुधवार, 9 नवंबर 2016

अंधेरा धमका रहा है

                   
   यहाँ स्थानान्तरित होकर आने के बाद मैंने अपने कार्य-क्षेत्र के पड़ोसियों पर एक जासूस की तरह निगाह दौड़ाई । पड़ोसियों से अभिप्राय अलग-अलग कार्यों के प्रभार वाले मेरे सहकर्मी । आपसी बातचीत के बाद मुझे सौ टका यकीन हो गया कि मुझसे अधिक योग्य, कर्मनिष्ठ, पदरक्षक और ईमानदार कोई नहीं है । मुझे यह कहने में भी हिचक नहीं है कि मैं एक किस्म के अहंकार से लद गया । कोई भी टक्कर में नहीं है दूर-दूर तक । मैं अंदर ही अंदर अपने को प्रशंसा का पात्र मानकर अपनी पीठ ठोंकने लगा तथा शाबाशियों के गुलदस्ते समेटने लगा ।
   आदमी जब किसी बात पर आत्मविभोर हो, तो समय निकलते देर नहीं लगती । एक माह बीत गया और कुछ पता ही नहीं चला । अचानक बड़े साहब आ धमके उस रोज । यहाँ से दो किलोमीटर दूर एक दूसरे अहाते में उनका दफ्तर था । आते ही लगभग छापामार शैली में उन्होंने मेरे टेबल पर धावा बोल दिया । जैसे-जैसे एक फाइल से दूसरी फाइल पर उनकी निगाह दौड़ने लगी थी, वैसे-वैसे उनके चेहरे का रंग भी बदलने लगा था । मुझे लगा कि मेरे लिए प्रशंसा के शब्द साहब के मुँह से निकलने में अब देर नहीं । मेरी छाती टाइट होने लगी और ललाट उन्नत अवस्था को प्राप्त हो गया । कान बेसब्र हो उठे । अपने सुनने से ज्यादा अड़ोसियों-पड़ोसियों को सुनाने की बेचैनी मन पर हथौड़े मार रही थी ।
   मगर साहब के मुँह से बस इतना निकला, ‘मेरे घर पर हाजिर होइए शाम को...सभी फाइलों के साथ ।’ इसके बाद वह पड़ोसियों की ओर मुड़ गए । आँखें फाइलों पर थीं और हाथ उनकी पीठ पर । ‘शाबाश-शाबाश के शब्द कई बार उछले हवा में । मेरे कानों में भी पहुँचे गर्मागर्म पिघले सीसे की तरह । मुझे ऐसा आभास हुआ, जैसे मेरे भीतर की ही कोई चीज मुझे चिढ़ाने के लिए व्यग्र हो उठी हो ।
   शाम ढलते-ढलते मैं पहुँच गया था साहब के घर । ड्राइंग रूम में कदम रखते ही मुझे जोर का झटका लगा । पहले से उछल रहा टेंशन और उछल गया । दो-एक पड़ोसी यहाँ भी मौजूद थे । पता नहीं साहब क्या करने वाले हैं । उनका दोपहर का मूड भाँपकर कोई अज्ञानी ही मानेगा कि मैं ‘सु-गति’ को प्राप्त होने वाला हूँ । अपनी दुर्गति तब ज्यादा अच्छी नहीं लगती, जब पड़ोसी इर्द-गिर्द ही मौजूद हों ।
   साहब के ड्राइंग रूम में आते ही पड़ोसी खड़े हो गए, पर मैं ऐसा नहीं कर सका । पड़ोसियों की तरह उठकर मैं साहब का स्वागत नहीं कर पाया, क्योंकि मैं अभी बैठा ही कहाँ था । पड़ोसियों की उपस्थिति ने मुझे बैठने ही नहीं दिया था । साहब का इशारा पाते ही मैं बैठ गया । कुछ देर चुप्पी छाई रही । पड़ोसी आनन्द के भाव में थे, किन्तु एक-एक पल का भाव मेरे ऊपर भारी पड़ रहा था । तभी गला साफ करते हुए साहब की आवाज उभरी, ‘हाँ तो सरमा जी, इतना तो आप समझ ही गए होंगे कि मैंने आपको क्यों बुलाया है । हमें आपके खिलाफ ढेरों शिकायतें मिली हैं ।’
   ‘मगर, मेरा कसूर...?’
   वह बीच में ही बोल उठे, ‘एक हो तो बताऊँ । ये लोग लगभग रोज ही हमारी बैठक में उपस्थित होते हैं, पर शायद आपको इन चीजों में यकीन नहीं है ।’
   ‘मैं कुछ समझा नहीं ।’ मैंने अपनी अज्ञानता दिखाई ।
   ‘अब इतने अज्ञानी तो आप नहीं दिखाई देते कि आपको मिलने-मिलाने का मतलब भी पता न हो । आज कोई लैला-मजनूँ का जमाना नहीं है । तब जितना वियोग होता था, उतना ही प्रेम बढ़ता था । आज योग से प्रेम बढ़ता है । जितना मिलते जाओ, प्रेम उतना ही गाढ़ा होता है ।’
   मुझे उनका इशारा समझ में आने लगा था, पर मुझे नहीं पता था कि शाम को साहब के घर पर जाकर ही नौकरी पूरी होती है । मैं अभी यही सब सोच रहा था कि उनकी फिर आवाज उभरी । वह मेरी आँखों में आँखें गाड़ते हुए बोले, ‘शाम को करते क्या हैं आप?’
   ‘कुछ खास नहीं जी ।’ मैं सकुचाते हुए बोला, ‘रेलगाड़ी की पटरियों के इधर-उधर रहने वाले भूखे-नंगे बच्चों को देख मेरा मन द्रवित हो उठता है । उन्हीं को घर का बचा-खुचा खाना देने जाता हूँ । रोज वे मेरी राह देखते हैं । कभी-कभार फटे-पुराने कपड़े भी...।’ कहते हुए मैंने अपना सिर नीचे कर लिया था ।
   भूखा अगले दिन फिर भूख की ही बात करेगा साहब ।’ इस बार एक पड़ोसी बीच में उछल पड़ा था, ‘हमें देश की बात करनी चाहिए ।’
   ‘इसीलिए तो रोज शाम को हमारा मिलना होता है ।’ यह दूसरे पड़ोसी की आवाज थी, ‘हम साहब के आशीर्वाद से स्प्राइट की घूँटों के बीच अपने विभाग से लेकर देश की विदेश नीति तक की चर्चा करते हैं । अर्थनीति, राजनीति, कूटनीति...किस नीति पर हम चर्चा नहीं करते ।’
   सचमुच पहली बार मुझे अपनी अयोग्यता का आभास हुआ । मैं दो-चार बच्चों पर अँटका हुआ हूँ और ये लोग पूरे देश को छान रहे हैं । तभी साहब ने अपनी भारी आवाज में बोलना शुरु किया, ‘आप अपने पद के अनुरूप योग्य दिखाई नहीं देते । किसी भी फंड का व्यय विवेक व मौलिकता की माँग करता है । फंड जारी करते समय  अधिकतम लाभ की प्राप्ति ही सरकार की मंशा होती है । काम आप कर रहे हैं, तो ये लोग भी करते हैं ।’ उनका इशारा पड़ोसियों की तरफ था । तनिक रुकते हुए पुनः बोले, ‘आप घिसी-पिटी राह पर चलकर सीमित लोगों के हित की बात सोच रहे हैं, किन्तु ये लोग स्वविवेक का प्रयोग करते हुए अधिकतम लोगों को लाभ पहुँचा रहे हैं । इनके काम में मौलिकता भी है और सरकार की मंशा का पोषण भी । समाज व देश के हित से क्या अपना हित अलग हो जाता है?’
   अब मुझे अपनी ईमानदारी पर भी शक होना शुरु हो गया था । एक तरफ जिन कुछ लोगों के लिए फंड आ रहा है, सिर्फ उन्हीं लोगों को लाभ पहुँचाना और दूसरी तरफ अधिक से अधिक लोगों को लाभ पहुँचाना ! अधिकतम लाभ का सिद्धान्त तो मैंने भी पढ़ा है अर्थशास्त्र में । कहीं मेरी ईमानदारी से कोई चूक तो नहीं हो रही?
   मुझे अंदर से हिलता हुआ मानकर एक पड़ोसी धक्का देने की नीयत से बोला, ‘जब आदमी स्वस्थ होगा, तभी समाज व देश स्वस्थ होगा । आप न खाकर या कम खाकर अंततः देश का ही नुकसान करेंगे ।’
   ‘आप फाइल रख जाइए । मैं उसे बाद में देखता हूं ।’ इस बार साहब की आवाज आई थी । वह मुझे एक अभिभावक की तरह समझाते हुए बोले, ‘मुझे उम्मीद है कि आप अपनी अयोग्यताओं का परित्याग अवश्य करेंगे । ज्ञान जहाँ से मिले, आदमी को ग्रहण कर लेना चाहिए ।’
   कुछ देर बाद मैं सड़क पर खड़ा था । बाहर फैल चुका अंधेरा मुझे अपने आगोश में समेटने के लिए तेजी से मेरी ओर बढ़ने लगा ।

मंगलवार, 1 नवंबर 2016

नाटक का छल

                   

