जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

पापा फेल हो गए

                    
   बधाइयों का तांता लगा हुआ था । इधर मोबाइल की घंटी रुकने का नाम नहीं ले रही थी, उधर लोगों के आने का सिलसिला थम नहीं रहा था । सिंह-कुटीर आज अपने शबाब पर था । चारों तरफ फूलों की झालरें लगाई गई थीं । नकली इत्र के छिड़काव से कोना-कोना महक रहा था । अंदर ड्राइंग रूम में मिठाइयों को ट्रे की जगह परातों में सजाया गया था । शर्बत और कोल्ड ड्रिंक की बोतलें बाहर कार्टनों में रखी हुई थीं और फ्रिज में जाने की वेटिंग लिस्ट में चल रही थीं ।
   भई, सब तैयारी तो हो गई है न? उन्होंने पत्नी को आवाज लगाई थी,देखना, कुछ रह न जाए । मैंने मीडिया वालों को फोन कर दिया है...वे आते ही होंगे
   हुआ ये था कि उनकी बेटी राज्य वाले बोर्ड से पास हो गई थी । इंटरमीडिएट की परीक्षा में पूरे इलाके में वह टॉप आई थी । इस खबर को उन्होंने दावानल की तरह पूरे शहर में फैला दिया था । प्रतिष्ठा को चार-चाँद लगाने के लिए मीडिया को खबर देना सर्वथा उचित था । वैसे भी मीडिया इस तरह की खबरों को सूँघ ही लेती है । अधिक नंबर आए हैं, इस खबर को सुनकर कम; लेकिन मीडिया आ रही है, इस खबर को सुनकर अधिक लोग इकट्ठा हो गए थे ।
   थोड़ी ही देर में मीडिया वाले पहुँच गए । कैमरा ऑन होते ही लोग अपनी भाव-भंगिमाओं को दुरूस्त कर पोजीशन लेने लगे । कैमरा मैन उन्हें ठेलते हुए लड़की के पास पहुँच गया । ऑर यू रेडी-ऑर यू रेडी की दो-चार प्रोत्साहन-मंत्र के बाद इंटरव्यू शुरु हो गया । हाँ तो, अब आपको कैसा फील हो रहा है?’
   ʻहमें तो अच्छा लग रहा है, पर पापा बहुत खुश हैं । उन्होंने बहुत दौड़-भाग की थी परीक्षा के वक्त
   आप आगे चलकर क्या बनना चाहती हैं?’
   मैं तो आईएएस बनना चाहती हूँ आईएएस ही क्यों?’
   आईएएस बनकर मैं देश-सेवा करना चाहती हूँ देश-सेवा के लिए और भी तो क्षेत्र हैं
   पर यहाँ प्रतिष्ठा और पैसा है जी...हनक के साथ खनक !’ इस बार बेटी के पापा ने जवाब दिया था ।
   अभी अगला प्रश्न आता कि कोई और आ गया था...विघ्न के साथ । शर्मा जी हक्के-बक्के से अंदर घुस आए थे । आते ही वह बोले, हद हो गई यार ! मीडिया सात सीजीपीए वाली की इंटरव्यू ले रही है और उधर मेरी बेटी नौ पाकर यूँ ही बैठी मक्खियां मार रही है
   इनकी बेटी ने इंटरमीडिएट में टॉप किया है ’ यह मीडियाकर्मी की आवाज थी । उधर वह आसमान की तरफ ऐसे देखने लगे थे, जैसे कोई भगाया हुआ मच्छर किसी इंसान की तरफ देखता है...गुस्से में लाल-लाल आँखों से ।
   मजाक मत कीजिए साहब, यह तो हमारी बेटी के साथ ʻउसʼ वाले बोर्ड से इस साल दसवीं में थी ’ शर्मा जी ने विस्फोट कर दिया था । अब सन्न होने की बारी उपस्थित लोगों और मीडिया की थी ।

   सभी को यह समझते देर न लगी कि यहाँ तक पहुँचने के लिए किस तरह पापड़ बेले गए होंगे । मीडिया पोल-खोल की धमकी देती निकल गई...आनन-फानन में । अब वहाँ लगभग सन्नाटा था...थू-थू की कभी-कभार आती आवाजों के बीच । मिठाई पर मक्खियां भिनभिनाने लगी थीं ।