                      
   महाराज सियार इस वक्त अपने सिंहासन पर मौजूद हैं । पिछली रातों में बिन बुलाए मेहमान की तरह आ धमके सपनों ने उन्हें परेशान कर रखा है । प्रत्येक सपना चीख-चीख कर यही संदेश दे रहा है कि सिंहासन पर उनके बैठने के दिन अब लद चुके । सिंहासन उन्हें लात मारकर निकालने को संकल्पबद्ध होकर जैसे बैठा हो । ऐसे में महाराज सियार का सिंहासन को मजबूती से पकड़कर बैठना स्वाभाविक ही है । प्राणी जब अंदर से भयभीत होता है, तो वह कुछ ज्यादा ही बढ़-बढ़ के बोलता है । वह ऐसा इसलिए करता है, ताकि उसके भय का आभास किसी को न हो सके । हालांकि उसकी ऐसी स्थिति ही उसकी पोल खोल रही होती है ।
   सार्वजनिक मंचों से महाराज सियार अनगिनत बार यह दावा कर चुके हैं कि अगला महाराज बस वही बनने वाले हैं । सिंहासन के एकमात्र उत्तराधिकारी वही हैं । सत्ता रुपी दुल्हन के लिए उनसे अधिक सुयोग्य दूल्हा कोई और नहीं है । पर पता नहीं क्यों, जितना वह चिल्लाते जाते हैं, अंदर बैठा भय का भूत उतना ही अपना आकार बढ़ाते जाता है । भय के भूत को मार भगाने के लिए अपने लोगों की जरूरत पड़ती है । इस वक्त दरबार-ए-खास में वही लोग मौजूद हैं, जिनका दावा है कि अगर उनकी छाती फाड़ दी जाए, तो वहाँ भगवान श्रीराम नहीं, बल्कि महाराज सियार के दर्शन होंगे । ऐसे सूरमा भी मौजूद हैं, जो महाराज के प्रति भक्ति दिखाने के लिए थप्पड़ चला चुके हैं और जूतम-पैजार कर चुके हैं । ऐसे मौसम-विज्ञानी भी उपस्थित हैं, जो हवा के रुख का सटीक आकलन करते हुए सुरक्षा के लिहाज से महाराज से चिपक गए हैं ।
   दरबार-ए-खास को ठस्सम-ठस्सा देख महाराज सियार का छाती अकड़ाकर बैठना बनता ही बनता है । भीड़ सत्ता को बड़ी राहत देती है । यहाँ तो सब ठीक-ठाक लग रहा है, किन्तु बाहर की खबर जब तक नहीं मिल जाती, तब तक मन के चैन पर बैन लगा रहेगा । मन को इंतजार है, तो सिर्फ खबरी खरगोश का । आने वाले तो सभी आ चुके हैं, किन्तु वह है कि आने का नाम नहीं लेता । महाराज सियार की नजरें बाहर से आने वाली राह पर अटकी हुई हैं ।
   तभी खबरी खरगोश धड़धड़ाता हुआ दरबार में प्रवेश करता है । महाराज के सामने आकर वह घुटनों तक झुकते हुए कहता है, ‘महाराज की जय हो । एक खुशखबरी पकड़ के लाया हूँ महाराज । आदेश हो तो सभी के समक्ष पेश करूँ ।’
   ‘तुझे आदेश की क्या जरूरत है । इधर-उधर न कर और जल्दी से सुना । अब मुझसे रहा नहीं जाता ।’ कहते-कहते महाराज की अधीरता सतह पर आ जाती है ।
   ‘महाराज, पिछला सर्वे जहाँ आपको पिछड़ते हुए दिखा रहा था, वहाँ अब नया सर्वे आपकी बढ़त को बता रहा है । यह तो चमत्कार हो गया महाराज । आपने तो कुछ किया भी नहीं और...’
   ‘सब राजपिता का कमाल है । उनका लिखा नाटक सुपर-डुपर हिट रहा ।’ इतना कहते ही महाराज के चेहरे पर एक रहस्यमयी मुस्कान लोटम-लोट होने लगती है ।
   ‘पर हुजूर, पिछले साढ़े चार साल से नाटक तो खेला ही जा रहा था ।’ खबरी के चेहरे पर आश्चर्य के भाव हैं । वह अपनी बात आगे बढ़ाता है, ‘एक नाटक के चलते हुए भी दूसरा नाटक !...बात कुछ समझ में नहीं आई ।’
   ‘तेरी जितनी औकात होगी, तू उतना ही सोच पाएगा न । बात सबकी समझ में आ जाए, तो नाटक का मजा ही क्या है ।’
   ‘मैं फिर पूछता हूँ महाराज, एक नए नाटक की जरूरत क्या थी आखिर?’
   ‘चुनाव सिर पर है और हमारा ही गणित हमको पिछड़ते दिखा रहा था । वैसे भी अब जनता से वोट लेना उतना आसान नहीं रहा । आज उसे सबसे बड़ा मूर्ख बनाने वाला ही उसके वोट का हकदार होता है ।’
   ‘मतलब यह नाटक जनता को...?’
   ‘और नहीं तो क्या । तू कुछ और तो नहीं समझ बैठा था?’ महाराज के चेहरे पर एक प्रश्न-सा उभरता है ।
   ‘हाँ महाराज, मुझे लगा था कि सभी आपही को घेरकर...उस अभिमन्यु के जैसा ।’ खबरी खरगोश की आवाज मद्धिम होती जाती है कहते हुए ।
   ‘तू समझदार है । अभिमन्यु वाली सहानुभूति ही नए सर्वे में ललकार रही है । ख्याल रहे, यह बात जनता तक कतई न पहुँचे । चुनाव होने तक तो कतई नहीं । उसके बाद कोई क्या उखाड़ लेगा अपना ।’
   खबरी खरगोश को महसूस होता है कि यह और कुछ नहीं, छल है जनता के साथ । पर इसे जनता समझे, तब न !

मंगलवार, 25 अक्टूबर 2016

चोर और महाचोर

                  
   चूहों की सालाना आम बैठक आहूत की गई थी । तमाम पदाधिकारी और सिविल सोसायटी के चूहे अपने-अपने तर्कों-कुतर्कों के साथ अपने लिए निर्धारित सीटों पर ठसक और कसक के साथ शोभा को प्राप्त हो रहे थे । ठसक इस बात का...कि वे हाई प्रोफाइल चूहे हैं और उनके बैठने के लिए सजी-धजी कुर्सियों की कतार है । आम चूहों को देखिए । वे इस वक्त जमीन पर धूल-धूसरित हुए पड़े हैं । कसक इस बात को लेकर...कि उनके पास अब पहले वाली इज्जत-लिज्जत नहीं रही । आम जन इज्जत सौंपता था तथा हुकूमत की तरफ से मलाई वाले पद सौंपे जाते थे । अब तो ये सारी चीजें सपना बन गई लगती हैं । गिले-शिकवे चाहे जो भी हों, इस वक्त हर तरफ एक-जुटता का ही आलम था । मनुष्यों की तरफ से कुछ डराने वाली खबरें आ रही हैं । चूहों के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न की तलवार लटक गई है ।
   सरदार के आते ही बैठक को आगे बढ़ाने की हरी बत्ती स्वतः जल उठी । गणेश-वंदना के बाद सरदार बोला, ‘हाँ तो जासूस-प्रमुख जी, क्या खबर है आपके पास? क्या कुछ नया-नवीन घटित हुआ है पिछले दिनों?’
   ‘नया तो बहुत कुछ घटा है सरदार, पर एक चीज हमारे लिए चिंता की वजह बन सकती है ।’ जासूस-प्रमुख के चेहरे से सामान्यता गायब थी ।
   ‘क्यों ऐसी क्या बात हो गई? कहीं सिविल सोसायटी के चूहे असहिष्णुता वाला गेम तो नहीं खेलने लगे? या फिर आम चूहों ने बगावत कर दिया है?’ पूछते हुए सरदार के चेहरे पर भी चिंता की लकीरें खिंच गईं ।
   ‘असहिष्णुता वाला गेम खेलना चूहों के बस के बाहर है सरदार ।’ इस बार सिविल सोसायटी का एक प्रतिनिधि चूहा उठते हुए बोला, ‘यह तो मनुष्यों का पसंदीदा गेम है । वे तो अक्सर अपनी जरूरत और लाभ-हानि के मुताबिक इसे खेलते रहते हैं ।’
   ‘मगर उनके खेलने से हमें क्या परेशानी है?’ सरदार ने कुछ झुँझलाते हुए कहा ।
   ‘परेशानी यह है हुजूर कि असहिष्णुता की वह गेंद उन्होंने हमारी तरफ उछाल दी है ।’ उप सरदार ने पहली बार अपनी चुप्पी तोड़ी थी ।
   ‘मैं कुछ समझा नहीं ।’ सरदार की झुँझलाहट तनिक और बढ़ गई थी । वह तेज आवाज में बोला, ‘पहेलियाँ बुझाना बंद कीजिए आप लोग और स्पष्ट बताइए कि बात क्या है?’
   ‘सरदार, एक देश में एक चूहे की कीमत बीस हजार लगाई गई है ।’ जासूस-प्रमुख ने वास्तविक बात को सरदार के सम्मुख रख दिया ।
   ‘यह तो खुशखबरी है हमारे लिए ।’ सरदार चहकते हुए बोला, ‘और आप लोग हैं कि चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं । अरे, ऐसा कहिए कि हमारा रुतबा बढ़ गया है । कीमत कोई ऐसे ही नहीं बढ़ जाती ।’
   ‘लेकिन यह हमको पकड़ने की कीमत है । मनुष्य ने हमें समाप्त करने के लिए यह दाँव चला है ।’ एक आम चूहे की पीड़ा बाहर आई थी ।
   ‘ओ...तो ऐसी बात है । हम तो कुछ दूसरा ही समझ रहे थे ।’ यह कहते हुए सरदार चुप हो गया । पूरे हॉल में सन्नाटा छा गया । कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं था इस वक्त । आखिर सरदार ने ही चुप्पी को तोड़ते हुए पूछा, ‘क्या अपने देश में भी ऐसी कोई खुसपुसाहट है?’
   ‘नहीं सरदार, पर बात पहुँचते देर कितनी लगती है ।’ उप सरदार ने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा ।
   ‘पहुँचने दीजिए बात को, लेकिन हमें यकीन है कि वैसा कुछ नहीं होने वाला इस देश में ।’ सरदार के स्वर में आश्वस्ति के भाव थे ।
   ‘आप इतनी गारंटी के साथ यह बात कैसे कह सकते हैं सरदार?’ समवेत स्वर में आम चूहों ने पूछा ।
   ‘वह इसलिए कि मनुष्य हम से कहीं बड़ा चूहा है । अनधिकृत रूप से हम केवल अनाज को ही छिपाए रखते हैं, पर उसने तो न जाने किन-किन चीजों को अपनी बिलों में छिपा रखा है । चूहों के सिर पर इनाम रखने का मतलब उसका अपने सिर पर इनाम रखना होगा । जहाँ तक मेरी जानकारी है, उसके अनुसार मनुष्य इस दरजे का मूर्ख तो कतई नहीं है ।’
   बात की गहराई तक जाते ही सभी के चेहरों से चिंता की लकीरें मिटती चली गई थीं । सचमुच यह तो चोर और महाचोर की बात निकली और चोर-चोर मौसेरे भाई हमेशा से होते आए हैं ।

शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2016

खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे

                   
   सिंहासन की ओर देखते-देखते आँखें पथरा गई हैं । युवराज सियार को तो बस खाट का ही सहारा है । खाट की हिमाकत इतनी कि वह उन्हें काट रही है । एक चादर भला कितनी सुरक्षा प्रदान कर सकती है । जिसका जन्म सिंहासन पर बैठने के लिए हुआ हो, वह खाट पर बैठे-यह सच्चाई क्या कम है कुछ चुभने-काटने के लिए । चादर सरक गई है, मगर युवराज को होश नहीं है । उनके मन में आँधियाँ चल रही हैं । चेहरा भी विध्वंस के प्रभाव को फैलाने में लगा हुआ है । उन्हें इंतजार है खबरी खरगोश का । उनके मन की चीजों को वही पहुँचा सकता है, तटस्थ रूप से आडियंस तक । अब जनता ही जनार्दन बनके फैसला करे ।
   तभी खबरी खरगोश अपने ताम-झाम के साथ पहुँचता है और तत्काल युवराज से मुखातिब होता है । ‘हाँ तो युवराज, खबर आ रही है कि सरकार के शल्य-प्रहार पर ही आपने अपना वाक्-प्रहार ठोंक दिया है । क्या यह खबर सही है?’
   ‘सौ फीसदी सही खबर है ।’ युवराज ने अपने कुर्ते की आस्तीन चढ़ाते हुए कहा, ‘हम क्या करते? सरकार ने हमें मजबूर कर दिया ।’
   ‘मगर शत्रु पर शल्य-प्रहार करने के लिए तो आप ही सरकार को ललकार रहे थे ।’ खबरी खरगोश तुरंत अपना प्रश्न दागता है । वह पूछता है, ‘क्या सरकार को कोसने और ललकारने के लिए आपने अपने प्रवक्ता घड़ियालों को मैदान में नहीं उतार रखा था? उस वक्त तो खूब ललकार-ललकारकर...’
   ‘हाँ, पर हमें क्या पता था कि सिंहासन पर बैठा जीव एकदम से फन्ने खाँ हो जाएगा ।’ युवराज बीच में ही बोल उठते हैं, ‘हम तो समझे थे कि हमारे पूर्वजों की तरह वह भी सफेद कबूतर बना रहेगा ।’
   ‘सफेद कबूतर बने रहने का मतलब...?’
   ‘हमारे पूर्वजों की बात और थी । समय दूसरा था, मगर यह तो फँसा हुआ था जनता के आक्रोश के बीच । हम ललकार जरूर रहे थे, पर दिल से चाहते थे कि वह हाथ पर हाथ धरे बैठा रहे और उसे कायर साबित किया जा सके ।’
   ‘तो क्या सरकार के शत्रु पर प्रहार और आपके खेमे में दुख के संचार के बीच कोई सम्बन्ध भी दिखाई देता है आपको?’ खबरी अगला प्रश्न दागता है ।
   ‘बाल की खाल तो खूब निकालते हो, पर यह मामूली बात भी समझ में नहीं आती । अरे, उसने शत्रु पर हमला नहीं बोला है, बल्कि हमारे भविष्य पर ही हमला बोल दिया है । वह परोक्ष रूप से हमें भी मारना चाहता है ।’
   ‘यह तो वही बात हुई कि आपका छोड़ा हुआ आप ही को तोड़ने लगा ।’ खरगोश चुटकी लेता है और अगला प्रश्न पूछता है, ‘आपके वाक्-प्रहार पर सोशल मीडिया में जमकर प्रहार हो रहा है । ऐसा क्यों होता है कि आपकी कही हर गलत बात को सही साबित करने के लिए आपके प्रवक्ता मैदान में कूद पड़ते हैं? क्या वे अभिशप्त हैं ऐसा करने के लिए?’
   ‘अभिशप्त नहीं, वरदान प्राप्त है उन्हें । यह उनका सौभाग्य है कि वे हमारी चरण-सेवा में हैं । हम न होते, तो वे भी न होते । इतने बरसों तक सत्ता का सुख लूटते रहे । यह हमारे परिवार के नाम के बिना कतई सम्भव नहीं था । आगे भी सुख लिखा होगा, तो हमारे ही...’
   ‘फिर भी आपका वक्तव्य क्या आपके खानदान के संस्कारों के अनुरूप है?’
   ‘सरकार बदल जाती है, तो संस्कार भी बदल जाते हैं । सत्ता से बाहर रहने के बावजूद हमीं से संस्कार और मर्यादा की अपेक्षा? युवराज लानत भरी निगाह डालते हैं खबरी खरगोश पर ।
   तभी खबरी कह उठता है, ‘आपके कहने का अभिप्राय यह है कि सत्ता से बाहर बैठे व्यक्तियों को मर्यादा और संस्कार के झमेले में नहीं पड़ना चाहिए । सत्ता में बैठे लोगों पर गलत-सही हमला ही असली संस्कार होना चाहिए । खैर, अंतिम प्रश्न आपसे । क्या वजह है कि हर बात का दोष आप सरकार के मुखिया पर ही थोपते हैं? मजदूर हो या मजलूम, किसान हो या जवान, दलित हो या पिछड़ा-सब की समस्याओं के लिए आप सिर्फ और सिर्फ सरकार के मुखिया को ही गाली देते हैं, जबकि दोष खुल्लम-खुल्ला प्रांतीय सरकारों का होता है ।’
   यह सुनते ही युवराज के चेहरे का रंग बदलकर एकदम लाल हो उठता है । जैसे किसी ने उनकी दुखती रग पर गरम तवा ही रख दिय़ा हो । वह खाट पर खड़े होकर चिल्लाते हैं, ‘सत्ता पर हमारा पुश्तैनी अधिकार था । हम हैं सिंहासन के एकमात्र स्वामी, जिस पर उस जीव ने कब्जा जमा लिया है, जिसे तुम सरकार का मुखिया कहते हो । वह अनधिकृत रूप से बैठा हुआ है हमारे सिंहासन पर । ऐसे में उसके लिए गाली नहीं निकलेगी, तो क्या प्रशंसा की ताली निकलेगी?’
   खबरी खरगोश को समझते देर नहीं लगती । वह आज आखिर पहुँचने में सफल हो गया लगता है युवराज के मन के भीतर । वह तो खिसियानी बिल्ली बने बैठे हैं । वह कैमरा पर्सन के साथ तेजी से भागता है स्टूडियो की तरफ । खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे शीर्षक से जबर्दस्त टीआरपी-बटोरू मसाला तैयार है ।

शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2016

सेफ्टी-जूते और स्टार्ट-अप

                   