मंगलवार, 26 जुलाई 2016

झपकी पर हाय-तौबा...ना रे ना

                
   साधो, संसद में बाबा को झपकी क्या आई, चमक-सी आ गई मीडिया के चेहरे पर और उसके फ्लैश चमकने लगे । सोता हुआ कैमरामैन जाग उठा । मछली बाजार की तरह संसद के भयानक कोलाहल के बीच भी जिसे गहरी निद्रा आ गई थी, उसे बाबा की निद्रा ने जगा दिया । चारों तरफ शोर मच गया । दलित-चिंतन के दौरान बाबा सोते हुए पकड़े गए । शोर ऐसा मचा, मानो किसी के घर में सेंध लगाते वक्त उन्हें पकड़ लिया गया हो, वह भी रंगे हाथों । मगर किसी ने यह नहीं सोचा कि मीडिया आखिर कर क्या रही थी । जानकार लोगों का कहना है कि कुछेक कैमरामैन संसद की कार्रवाई के बजाए कैमरे को बाबा पर फोकस करके इत्मीनान से निद्रा की गोद में चले गए थे । उन्हें पक्का यकीन था कि संसद की उबाऊ कार्रवाई से कहीं बड़ा मसाला बाबा से हासिल हो जाएगा ।
   झपकी लेना जब बुरी बात नहीं है, तब इतना हंगामा-सा क्यों बरप गया ! सभी जानते हैं कि जागरण में क्या होता है । जागरण का मतलब खुद जागना और दूसरों को जगाना होता है । संसद का जमावड़ा भी इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए होता है । खैर, जागरण में जागने के लिए अपने मुँह के सुरों और ढोलक-झाँझ-मजीरे की आवाजों को इतनी बुलंदी तक पहुँचाया जाता है कि निकट और दूर के सोए हुए सौभाग्यशाली भी निद्रा का परित्याग करके जागृति को प्राप्त हो जाएं तथा सुख के अतिरेक में आँखों को लाल कर लें, दाँत पीसने लगें और मुठ्ठियों को भींचने लगें । जगाने की इतनी कोशिश के बावजूद कुछेक जागरण-वीर ऐसे अवश्य होते हैं, जो निद्रा-लोक की सैर पर निकल लेते हैं । वे उस सत्य के अनुगामी होते हैं, जिसके अनुसार सोने के बाद ही जागरण घटित होता है । जिसने सोना नहीं सीखा, वह क्या जागेगा !
   सोना सचमुच सोना होता है । इस बात की तस्दीक के लिए सरकारी दफ्तरों से बेहतर जगह भला और क्या हो सकती है । कई पहुँचे हुए बाबुओं को यह अच्छी तरह ज्ञात होता है कि झपकी लेने का क्या महत्व है दफ्तरों में । वे पूरी निष्ठा से झपकी लेते रहते हैं । काम करवाने के लिए आया व्यक्ति अतिरिक्त मुद्रा का ट्रांसफर करता है अपनी जेब से बाबू की जेब में । तब जाकर वह जागरण को प्राप्त होता है । जागना भी इसी को कहते हैं । सोने का महत्व यहाँ इतना है कि सोने से जागने पर सोने की उपलब्धि होती है । सोने वाले बाबू न होते, तो सरकारी दफ्तरों की प्रतिष्ठा इतनी बुलंदी तक कभी न पहुँची होती । काम करने से कोई ऊँचाई तक नहीं पहुँचता । जिसे भी ऊँचाई तक पहुँचने का जुनून है, उसे काम न करने और झपकी लेने की कला में निष्णात बाबुओं से दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए ।
   अपने को विशेषज्ञ कहने वाले लोग भी बताते हैं कि झपकी लेने से तन-मन को राहत पहुँचती है । काम के दौरान झपकी के कुछेक डोज काम के प्रति अपनेपन व उत्साह को बढ़ाते हैं । बाबा अपने उत्साह को बढ़ाना चाहते थे, ताकि दलित-चिंतन को एक नया आयाम दे सकें । अतः उनका झपकी लेना निहायत ही जरूरी था । झपकी लेने से उनका उत्साह इस विकट रूप से बढ़ा कि वह दौड़ते हुए गुजरात पहुँच गए दलितों के बीच ।
   एक और लाभ दिखा झपकी लेने का । उन्हें नींद में गाफिल देखकर उनके संसद-बाँकुरे सैनिकों ने समझा कि वह समाधि लगाकर कोई दिव्यास्त्र लाने वाले हैं, अतः महाजोश के अतिरेक में फँसकर उन्होंने पूरे सदन को अपने सिर पर उठा लिया । कोलाहल के बीच एकाग्रता और झपकी के तीर कोई निद्रा-वीर या पहुँचा हुआ फकीर ही छोड़ सकता है ।