   शाम को पार्क में टहलते हुए शुक्ला जी मिल गए । आज रोज की तरह उनकी चाल में वह तेजी नहीं थी । सामना होते ही मैंने पूछा, ‘क्या बात है मान्यवर, आप तो जैसे पैसेन्जर ट्रेन हो लिए हैं आज?’
   उन्होंने मुझे ध्यान से देखते हुए कहा, ‘कोई बात नहीं है बन्धु । बस यूँ ही थोड़ा ध्यान भटक गया था ।’
   ‘कोई बात तो जरूर है, वरना आपकी ट्रेन तो किसी भी हाल्ट को धकेलते हुए आगे निकल जाती है ।’ मैंने बात को निकलवाने की एक और कोशिश की ।
   ‘बात तो ठीक है आपकी ।’ वह स्वीकार करते हुए बोले, ‘एक चीज है, जो मुझे चिंतित किए जा रही है ।’
   ‘ऐसा क्या?’ मैंने उनकी चिंता के साथ अपनी चिंता को जोड़ते हुए कहा, ‘क्या कोई पारिवारिक समस्या आन खड़ी हुई है?’
   ‘अरे नहीं-नहीं । मैं तो युवाओं की बात सोच रहा था ।’ उन्होंने अपने मन को थोड़ा खोलते हुए कहा ।
   ‘क्यों, युवाओं को क्या हो गया है भला ! भले-चंगे तो दिखते हैं मुझे ।’ मैंने अपने अनुभव को साझा करते हुए कहा ।
   ‘भले-चंगे दिखते जरूर हैं, पर उनकी अपनी चिंताएँ भी हैं । युवा चिंताग्रस्त रहें, यह देश के लिए चिंतित करने वाली बात है । है कि नहीं?’ कहते हुए उन्होंने अपनी नजरें मेरे चेहरे पर गड़ा दीं ।
   ‘बेशक, किन्तु उनकी चिंता है क्या?’
   ‘रोजगार की चिंता । चलिए, पहले आराम से किसी बेंच पर बैठते हैं, फिर इस पर सोच-विचार करते हैं ।’ कहते हुए वह एक बेंच की ओर बढ़ गए । मैं भी उनके पीछे-पीछे हो लिया ।
   ‘हाँ, रोजगार की चिंता तो है ही ।’ बेंच पर बैठते हुए मैंने बात को आगे बढ़ाई ।
   ‘सिर्फ रोजगार की ही चिंता नहीं है । चिंता यह भी है कि कौन सा उद्योग-धंधा किया जाए ।’
   अब जाके बात पूरी तरह समझ में आई थी मेरे । मैंने अपनी चिंता रखते हुए कहा, ‘पर हम लोग क्या कर सकते हैं । इस पर तो सरकार को सोचना चाहिए ।’
   ‘सरकार तो सोच ही रही है, बल्कि यूँ कहें कि उसने तो सोच भी लिया है ।’ वह तनिक आश्वस्त होते हुए बोले, ‘स्टार्ट-अप कार्यक्रम आखिर उसी ने तो शुरु किया है । इसके बावजूद युवाओं के सामने समस्या यह है कि वे कौन सा उद्योग शुरु करें...कौन सी ऐसी चीज बनाएँ, जिसकी देश में अच्छी डिमांड हो या निकट भविष्य में हो जाए ।’
   ‘यह तो सचमुच सोचने वाली बात है ।’ मैंने अपने चेहरे पर गम्भीरता के कुछ बादलों को जमाते हुए कहा ।
   ‘पर मैंने तो सोच भी लिया है । आज नेताओं को लेकर जिस तरह घृणा और गुस्सा बढ़ता जा रहा है, उसे ध्यान में रखते हुए कुछ चीजों की डिमांड भविष्य में खूब बढ़ने वाली है ।’
   ‘मैं कुछ समझा नहीं । आप बात को स्पष्ट तो कीजिए ।’
   ‘वही तो बता रहा हूँ । भविष्य में स्याही और जूते की डिमांड जबर्दस्त रूप से बढ़ने वाली है ।’ उन्होंने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा ।
   ‘मगर स्याही और जूते ही क्यों?’ ‘वो इसलिए कि इनसे दोहरा लाभ है । नेताओं पर स्याही और जूते फेंक देने मात्र से फेंकने वाले का आक्रोश पिघल जाता है । वह चोट पहुँचाने के लिए ऐसा नहीं करता, बल्कि पोतना और उछालना ही उसकी नीयत होती है । लेकिन दिक्कत यह है कि आज न तो वैसी स्याही है और न ही जूते ।’
   ‘क्यों, दोनों तो मौजूद हैं बाजार में ।’ मैंने उन्हें याद दिलाने की कोशिश की ।
   ‘मौजूद हैं, मगर उद्देश्य की समुचित पूर्ति नहीं करते । अब बॉल-प्वाइंट पेन का जमाना है । उसकी स्याही निकालकर पोतने में खतरा यह है कि वह जितनी नेता को पोतती है, उससे कहीं अधिक पोतने वाले को पोत डालती है । इसलिए इस काम को अंजाम देने के लिए ‘सेफ्टी स्याही’ की जरूरत है ।’
   ‘चलिए मान लिया, पर जूतों की क्या कमी है? एक खोजिए, दस मिलते हैं ।’
   ‘बेशक मिलते हैं, पर वे उछलने के बाद हिंसा के दूत बन जाते हैं । ऊपर से उनकी बनावट ऐसी है कि उछलते हैं दिल्ली के लिए, किन्तु हवा के प्रतिरोध के चलते लक्ष्य-संधान करते हैं मुम्बई में । जूते ऐसे होने चाहिए, जो सटीक लक्ष्य-संधान करें । इसलिए ‘सेफ्टी-शू’ का निर्माण एक चोखा धंधा है आने वाले समय में ।’

   ‘सचमुच, काफी चिंतन किया है आपने इस मसले पर । युवाओं को निश्चय ही इस पर विचार करना चाहिए । आखिर उनके भविष्य का सवाल जो ठहरा ।’ कहते हुए मैं बेंच से उठ खड़ा हुआ । वह भी तेज गति से मेरे पीछे लपके । अब हम दोनों समान चाल से पार्क की दूसरी ओर बढ़ रहे थे ।

शनिवार, 1 अक्टूबर 2016

मच्छर भाग रहे हैं

                       



  

 उस दिन रात कुछ ज्यादा ही काली और डरावनी थी । झींगुर तक डर के मारे अपने वाद्य यंत्रों को समेट कर इधर-उधर छिप गए थे । कभी-कभी चमगादड़ों की चिंचियाहट स्तब्ध नीरवता को छेड़ जाती थी । दूर-दूर से आती सियारों के रोने की आवाजें भय की भीत को और मजबूत किए जा रही थीं । पूरा गाँव सोया हुआ था । रखवाली करने वाले कुत्ते भी नींद के आगोश में दुबके हुए थे । रात का तीसरा प्रहर अपनी जवानी पर था । तभी अचानक कदमताल के संगीत उभरने लगे थे । देखते-देखते धरती कदमों के कचूमरी चाल से कसमसा उठी । मच्छरों ने चेहरे पर मुखौटा लगाकर हमला बोल दिया था ।
   रात भर हिंसा की हँसी गूँजती रही । खून पीने-पिलाने के कई दौर चले । इस जश्न में कोई सार्थक व्यवधान उपस्थित नहीं हुआ । गाँव वाले बस हाथ हिलाते रह गए । प्रतिरोध की शक्ल में कुछ-एक फुसफुसिया प्रक्षेपास्त्र दागे जरूर गए, पर वे शत्रु का बिना कुछ नुकसान किए अपने ही शरीर से आ टकराए । भोर होते-होते अपना अभियान पूरा कर मच्छर वापस लौट गए ।
   उधर उजाला फैला, इधर क्रोध की ज्वाला धधक उठी । इतनी हिम्मत मच्छरों की ! सैकड़ों लीटर खून गायब था गाँव से । क्या बच्चा-क्या बूढ़ा, क्या पुरुष-क्या स्त्री, कोई भी नहीं बच पाया था हमले के आघात से । आनन-फानन में गाँव की चौपाल पर मीटिंग बुलाई गई । जितने लोग-उतनी राय । सबक सिखाने से लेकर माफ करने तक, किसी भी विकल्प की सलाह आने से न रही । अंततः फैसला मुखिया पर छोड़ा गया । अगले ही पल मुखिया की गम्भीर वाणी गूँज उठी, ‘मच्छरों का क्या है...छोटे लोग हैं बेचारे ! मगर हम तो बड़े लोग हैं । अपने बड़प्पन को देखते हुए हम यह हमला कदापि नहीं कर सकते । कोई क्या कहेगा हमारे बारे में? यही न कि हमें अपनी ताकत का अहंकार हो गया है । पिद्दी से जीव पर टूट पड़े सनकी हाथी की तरह ।’
   ‘मगर मच्छरों को उनकी हरकत का खामियाजा भुगतना ही चाहिए ।’ किसी कोने से किसी ने विरोध की आवाज उठाई ।
   ‘तो मुखिया आप ही क्यों नहीं बन जाते?’ तनिक गुस्से के साथ मुखिया बोला, देखिए हम अपना बड़प्पन नहीं छोड़ सकते । हमारे गाँव की महानता सदियों से चलती चली आई है । उन पर हमला करने से हमारी महानता को कितना आघात लगेगा...सोचिए जरा ।’ फिर कुछ देर रुककर, ‘हमारे विचार में हमें इस मसले को पंचाट के समक्ष पेश करना चाहिए । वही सोच-विचार करे मच्छरों के बारे में ।’
   मुखिया की बात में अधिकांश गाँव वालों को दम नजर आया । विरोधी स्वर रखने वाले चुप्पी साध गए । और मसला पंचाट के हवाले कर दिया गया । उधर मच्छरों की मीटिंग बुलाई गई...‘ऐक्शन का क्या रिएक्शन हुआ’ को जानने के लिए ।
   ‘गुस्सा तो उन्हें आया था, पर जल्दी ही वे फिस्स हो गए ।’ एक मच्छर खड़ा होते हुए बोला, ‘अच्छा है, अच्छा है...’
   ‘वे कुछ सोचें-करें, इससे पहले ही उनपर महानता का भूत सवार हो गया । अब भूत उन्हें पंचाट में ले गया है ।’ कहते हुए उसके चेहरे पर खिखियाती हँसी उभर आई थी । ढेर सारे मच्छर ठहाका लगाकर हँस पड़े ।
   ‘यह तो अच्छी खबर है ।’ मच्छरों का मुखिया प्रसन्न होते हुए बोला, ‘इस बात से जाहिर होता है कि वे काहिल लोग हैं । कुछ करने-धरने वाले नहीं वे । अधिक से अधिक हाथ भाँजकर अपनी विवशता दिखा सकते हैं ।’ फिर खुफिया प्रमुख की ओर मुखातिब होकर, ‘आप उनकी गतिविधियों पर निरन्तर नजर रखें, ताकि उनपर एक और सफल हमला किया जा सके ।’
   कुछ समय बीतने के बाद गाँव पर फिर हमला हो गया । मच्छर इस तरह खून पीने लगे, मानो पिछले हमले के बाद से भूखे बैठे हों । इधर गाँव वाले भी कभी-कभार हवाई फायरिंग करने लगे । कुछ-एक मच्छर धराशायी भी हुए, पर उनका तांडव जारी रहा । रात दिन में बदल गई । मच्छर पीछे हटने लगे और गाँव वाले आगे बढ़ने लगे । देखते-देखते मच्छरों का एक बड़ा इलाका उनके कदमों के नीचे आ गया । उनकी ऐसी दशा देख गाँव वालों ने युद्ध-विराम की घोषणा कर दी । इसके बाद संधि का आयोजन किया गया । मच्छरों ने कौन सी बात मानी, किसी को पता नहीं, पर दुनिया ने गाँव वालों की तरफ से एक महानता को घटित होते देखा । कब्जे वाले इलाके पुनः मच्छरों के अधीन हो गए ।
   इस हमले में मच्छरों को कुछ जानी नुकसान उठाना पड़ा था । अतः मीटिंग में फैसला हुआ कि गाँव वालों को किसी भी कीमत पर छोड़ना नहीं है, पर हमले की रणनीति को बदल दिया जाए । मच्छरों के छोटे-छोटे समूहों के साथ हमले को अंजाम दिया जाए । छिपकर हमला किया जाए । उधर गाँव वाले फिर लापरवाह हो गए । आखिर मच्छर ही तो हैं । हमारे आगे उनकी हैसियत ही क्या है । उनसे हमारा छोटा-मोटा नुकसान कोई मायने नहीं रखता । वे अपना मच्छरपना बेशक दिखाएं, पर हम तो अपनी महानता ही दिखाएंगे ।
   इसके बाद अनगिनत छोटे-छोटे हमले मच्छरों की तरफ से किए गए, पर गाँव वालों ने भर्त्सना के जवाबी फायर दिए उनकी तरफ । एक से बढ़कर एक कठोर शब्दों के गोले दागे गए । ये गोले मच्छरों के कानों तक पहुँचते-पहुँचते फुस्स हो गए । उन लोगों ने इस पर गहन विचार-विमर्श किया । एक बात स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आई कि शत्रु निकम्मा है । वह अपना गाल तो बजा सकता है, मगर हमारा बैंड नहीं बजा सकता । अब हम हमला तो छोटा ही करेंगे, पर घाव गम्भीर देंगे ।
   इसी बीच गाँव का मुखिया बदल गया । इस खबर से बेखबर मच्छरों ने अपना हमला जारी रखा । वो क्या है कि आदत नहीं छूटती । ऊपर से शत्रु की निष्क्रियता दुस्साहस का पंख लगा देती है । एक रात मच्छरों की एक छोटी टुकड़ी ने गाँव पर भीषण हमला बोल दिया । खूब खून-खराबा मचा और त्राहि-त्राहि भी । त्राहि-त्राहि तो पहले भी होती थी, पर बस यही होकर रह जाती थी । नए मुखिया ने महानता और काहिली के लबादे को लात मार दिया तथा घात लगाकर मच्छरों पर हमला बोल दिया । ढेर सारे मच्छर मारे गए ।
   आनन-फानन में मच्छरों के मुखिया ने मीटिंग को आहूत कर लिया । गहन विचार-विमर्श का यही निष्कर्ष निकला कि अब शत्रु महानता दिखाने के मूड में नहीं है और वह हमसे हमीं की भाषा में बतियाने लगा है । इसलिए पहले वाली मौज-मस्ती गई । ऊपर से जान के भी लाले आ पड़े । अब तो भाग चलने में ही भलाई है ।

   मच्छर भाग रहे हैं । क्या आप बता सकते हैं कि मच्छरों की यह विशेष प्रजाति किस इलाके में निवास करती है? गाँव में काली रात तो अब भी हो रही है, किन्तु डर वापस लौटते मानसून के बादल की तरह छँटता चला जा रहा है ।

शनिवार, 24 सितंबर 2016

समाजवाद का प्रहसन

                    
                          दृश्य-एक
   ( स्थान- दरबार-ए-खास । महाराज सियार सिंहासन पर चिपके हुए हैं । मुट्ठियां हत्थों पर कसी हुई हैं । सामने आसनों पर महाराज के अपने लोग विराजमान हैं । सभी की आँखें बाहर की ओर लगी हुई हैं । तभी खबरी खरगोश दरबार में प्रवेश करता है, बहैसियत सरकारी अखबार के प्रतिनिधि के रूप में ।)
खबरी खरगोश- महाराज की जय हो । खबर उड़ी है महाराज कि आपने दो मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया है । चुनाव के ठीक पहले क्या इसे उचित कदम माना जा सकता है?
महाराज- बेशक, इसे उचित कदम न मानना मूर्खता होगी । उचित कदम के लिए हर समय उचित होता है । भ्रष्टाचार को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जा सकता । जो भ्रष्ट हैं, उन्हें जाना होगा बाहर ।
खबरी- पर वे मंत्री तो पिछले चार साल से भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए थे, कार्रवाई अब जाके क्यों?
महाराज- कार्रवाई समाजवाद का तकाजा थी । समाजवाद बेसब्र नहीं है । उसमें धीरज धारण किए रखने की अपूर्व क्षमता है । उसने धैर्यपूर्वक भ्रष्टाचार को देखा और अंततः कार्रवाई कर दी ।
खबरी- ( कैमरा की ओर मुखातिब होकर ) तो देखा आपने समाजवाद और महाराज की सक्रियता ! महाराज न्यायप्रिय व्यक्ति हैं । उन्होंने भ्रष्टाचार को भी भरपूर मौका दिया फलने-फूलने और अपनी सफाई देने का । इतने दयालु और न्यायप्रिय व्यक्ति पर क्या निष्क्रियता का आरोप उचित है?
    (इस कथन के साथ ही पर्दा गिरता है ।)
                         दृश्य- दो
   ( स्थान- राजपिता सियार का महल । राजपिता अपने आसन पर चिंता-भाव के साथ बैठे हुए हैं । चचा सियार खड़े-खड़े फुफकारते साँप हो रहे हैं । अपने और पराए-दोनों बेचैनी के आलम में जमीन पकड़े हुए हैं, ताकि वे समाजवाद को किसी भी सूरत में उसमें समाने से रोक सकें ।)
खबरी खरगोश- चचा सियार, आपके दो आदमी बाहर हो गए हैं । बाहर वे बालू को हथेलियों में बाँधे जा रहे हैं और इधर आपका भी बोरिया-बिस्तर बँध गया । आपके विभाग छीनकर आपको भी बेरोजगार कर दिया गया है । क्या आप अब भी...?
चचा सियार- देखिए, हम समाजवादी लोग विभाग के चक्कर में नहीं पड़ते । चूँकि समाजवाद पर खतरा आन पड़ा है, इसलिए हमें बाकी पदों से इस्तीफा देना ही होगा । राजपिता के सामने हमने इस्तीफे का प्रस्ताव कर दिया है ।
खबरी- ( राजपिता की ओर मुड़कर ) क्या आप इस्तीफे को स्वीकार करने जा रहे हैं? इसके बाद समाजवाद का क्या होगा? क्या आप मानेंगे कि एक बार फिर समाजवाद खतरे में है?
राजपिता- समाजवाद पर कोई खतरा नहीं है । जहाँ तक इस्तीफे की बात है, उसे हम कतई स्वीकार नहीं करेंगे । इसी में समाजवाद की भलाई है ।
   ( राजपिता और चचा सियार के बीच कुछ देर खुसर-पुसर होती है । तनाव दोनों के चेहरों से अचानक गायब हो जाता है । खुसर-पुसर के प्रतिफल के रूप में जो फॉर्मूला निकलकर आता है, उसे खबरी खरगोश को थमा दिया जाता है । इसी के साथ पर्दा गिरता है ।)
                      दृश्य- तीन
   स्थान- महाराज सियार का दरबार-ए-खास । महाराज के चेहरे पर हल्के मुस्कान के छींटे दिखाई दे रहे हैं । मंत्रीगण भी कुछ राहत की अवस्था में हैं ।)
खबरी खरगोश- महाराज, सुना है कि आप बर्खास्त मंत्रियों को जल्द ही बहाल करने वाले हैं?
महाराज- हमने तो बहाल कर भी दिया । मीडिया ही खबर चलाने में पीछे रह गई । (यह कहते हुए महाराज ठठाकर हँसते हैं ।)
खबरी- पर इससे तो समाजवाद को बहुत नुकसान होगा । एक तरह से आपने भ्रष्ट आचरण को गोद में लाकर बिठा दिया ।
महाराज- समाजवाद कोई फूस की झोपड़ी नहीं है, जिसे कोई भी गिरा दे । यह तो सोने का मजबूत महल है, जिसे हमने मेहनत से बनाया है ।
खबरी- उस वक्त भ्रष्ट मंत्रियों को बाहर करना समाजवाद के हित में था, तो आज उन्हें अंदर लेना किसके हित में है?
महाराज- समाजवाद के हित में । इसका हित तो हम समाजवादी ही बेहतर समझ सकते हैं । कोई भी वाद समाज-निरपेक्ष नहीं होता । बर्खास्त करना भी समाजवाद के हित में था और बहाल करना भी उसी के हित में है ।
   ( खबरी खरगोश समाजवाद की इस नई व्याख्या को दर्शकों तक पहुँचाने के लिए कैमरे की ओर मुँह करता है । उधर पर्दा भी गिरना शुरु हो जाता है ।)
                       दृश्य- चार
   (स्थान- राजपिता सियार का महल । राजपिता महाराज सियार से पार्टी के अध्यक्ष की माला छीनकर चचा सियार को पहना रहे हैं । चचा और उनके चेले-चपाटी गद्गद् अवस्था में खड़े हैं ।)
खबरी खरगोश- आखिर इस माला का हस्तांतरण क्यों?
राजपिता सियार- दरअसल महाराज सियार के गले में कई मालाएँ हो गई थीं, जिनके बोझ से वह असंतुलित हो रहे थे । उनके संतुलन को बहाल करने के लिए एक-आध मालाएँ इधर करना अनिवार्य हो गया था । अब उनके कदम भी नहीं लड़खड़ाएंगे और इधर बोझ के कारण चचा सियार भी ज्यादा नहीं उछलेंगे ।
खबरी- (चचा सियार की ओर मुड़कर) माला की जिम्मेदारी निभाने के लिए आप क्या करने वाले हैं?
चचा सियार- हमने तो कर भी दिया । महाराज के करीबी भ्रष्ट लोगों को उनके पदों से हटाने का हुक्म अभी-अभी ही भेजा है । वे लोग जमीनों पर कब्जा किए बैठे थे । इस कारण समाजवाद का बहुत नुकसान हो रहा था ।
खबरी- अब चुनाव में किसकी चलेगी?
चचा- देखिए, परीक्षा महाराज की है, तो हमारी भी है, बल्कि पार्टी के अध्यक्ष की वजह से बड़ी परीक्षा हमारी है । अतः हमारी ही ज्यादा चलेगी ।
   (चचा सियार मजबूत कदमों से मंच के दाहिनी ओर रुख करते हैं । उनके साथ समर्थक नारे लगाते हुए आगे बढ़ते हैं । पर्दा गिरता है ।)
                    दृश्य- पाँच
   (स्थान- दरबार-ए-खास । एक-दूसरे से नजरें चुराने वाले महाराज और चचा एक-दूसरे को मुस्कुराकर देखते हुए खड़े हैं । दोनों की सेनाएँ होली-मिलन के माफिक सट कर खड़ी हैं ।)
खबरी खरगोश- कल तक आप लोग एक साथ होने पर भी अलग-अलग उत्तर-दक्षिण दिशाओं को देखा करते थे । आज दोनों एक-दूसरे को...!
महाराज- उसके लिए भी समाजवाद ही मुख्य कारण था । हम उसे हर दिशा में फैलाना चाहते थे, इसीलिए हमारी नजरें अलग-अलग दिशाओं में जमी हुई थीं । समाजवाद की खातिर हमें बहुत कुछ करना होता है ।
चचा सियार- अब हमारे रास्ते एक हैं । लक्ष्य एक है । चुनाव को बेधना जरूरी है । हमारे बीच जो कुछ भी हुआ, उसके मूल में समाजवाद की ही चिंता थी । आज यहाँ खड़े हैं, तो केवल उसी की खातिर ।
खबरी- पर वे पिछले दिनों के प्रहसन...?
महाराज- मीडिया गम्भीर होती, तो उसे सब कुछ प्रहसन नहीं दिखाई देता । मीडिया की इस बात के लिए हम भला क्या कर सकते हैं !