   झपकी लेना हर तरह से फायदे का सौदा है, अतः कायदे से इसे कीजिए । आराम से झपकी लीजिए और दूसरों को भी लेने दीजिए । बाबा पर मीडिया की इस तरह की कुचेष्टा ठीक नहीं है ।

शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

याद रखियो...कर्ज का फर्ज भी होता है

             
   दरबार-ए-खास में आज काफी गहमागहमी है । महाराज सियार के अलावा सारे मातहत मंत्री उपस्थित हैं । इस बात का खास ख्याल रखा गया है कि उन्हीं को इस खास मौके पर बुलाया जाए, जो हर हाल में समाजवाद का झंडा बुलंद रखते आए हैं । किसी की जमीन पर कब्जा करना हो, दुर्बलों पर दबंगई दिखानी हो, पुलिस वालों की हर आम-ओ-खास मौकों पर कुटाई करनी हो, हर किस्म के ठेके हड़पने हों, गुंडई के नित नये गिनीज रिकॉर्ड बनाने हों, माफियाओं-अपराधियों का कर्ण-छेदन करके चेले-चपाटी बनाना हो-क्षेत्र कोई भी हो, जो मैदान से नहीं डिगा, वही सच्चा समाजवादी है । समाज से जबर्दस्त अपनापन रखते हुए उसके हर चीज को अपना बनाने की प्रत्येक काग-चेष्टा को आधुनिक समाजवाद कहते हैं ।
   तो इस वक्त बिना किसी शक-ओ-शुबहा के सारे आधुनिक समाजवादी मौजूद हैं । खुसपुसाहटें हो रही हैं, पर महाराज सियार की चुप्पी की वजह से मंत्रियों की बेचैनियाँ बढ़ती जा रही हैं । महाराज के प्रति सम्मान के कारण कोई उनकी चुप्पी को भंग करना नहीं चाहता । निकट भविष्य में मंत्रिमंडल में फेरबदल संभावित है, अतः सम्मान के समंदर में ज्वार का उठना निहायत ही स्वाभाविक कर्म है । उधर महाराज की निगाहें बार-बार दरवाजे पर जाती हैं और मायूस होकर लौट आती हैं । उन्हें मायूस देखकर मंत्री भी वैसी ही भाव-मुद्रा बनाने की कोशिश करने लगते हैं । अभी मुँह लटकाने का समाजवादी रिहर्सल चल ही रहा है कि तभी खबरी खरगोश धड़धड़ाते हुए दरबार में प्रवेश करता है । उसे देखते ही महाराज के चेहरे पर प्रसन्नता की कली खिल उठती है । वह चहकते हुए पूछते हैं, ‘कहो खबरी, हमारे रिकॉर्ड-तोड़ समाजवादी कामों के प्रति आम सियारों में कैसी धारणा है...उन लोगों ने कैसी प्रतिक्रिया व्यक्त की हमारे लिए?’
   ‘महाराज सियार की जय हो ।’ वह घुटनों तक झुकता है और खबर को उड़ेलता है, ‘हुजूर, कोई कुछ बोलने को तैयार ही नहीं है...बस मुस्कुराते हैं और चुप्पी साधे रहते हैं । हमें तो यही लगा कि गूँगे हो गए हैं सब-के-सब ।’
   इस पर महाराज कुछ कहना ही चाहते हैं कि प्रधानमंत्री लकड़बग्घा बोल उठते हैं, ‘यह तो अच्छी खबर है महाराज, उस गूँगे की कहानी तो अवश्य ही आपने सुनी होगी । गुड़ खाकर उसके आनंद में इतना मगन हुआ कि गूँगा हो गया । वह वास्तव में गूँगा नहीं था महाराज । उसी तरह आपके समाजवादी कामों का जनता इतना आनंद ले रही है कि गूँगी हो गई है ।’
   पूरा दरबार-ए-खास तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठता है । महाराज अभिभूत होकर बोल उठते हैं, ‘क्या सत्य और सटीक व्याख्या की है आपने प्रधानमंत्री जी । वास्तव में हमने काम ही इतना किया है कि जनता की बोलती बंद हो गई है । पहले के सारे रिकॉर्ड ध्वस्त हो गए हैं और रोज रिकॉर्ड के नए प्रतिमान स्थापित हो रहे हैं । हमने तो वादा पूरा कर दिया, अब जनता की बारी है । हमें दुबारा सत्ता सौंपकर वह भी रिकॉर्ड बनाए ।’
   ‘जनता को चुनौती देकर आपने अपने सच्चे राजत्व का परिचय दिया है महाराज,’ नगाड़ा मंत्री की आवाज गूँजती है इस बार, ‘वह यूँ ही झाँसे में नहीं आती । ललकारना अक्सर काम कर जाता है ।’
   ‘वह तो ठीक है मंत्री महोदय, पर जनता अब भी इशारों-इशारों में काम की ही पड़ताल कर रही है ।’ खबरी खरगोश अपनी आँखों देखी चीजों को सामने रखता है ।
   ‘हम किसी भी काम में पीछे नहीं हैं ।’ महाराज सियार के चेहरे पर आवेश का झीना परदा-सा झलकता है । वह सिंहासन की मूँठ को कसते हुए बोलते हैं, ‘सारे काहिल-जाहिल हमारी बदौलत नौकरी पाकर मौज उड़ा रहे हैं । पूरे इतिहास में शायद ही कोई ऐसा होगा, जो ऐसी समाजसेवा में हमारी बराबरी कर सके ।’
   ‘सचमुच, आप कहीं पीछे नहीं हैं महाराज ।’ प्रधानमंत्री गर्व से फूलते हुए कहते हैं, ‘आपका काम बोल रहा है । बड़ों को तो छोड़िए, हमारा अदना-सा कार्यकर्त्ता तक विकास के समंदर में गोते लगा-लगाकर बरसाती मेढक की तरह फूलकर विकास को प्राप्त हो गया है । इस तरह हाशिए के व्यक्ति तक विकास सिर्फ आप ही के राज में संभव है महाराज ।’ फिर एक बार तालियों की गड़गड़ाहट...
   ‘और एक बात,’ महाराज के बोलते ही सन्नाटा छा जाता है । एक हाथ को ऊपर उठाते हुए वह अपनी बात को आगे बढ़ाते हैं, ‘खबरी, जाकर पता लगाओ कि विकास का कर्ज चुकाने को आम सियार तैयार हैं कि नहीं । वसूली का समय आ चुका है ।’