खबरी- (कैमरे की तरफ मुड़कर) तो देखा आपने । जिसे आप नाटक समझ रहे थे, वह दरअसल समाजवाद की जोर-आजमाइश थी...अपने अस्तित्व के विस्तार के लिए  कैमरा-पर्सन छछूँदर के साथ मैं खबरी खरगोश...(और पर्दा गिरता चला जाता है ।)

मंगलवार, 20 सितंबर 2016

खटमल धीरे से जाना खटियन में

               
   जब से राजमाता लोमड़ी ने वानप्रस्थ आश्रम में जाने की तैयारी शुरु की है, तभी से अखिल जंगल दल का समूचा बल युवराज के सिर पर टूट पड़ा है । सत्ता का सुख ही ऐसा होता है कि त्याग की मूर्ति देवी को भी राजमाता लोमड़ी बना देता है । वहीं सत्ता का दुख भी इतना दबंग होता है कि राजमाता लोमड़ी को भी वानप्रस्थ आश्रम में जाने को विवश कर देता है । सत्ता छिनने के बाद से ही ‘सब सूना-सूना सा लागे है जग’ में राजमाता को, वरना ‘उंगली अपनी उठ रही और नाच रहा संसार’ वाली सुखदायक स्थिति थी । उधर राजमाता की सक्रियता कम हुई और इधर युवराज की सक्रियता बढ़ गई । सत्ता के सिंहासन पर अपना जन्मजात अधिकार समझने वाला प्राणी बहुत दिनों तक विदेशी प्रवास में रहने का खतरा नहीं मोल ले सकता । युवराज  विदेशी प्रवास और पिज्जा-बर्गर उड़ाने के बजाय अब देश की सड़कों की खाक और दुर्बलों-वंचितों के घर की दाल-रोटी उड़ाना चाहते हैं ।
   गरीब तब अपनी गरीबी भूल जाता है, जब युवराज जैसा कोई उसके घर उसकी थाली को खाली करने पहुँच जाता है । गरीबी-उन्मूलन के लिए सत्ताधीसों की हवा-हवाई हरकतों से उत्पन्न उसकी शाश्वत शिकायतों पर विराम लग जाता है, जब यही सत्ता के नायक अपना सिंहासन छोड़ उसकी खटिया पर पधारते हैं । उसे यही बात आनन्द देती है कि चलो, यह भी अपने स्तर पर आ गया । अपने जात वाले से कैसी शिकायत !
   शिकायत दूर करने के लिए युवराज जनता सियारों से ऐसे ही सम्बन्ध बनाना चाहते हैं । पहले के समय में और आज भी कुछ वन-प्रान्तों में गाँव का मुखिया अन्य प्राणियों के साथ खाट पर बैठकर संवाद स्थापित करता है । अन्य प्राणियों को मुखिया अपना ही जानवर प्रतीत होता है, क्योंकि वह उनके साथ खाट पर बैठा होता है । भले ही पीठ-पीछे वह प्राणियों का सारा हक मार जाता हो । किसी चुनावी सलाहकार ने यह अच्छी सलाह दी है युवराज को कि प्राणियों की इस मनोवैज्ञानिक कमजोरी का फायदा उठाकर सत्ता को हथियाया जा सकता है । तभी से युवराज खाट-सभाएँ किए जा रहे हैं ।
   अगली खाट-सभा के लिए दरबार में मंथन चल रहा है । एक तरफ युवराज और उनके सलाहकार की टीम है, तो दूसरी तरफ कार्यकर्ताओँ की भारी भीड़ । युवराज कुछ गुस्से में दिखाई देते हैं । पिछली खाट-सभा में उनके मन-मुताबिक व्यवस्था नहीं हो पाई थी । खाटों में खटमल डालने के उनके निर्देश का पालन सम्बन्धित भावी मंत्री ने नहीं किया था ।
   ‘मैं पूछता हूँ खटमल आखिर अभी तक क्यों नहीं आए?’ युवराज के मुँह से गुस्सा बाहर निकलता है । वह चीखते हुए पूछते हैं, ‘किस बैलगाड़ी से आ रही है खटमलों की खेप? इस तरह चलता रहा, तो एक दिन हमारी ही खटिया खड़ी हो जाएगी ।’
   ‘खटिया खड़ी है युवराज, तभी तो हम उसे बिछा रहे हैं ।’ एक भावी मंत्री का मुँह खुलता है । वह नजरों को झुकाते हुए बोलता है, ‘हुजूर माफ करें, तो एक बात पूछने की इच्छा है । खाट तो ठीक है, पर यह खटमल का खटराग...बात कुछ भेजे में नहीं गई अपने ।’
   ‘बात भेजे में चली जाती, तो आज हम सत्ता से बेदखल नहीं हुए होते ।’ युवराज का गुस्सा तनिक और बढ़ जाता है । वह अपनी आस्तीनें चढ़ाते हुए बोलते हैं, ‘खाट में खटमल...क्या आपको नहीं लगता कि हलचल मचा देगा । दोतरफा लाभ है इससे । मामला खुलते ही विरोधियों पर इसकी साजिश का आरोप मढ़ देंगे । जनता उनपर खटमल की तरह टूट पड़ेगी । वैसे जनता भी खटमल ही होती है । इसी ने हमारी सुख की नींद को हराम कर रखा है । अच्छा होगा...खटमल इनका भी खून चूसेंगे । हमें त्रस्त करने वाले मस्त नहीं रह सकते ।’
   ‘वाह युवराज वाह, इसीलिए तो आप युवराज हैं ।’ पूरा दरबार खुशी के अतिरेक के साथ गुंजायमान हो उठता है । शांत होते ही एक दरबारी की जिज्ञासा उबाल मारती है । वह घुटनों के बल झुकते हुए पूछता है, ‘मगर खाट-सभा ही क्यों...?’
   ‘तो क्या पलंग-सभाएँ करें...डनलप के गद्दों के साथ?’ युवराज पूरी सभा पर दो-तीन बार अपनी नजरों को दौड़ाते हैं, फिर कहना शुरु करते हैं, ‘जिसकी जितनी औकात होती है, उसे उतनी और वैसी ही चीज दी जाती है । अधिक देने पर दिमाग को झटका लगने का डर बना रहता है ।’
   ‘पर जनता खाटों को लूटकर भाग रही है ।’ एक और दरबारी खड़ा होकर अपनी बात को दरबार में रखता है ।
   यह सुनते ही युवराज के चेहरे पर रहस्य-भरी मुस्कान बिखर जाती है । मुस्कुराहट को गाढ़ा बनाते हुए वह बोलते हैं, ‘यह तो हमारे लिए खुशी की बात है । जनता पहली बार अपने राज्य में खाट लूट रही है । इससे पहले ऐसी लूट कभी नहीं मची । मतलब साफ है कि जब से विरोधी ने सरकार बनाई है, जनता गरीब से और गरीब हो गई है । चरित्र इतना गिर गया है कि खाट तक लूटने लगी है । हमारे पुरखों के जमाने में तो अन्न भी नहीं लूट पाती थी वह ।’
   फिर एक बार दरबार तालियों से गूँज उठता है । तभी सलाहकार टीम का मुखिया दरबार से मुखातिब होता है, ‘घबराइए नहीं आप लोग । अपनी खाट से हम विरोधियों की खटिया तो खड़ी करेंगे ही, जनता की भी खाट खड़ी हो जाएगी । चीनी मॉडल की खटिया कुछ ही दिनों में खाट खड़ी करने के लिए उन्हें मजबूर कर देगी । हम एक तीर से दो निशाने लगाना चाहते हैं ।’