   इशारा पाते ही खबरी खरगोश बाहर निकलता है । इधर प्रधानमंत्री के निर्देश पर प्रशिक्षित लकड़बग्घे समाजवादी तरीके से कर्ज का फर्ज समझाने के लिए कूच की तैयारी शुरू करते हैं ।

मंगलवार, 19 जुलाई 2016

...जब बिजली कड़की अपने छप्पर

          
   ‘आप पत्रकार लोग भी तिल का ताड़ बनाने के उस्ताद होते हैं ।’ उन्होंने मुझे देखते ही ताना मारा ।
   ‘पर आतंकवाद को आप तिल कदापि नहीं कह सकते । वह तो कब का ताड़ बन चुका है ।’ मैंने प्रतिवाद करने की कोशिश करते हुए कहा । दरअसल इस वक्त मैं एक बुद्धिजीवी के सामने खड़ा था । उनके बारे में केवल मैं ही नहीं, पूरा समाज जानता है कि वह बुद्धिजीवी हैं, क्योंकि उलट-खोपड़ी रखने वाला व्यक्ति बुद्धिजीवी ही होता है । उन्हें बुद्धिजीवी न मानने वाले विरोधी भी मानते हैं कि वह बुद्धिजीवी हैं, क्योंकि जुगाड़ भिड़ाकर अब तक तकरीबन आधे दर्जन पुरस्कारों को अपने ड्राइंग-रूम के शीशे की आलमारी में कैद कर चुके हैं । अपने स्वार्थ के बाधित होने पर चिल्लाना और सामाजिक हित के मुद्दे पर आपराधिक चुप्पी साध लेना उन्हें बुद्धिजीवी ही साबित करते हैं ।
   ‘ताड़ तो आप लोगों ने बनाया है आतंक-आतंक चिल्लाकर ।’ उन्होंने मेरी आँखों में आँखें गाड़ दीं और आक्रोश भरे स्वर में बोले, ‘कभी जानने की कोशिश की है आतंक के पीछे की मजबूरी? क्या आपने कभी सोचा है कि आतंक के पीछे मासूमियत का एक कोमल चेहरा तैर रहा होता है?’
   ‘मैं समझा नहीं आप कहना क्या चाहते हैं? निपट मूर्ख की तरह मुँह बनाते हुए मैंने पूछा, ‘क्या आतंक का मासूम चेहरा भी होता है?’
   ‘आतंक के पीछे मासूमियत-ही-मासूमियत है । मुद्दा आतंकवाद नहीं है । मुद्दा तो यह है कि मासूम और निर्दोष लोग आतंकवादी क्यों बनते हैं । सरकार मनमानी न करे, तो कोई समस्या ही नहीं होगी । यह तो सरकार ही है, जो आतंकवाद फैला रही है । मुद्दा वास्तव में सरकारी आतंकवाद का है ।’
   ‘पर मार-काट को आप मासूमियत से भरा कैसे कह सकते हैं?’
   ‘अपने मानवाधिकार की रक्षा के लिए शस्त्र उठाना ही पड़ता है । सरकार हर जगह मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रही है । ऐसे में जो मानव होगा, वह अवश्य उठ खड़ा होगा ।’ कहते-कहते उनके चेहरे पर आक्रोश के भाव उभर आए थे ।
   ‘मगर अपने मानवाधिकारों की रक्षा के लिए किसी को भी मार डालना मानव का नहीं, दानव का काम है ।’ मैं भी तनिक तैश में आ गया था यह कहते-कहते ।
   ‘मैंने कहा न कि मानवाधिकार की रक्षा मानव का धर्म है और धर्म-रक्षार्थ शस्त्र उठाना पूर्णतः न्यायसंगत है । इस धर्म-कार्य में यह नहीं देखा जाता कि अपना मर रहा है या पराया ।’
   ‘आप आतंकवाद को मानवाधिकार से बाहर भी कहीं देखते हैं? क्या आपको नहीं लगता कि आजकल आतंकवादी कुछ ज्यादा ही मानवाधिकारों की रक्षा में रेल-पेल हुए जा रहे हैं?’
   ‘हाँ, कुछ लोग जरूर पथ से भटक गए हैं, पर उन्हें मारकर सही रास्ते पर नहीं लाया जा सकता । समझाना-बुझाना ही सर्वोत्तम नीति है ।’
   ‘जो मानने को तैयार न हो और दहशत फैलाना ही जिसका लक्ष्य व धर्म हो...’
   ‘उसे भी समझाना ही चाहिए । आपको याद रखना होगा कि अधिकांश ऐसे लोग नौजवान हैं । नौजवानों को कोई सरकार कैसे मार सकती है?’
   ‘आतंकवादी तो आतंकवादी है..क्या बूढ़ा, क्या नौजवान ! उसे मार डालना ही उचित है, बनिस्बत कि उसे तंदूरी चिकेन और बिरयानी खिलाया जाए ।’
   ‘आप सरकार और मूर्ख की भाषा बोल रहे हैं । मृत व्यक्ति जीवित से ज्यादा खतरनाक होता है । आदमी भूत से मुकाबला नहीं कर सकता ।’ इतना कहकर वह चुप हो गए । तभी स्टूडियो से निर्देश आने लगा था । शहर में आतंकवादी हमला हुआ था और मुझे तत्काल वहाँ पहुँचना था । मुझे यह भी जानकारी दी गई कि इस बुद्धिजीवी का पुत्र भी हमले में बुरी तरह घायल है और उसे अस्पताल ले जाया गया है ।
   यह खबर पाते ही उनका आश्वस्ति-भाव तिरोहित हो गया अचानक और वह किसी ज्वालामुखी की तरह फट पड़े । चीखते हुए बोले, ‘आखिर सरकार कर क्या रही है... इन्हें देखते ही मार क्यों नहीं डालती?’ और वह अस्पताल की तरफ भागने लगे थे...बेतहाशा ।

   मैं भी पीछे-पीछे दौड़ा । मैं उनसे कहना चाहता था कि जब अपने पर बीतती है, तब असलियत समझ में आती है, अन्यथा बुद्धि की कैंची चलाना कितना आसान होता है । मगर ऐसा कुछ कहने का यह वक्त नहीं था, क्योंकि कुछ और होने से पहले मैं एक मनुष्य था ।

शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

ईमानदारी गई तेल लेने, तुम चलो बेल लेने



   आशीर्वाद दीजिए माता कि मैं आपके चरण-चिह्नों पर बिना भटके चल लकूँ और आपके इशारों को हू-ब-हू समझते हुए उसी के अनुरूप कार्य कर सकूँ ’ गुरूमाता लोमड़ी के चरणों में सिर रखकर भेड़ ने कहा ।
   मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है । हमारे कार्यों की सिद्धि के लिए आज से तुम्हें मौन व्रत धारण करना होगा । मौन से तुम्हे असीम ऊर्जा प्राप्त होगी । धरती इधर से उधर हो जाए, ज्वालामुखी फटे, अग्नि तांडव करे, जल-प्रलय हो या आँधियां अंधी हो जाएं, पर तुम्हारा मौन यथावत बना रहे । धर्म रहे न रहे, लेकिन मौन सदा रहना चाहिए । आगे वन की जनता में तुम मौनी बाबा के रूप में विख्यात होगे । अब तुम जाओ और वन का कल्याण करो ’ कहते हुए गुरूमाता ने आँखें मूँद लिय़ा । यह उनकी तरफ से जाने का इशारा था ।
   गुरूमाता के प्रसाद-स्वरूप प्राप्त दैवीय रथ पर सवार होकर भेड़ अपने आश्रम की तरफ बढ़ गये । आश्रम में ऐशोआराम के सारे साधन मौजूद थे । अतः साधना के लिए ध्यान लगाने में कोई दिक्कत नहीं हुई । मौन ही तो धारण करना था । मौन- साधना में  छः माह बीत गए । वह प्रसन्न थे कि कोई भी विघ्न-बाधा उनके निकट आने का साहस नहीं जुटा पाई थी ।
   शाम का समय था और शीतल मंद वायु आत्मा तक को शीतल किए जा रही थी । वह बाहर निकलकर आश्रम के विशाल प्रांगण में विचरने लगे थे । सामने पक्षियों की एक लम्बी कतार तेजी से अपने घरों की तरफ बढ़ रही थी । एक-एक फूलों पर हाथ रखते वह आगे बढ़ रहे थे । आश्रम के आसपास के पेड़ों ने झुकना शुरू कर दिया था । उनकी ऐश्वर्यशीलता और मौन की साधना से वे अत्यन्त प्रभावित थे । उन्होंने मौनी बाबा कहना शुरू क्या किया, हवाओं के थपेड़े इसे दूर-दूर तक पहुँचा आए । मौन साधना का मुखर प्रसार-प्रचार वन के कोने-कोने तक हो गया । वह और आगे बढ़ते कि सरसराहट की आवाज सी आई एक दिशा से । उन्होंने ध्यान से देखा, गुरूमाता का एक खास सेवक पेड़ों की ओट में जाता दिखाई दिया । वह कई निर्दोष और निहत्थे वन-जनों को एक गड्ढे में दफन कर रहा था । आँखें बंद होती चली गईं उनकी । वक्त की नजाकत को उनकी आँखों से बेहतर भला और कौन समझ सकता था !