   युवराज कुछ खास लोगों के कानों में कुछ कहते हैं । खटमलों को तत्काल कहीं से भी मंगाने का आदेश जारी होता है । खाटों को भी बनवाने का आदेश निकलता है । अगली खाट-सभा में कोई कसर न रहे, इसके लिए युवराज के खास जानवरों को मोर्चा सम्भालने की जिम्मेदारी मिलती है । सभी अपनी खाट बिछाने और दूसरों की खड़ी करने को निकल पड़ते हैं ।

शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

आदर्श बनने की राह

                     
   घर में आने वालों का ताँता लगा हुआ था । किसी के हाथ में गले में डालने के लिए फूलों की माला थी, तो किसी के हाथ में थमाने के लिए पुष्पगुच्छ । कोई चमकीले कागजों से आवरणबद्ध अपनी पसंद के उपहार लाया था, तो कोई यूँ ही आ खड़ा हुआ था...खाली हाथ, मगर मन के कोने में कई ऐसे शब्द सजने-सँवरने लगे थे, जो किसी को विभूषित करने के काम आते हैं ।
   सुबह से शाम हो आई थी, मगर आने वाले थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे । हालांकि संख्या तरल होती गई थी । शाम का झुरमुटापन बढ़ता गया था और लोगों का छिटपुटापन भी । लोगों की इतनी रेलम-पेल के बावजूद घर के सदस्यों का दिन हँसी-खेल में बीता था । मुस्कान की मेल पूरे दिन चेहरे की ट्रैक पर भावी बुलेट-सी दौड़ती रही थी । समाज में सम्मान का सेंसेक्स अचानक उछल गया जो था । हैसियत की हनक तो उसी वक्त अपने तंबू-कनातों के लिए खूँटे गाड़ने के काम में लग गई थी, जब वह सूचना आई थी ।
   सूचना सुख और खुशी का वाहक बन कर आई थी । शर्मा जी को सरकार की ओर से आदर्श शिक्षक घोषित किया गया था । शर्मा जी से अधिक उनके परिवार वाले खुश थे । बैठे-बिठाए रुतबे में असंख्य गुना वृद्धि हो गई थी । परिवार वालों की खुशी का एक और भी कारण था...शर्मा जी को प्राप्त हुआ दो वर्ष का सेवा-विस्तार । दो वर्ष का अतिरिक्त वेतन...मतलब दो वर्ष और मौज-मस्ती के । पेंशन तो टेंशन ही लाएगा । जो मिलेगा, वह कितना काम आएगा । बच रही बेटी की शादी, दवा-दारू के लिए अस्पताल को चंदा, छीजते शरीर के लिए पौष्टिक खुराक, अब तक दमित तीर्थाटन की इच्छा, मंदिरों में अनगिनत बकाए रह गए चढ़ावे तथा और भी बहुत कुछ-इनका सामना बाकी परिवार वालों के लिए इतना आसान भी तो नहीं था ।
   लोगों की आमद खत्म होते ही शर्मा जी ड्राइंग-रूम से निकल कर अपने कमरे में आ गए । कुछ समय बाद भोजन भी आ गया था उनका । अनमने भाव से एकाध रोटी खाकर थाली को टरका दिया था । घर खुशी से लोट-पोट था, पर उनके चित्त में खोट की चोट आकार लेने लगी थी । दिल की धड़कन बढ़ चली थी । बिस्तर पर लेटने का कोई लाभ न हुआ । नींद अपने लोक में जिद्दी बन अड़ी रही । वह उठकर खिड़की तक चले आए । बाहर तेज ठंडी हवा चल रही थी । अचानक एक झोंका उनसे टकराया और मन में छिपे रहस्य की गाँठ को खोलता चला गया ।
   उस दिन पहली पेशी थी छुटके शिक्षा अधिकारी के यहाँ । यह पेशी अधिकारी के घर पर ही हुई थी । उसी ने बुलवाया था । उन्हें देखते ही बोला, ‘आदर्श-वादर्श बनना है कि नहीं आपको...आदर्श बनने की बात करके एकदम्मे से भूमिगत काहे हो गए इधर हम कलम-दवात लेके डेढ़ किलो मक्खियां मार चुके हैं । गणेश-पूजन के लिए क्या आपके पूर्वजों को न्योतना पड़ेगा?’
   ‘नहीं सर, हमीं करेंगे गणेश-पूजन ।’ वह हड़बड़ाते हुए बोले थे, ‘आज्ञा दीजिए, क्या-क्या तैयारी करूँ उसके लिए ।’
   ‘भइये, फल-फूल तो लाओगे ना या...?’
   ‘नहीं-नहीं सर, आप आज्ञा तो दीजिए ।’ अपनी ऊर्जा समेटते हुए उन्होंने कहा था ।
   ‘वैसे तो हम अन्य लोगों से चालीस पुष्प मंगवाते हैं, पर चूँकि आप बुजुर्ग हैं, अतः तीस पुष्प ही यहाँ समर्पित कर दीजिए ।’ कहते हुए उसकी हँसी रहस्य के आवरण में लिपटती चली गई थी ।
   ‘पर सर, तीस फूल कुछ ज्यादा...’
   ‘निकलिए आप ।’ वह बीच में ही बोल पड़ा था, ‘आप जैसे लोगों की स्तुति लिखकर मैं अपने कलम को खोटा नहीं कर सकता ।’
   इसके बाद उनके रजामंद होने पर ही उन्हें आदर्श बनाने की नींव पड़ी थी । उस अधिकारी ने अपने स्तर से लिख-पढ़कर फाइल को आगे बढ़ा दिया था । कुछ ही दिनों के बाद उन्हें जिले के शिक्षा अधिकारी के दरबार में उपस्थित होने का हुक्म प्राप्त हुआ था । वहाँ सामना अधिकारी के स्टेनो से हुआ था । उसने एक साँस में बता दिया था ‘कि उन्हें आदर्श बनाने के लिए साहब जबर्दस्त परिश्रम कर रहे हैं । आदर्श बनना या बनाना परिश्रम की मांग करता है । गुण-गान के लिए अच्छे शब्दों की खातिर साहब कई ज्ञान व समांतर कोषों को छान रहे हैं । परिश्रम भूखे पेट नहीं होता । भूख मिटाने के लिए अधिक नहीं, बस पचास ठो कउनो फल की दरकार होगी । कल हमको फल रिसीभ करवा दीजिए, परसों आपकी फाइल रिलीभ करवा दूँगा साहब से टंच करवा के । ऐसा टिप्पणी होगा कि फाइल एकदम मंडले पर जाकर रुकेगी ।’
    इसके बाद मंडल की तीर्थ-यात्रा भी उन्हें करनी पड़ी थी । उनकी फाइल को देखते ही अधिकारी ने कहा था, ‘वैसे तो आपकी उम्र आदर्श शिक्षक बनने लायक हो चुकी है, पर वो क्या है कि अभी आप चवन्नी जितना आदर्श ही बन पाए हैं । अकेले अठन्नी आदर्श हम बना देंगे आपको । इतना अधिक आदर्श एकसाथ बनने के लिए आपको पहले की भाँति अपना आदर्श काम जारी रखना होगा । बल्कि यूँ कहें कि आपको पहले से अधिक आदर्श कर्म हमारे सामने प्रस्तुत करना होगा ।’
   अपना आदर्श कर्म अधिकारी की दराज में प्रस्तुत करते ही उनकी फाइल को पंख  लग गए । वह किसी अंतरिक्ष यान की रफ्तार से राजधानी जा पहुँची । पीछे किसी ट्रेन ने उन्हें भी राजधानी पहुँचाकर ही दम लिया । वहाँ उपस्थित पैनल के एक अधिकारी ने निशाना साधा था । वह मारक अंदाज में बोला, ‘आपको आदर्श शिक्षक क्यों कहा जाए?’ ‘क्योंकि हम आदर्श हैं ।’ ‘गलत, आपको एक मौका और दिया जाता है अपना जवाब सुधारने के लिए ।’
   एक पल के बाद इनके मुँह से निकला था, ‘क्योंकि हम बारह आने आदर्श बन चुके हैं । गुड, अ वेरी प्रैक्टिकल आंसर ! आपका आत्मविश्वास आपके आदर्श का सबूत है । निश्चय ही आप सोलह आने आदर्श बनेंगे । अब आपको आदर्श बनने से कोई नहीं रोक सकता ।’
   ‘कब तक खड़े रहोगे खिड़की पर?’ अचानक आई पत्नी की आवाज ने उन्हें वापस आज में लाकर पटक दिया था । बिस्तर पर लेटने के बावजूद नींद नहीं आई थी । अपनी ही नजर में गिरने की यह शायद पहली प्रतिक्रिया थी । पत्नी की प्रेमपूर्ण नजर उन्हें आकाश की ऊँचाई में लिए जा रही थी, जबकि उनकी अपनी नजर पाताल की असीम गहराइयों को खोजने में निमग्न थी ।

शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

सोने-सा दिल है आपका

               
   दरबार-ए-आम आज बतकहियों, कहकहों, हँसी-ठहाकों से गुंजायमान है । हर वर्ग की जनता उपस्थित है । जिसे होना चाहिए, वह तो है ही; जिसका होना जरूरी नहीं, वह भी मौजूद है । सभी के दिलों में जोश व उत्साह की लहरें हिलोरें मार रही हैं, वहीं दरबार-ए-आम की हवा में गर्व की खुश्बू फैली हुई है । सभी को फख्र है अपने खिलाड़ियों पर...उन खिलाड़ियों पर, जो अभी ताजा-ताजा गोलंपिक से लौटे हैं । वे खिलाड़ी ही इस वक्त दरबार-ए-आम के मंच पर अपने लिए निर्धारित सीटों पर बैठे हुए हैं । कोई फर्जीवाड़ा न हो, इसके लिए उन्हीं खिलाड़ियों को मंच पर चढ़ने दिया गया है, जिनके हाथ में सबूत के तौर पर गोलंपिक के टिकट मौजूद हैं । मंच पर इन खिलाड़ियों के अलावा मंत्रीगण, नेता, अधिकारी, खेल-संघों के पदाधिकारी, प्रशिक्षक और वे सभी लोग उपस्थित हैं, जिनकी बदौलत खिलाड़ियों ने हार को चूमा और उनकी इस उपलब्धि पर पूरा वन-राज्य झूमा । गौरव के उन क्षणों को पुनः जीना किसी भी जीवंत राज्य के लिए एक अनिवार्य तत्व होता है । उस क्षण को पुनः महसूस करने तथा हारे हुए खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने के लिए ही यह आयोजन किया गया है ।
   सभी आने के इच्छुक आ चुके हैं तथा आवश्यक तैयारिय़ां भी मुकम्मल हो चुकी हैं । अब बस महाराज सियार की कमी है । अनगिनत निगाहें उन्हीं की राह पर लगी हुई हैं । तभी खबरी खरगोश दौड़ते हुए दरबार-ए-आम में प्रवेश करता है और महाराज के आने की इत्तला देता है । तत्काल सभी सावधान की मुद्रा में आ जाते हैं । उधर प्रधानमंत्री व अन्य मंत्रीगण अगवानी के लिए विशाल दरवाजे की तरफ बढ़ते हैं ।
   उपस्थित वन समुदाय पर सरसरी निगाह डालकर महाराज सियार मंच की ओर प्रस्थान करते हैं । बीच-बीच में हाथ हिला-हिलाकर वह अभिवादन का जवाब भी देते जाते हैं । उपस्थित लोग महाराज की इस अदा पर झूम-झूम उठते हैं । अगले कुछ सेकेंडों के बाद महाराज मंच पर दिखाई देते हैं । परिचय प्राप्त करने और हाथ मिलाने के बाद वह अपने सिंहासन पर आसीन हो जाते हैं ।
   इधर नगाड़ा मंत्री तुरंत माइक को सम्भालते हुए कहना शुरु करते हैं, ‘महाराज की आज्ञा हो, तो खेल के लिए आयोजित इस जश्न का आगाज किया जाए । दीप के प्रज्ज्वलन के लिए हम हुजूर की कृपा के आकांक्षी हैं ।’
   महाराज धीरे-धीरे मंच के एक कोने की तरफ बढ़ते हैं । दीप-प्रज्ज्वलन में विशिष्ट लोग उनका साथ देते हैं । इसके बाद उन्हें दो शब्द कहने के लिए माइक पर आने की प्रार्थना की जाती है । वह हुंआ-हुंआ के दो शब्द निकालकर कहना शुरु करते हैं, ‘खुशी का मौका है और हमारे लिए तो यही बड़ी बात है कि हमारे खिलाड़ी बहादुरीपूर्वक हार गए । जीतो तो ऐसा न लगे कि जीत में कुछ कमी रह गई । हारो तो ऐसे हारो कि जीतने वाले को यह न लगे कि हराया, लेकिन मजा नहीं आया । जीतने वाला चैम्पियन होता है और हमारे लिए फख्र की बात है कि हमारे खिलाड़ी चैम्पियनों से हारे । आप लोगों की हार ही हमारे लिए जीत है । भगवान करे कि आप लोग यूँ ही हारते रहें और वन-राज्य का सिर ऊँचा बनाए रखें ।’
   महाराज के इतना कहते ही तालियों की गड़गड़ाहट से दरबार-ए-आम हिलने लगता है । तालियां इस बात पर और ज्यादा बजती हैं कि महाराज की महानता देखिए कि उन्होंने हार को भी किस खूबसूरती से जीत करार दे दिया । उनकी खिंची लाइन सभी के लिए एक गाइड लाइन सी बन जाती है । अगले ही क्षण राजपुरोहित को दो शब्द कहने का मौका मिलता है । राजपुरोहित लंगूर अपनी माला को फेरते हुए खिखियाते हैं और फिर गम्भीर स्वर में अपनी बात को आगे रखते हैं, ‘हमें खुशी है कि हमारे खिलाड़ी संतोष के साथ लौटे हैं । पदक-वदक, सोना-चाँदी-सब फीके हैं संतोष के सामने । सोना-चाँदी तो कभी भी आ जावे है, लेकिन संतोष बड़ी मुश्किल से आवे है । आपने सोना-चाँदी के पदक जीतने वालों को छोटा साबित कर दिया है, क्योंकि आप लोगों के पास सबसे बड़ा पदक है-संतोष का पदक ।’
   एक बार फिर दरबार-ए-आम तालियों की गड़गड़ाहट का गवाह बनता है । अगले ही क्षण खेल मंत्री माइक को पकड़ बोलना शुरु करते हैं, ‘खिलाड़ियों, आपकी हार से सारा राज्य गौरवान्वित है । हारना और उसे बर्दाश्त करना सबके वश की बात नहीं होती । यह आपका संयम और संस्कार है । वास्तव में हारने वाला ही सच्चा चैम्पियन है । जब कोई हारने को तैयार होता है, तभी किसी की जीत पक्की होती है । हारना त्याग है । जीत में यह बात कहाँ !’
   अब गृहमंत्री की बारी आती है । वह खिलाड़ियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए कहते हैं, ‘आप लोगों ने हारकर अच्छा ही किया । अगर जीत जाते, तो खेल-संघ बेवा हो जाते । सभी पदाधिकारी इसी बात के लिए लड़ मरते कि यह जो पदक आए हैं, यह केवल उन्हीं के परिश्रम के फल हैं ।’
   समापन के लिए खेल-संघ के एक पदाधिकारी माइक को लपकते हैं, ‘सज्जनों, खेल में हार-जीत महत्व नहीं रखता । महत्व रखता है केवल भाग लेना, इसीलिए हम अनासक्त भाव से भाग लेते हैं । हम भाग लेने के लिए ही वर्षों से जा रहे हैं । आगे भी पूरे गर्व तथा बहादुरी के साथ जाते रहेंगे ।’

   इसके बाद खिलाड़ियों को अपने-अपने हारने की उच्चता के अनुसार हार-रत्न, हार-भूषण एवं हार-श्री से सम्मानित किया जाता है । सम्मानित करने के बाद महाराज के आदेश पर दरबार-ए-आम में जश्न के जाम छलकने लगते हैं ।
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