   कुछ और आगे बढ़ने पर एक और नजारा दिखाई दिया । गुरुमाता के चार-पाँच सेवक वन की कुछ स्त्रियों का खुल्लमखुल्ला चीरहरण कर रहे थे । उन्हें एकबारगी लगा कि यह ठीक नहीं है, पर दूसरे ही पल उनकी आत्मा जाग गई । यह आमजन बनाम खासजन का मामला था । आमजन के बनने में कोई पहाड़ नहीं तोड़ना पड़ता, पर खासजन तो हजारों पापड़ बेलने के बाद बनते हैं । जब खासजन से आमजन का धर्म टकराए, तो खासजन के धर्म की रक्षा हर हाल में की जानी चाहिए । एक बार फिर आँखें मूँदना उन्हें सर्वथा उचित लगा ।
   उन्हें संतोष था कि यह सब देखकर भी उनका मौन भंग नहीं हुआ था, अन्यथा लज्जा का आईना उन्हें गुरुमाता की नजरों से दूर कर देता । फिर भी कोई उधेड़बुन थी, जो मन को मथे जा रही थी । रात अपने तीसरे प्रहर में प्रवेश कर गई थी, पर नींद के रथ का दूर-दूर तक नामों-निशान नहीं था । वह धीरे-धीरे आता हुआ भी दिखाई नहीं दिया । पर सन्नाटे को बेधती आवाजें तेजी-से आने लगी थीं । कहीं कुत्तों की आवाज, तो कहीं सियारों का सियापा । एक तरफ चमगादड़ों की फड़फड़ाने की आवाज, तो दूसरी तरफ पंचम सुर में झींगुरों की झिनझिनाहट ।
   वह बाहर निकल कर देखना चाहते थे रात की बढ़ती जाती विक्षुब्धता को । कौन है जो शांत पड़ चुके जल में पत्थर फेंके जा रहा है । वह उठे ही थे बाहर निकलने को कि कोई अंदर आता दिखाई दिया था । वह एक साथ कई बोरों को घसीट रहा था । अंदर आते ही सीएफएल की रोशनी में बोरों की पहचान उजागर हो गई थी । नोटों से भरे बोरों पर कोयले की उजास,  पानी की कालिमा, संचार की सच्चाई... लिखा हुआ था । लाने वाला मंत्री व गुरुमाता का अपना आदमी था । वह फुसफुसाते हुए बोला, गुरुमाता की आज्ञा है । अतः इन्हें यहीं रखना है । अफ्रीकी वनों में भेजने से पूर्व एक निरापद जगह की तलाश थी । आपकी ईमानदारी की छाया साया बनकर इसकी रक्षा करेगी ’ और यह कहते हुए वह जिस तेजी से आया था, उसी तेजी से निकल गया ।
   उन्हें समझते देर नहीं लगी थी कि घोटाले के ताले ही लगे हुए हैं बोरों में । घोटालों और ईमानदारी का क्या मेल ! पर उनकी ईमानदारी आज घोटालों के काम आ रही है, इस सोच ने उन्हें तृप्ति प्रदान की थी । उन्हें इस बात का भी अभिमान हो आया कि उनकी ईमानदारी अब भी य़थावत है । इस बार आँखें मूँदते ही उन्हें यमदूत दिखाई दिए थे । यमदूतों को देखते ही उनका मौन भंग हो गया । तुम लोग मुझे घसीटते हुए नहीं ले जा सकते । मेरी मौन साधना और ईमानदारी क्या दिखाई नहीं देती तुम लोगों को?’

   ईमानदारी जब अत्याचार, अनाचार को देखकर आँखें मूँद लेती है, तो उसका मौन उसके लिए मौत बन जाता है । इसीलिए हम तुम्हें लेने आए हैं । तुम्हारी ईमानदारी गई तेल लेने, अब तुम अपने बेल की तैयारी करो । महाराज यमराज ने आज्ञा दी है कि तुम जैसे ढोंगी को कांटों पर घसीटते हुए लाया जाए ।’ अगले ही पल वे उन्हें कांटों पर घसीटने लगे थे । मौनी बाबा के कलपते कंठ गुरुमाता की पुकार करने लगे थे, पर किसी ने उनकी आवाज को नहीं सुना था । समूचा वन-प्रांत शांत पड़ा हुआ था ।

मंगलवार, 12 जुलाई 2016

कहीं नासा का बैंड न बज जाए !

           
   उत्तम प्रदेश और उसके पड़ोसी राज्य पाटलीपुत्र में जश्न का सिलसिला जारी है । होना भी चाहिए । लोग दूसरे राज्यों को टेलीस्कोप लेकर दौड़ लगाते हैं रोजगार की तलाश में । ऐसा नहीं है कि इनके अपने राज्यों में रोजगार की व्यवस्था नहीं है । उत्तम व्यवस्था है और इनकी उत्तमता के दर्शन आप नियमित सरकारी विज्ञापनों में कर सकते हैं । उत्तमता को कोई आँच न आए, इसके लिए ये जिधर देखिए उधर रेस लगाए रहते हैं । सूरत, लुधियाना, दिल्ली, मुम्बई को जाने वाली ट्रेनें इसका गवाह बनती हैं । ट्रेन अपने अंतिम स्टेशन पर पहुँच कर रुक न जाए और इनसे हाथ जोड़कर माफी न मांग ले, तब तक ये उसकी जान नहीं छोड़ते । ऐसे में अमेरिका से अगर रोजगार की खुशखबरी शटल यान पर चढ़कर इनके आँगन में उतरे, तो जश्न तो बनता ही है ।
   दरअसल नासा मंगल पर मानव बस्ती बसाने की योजना को अंतिम रूप देने वाला है । वहाँ वह शिक्षकों को भी ले जाना चाहता है । यही वह खबर है जो यहाँ के लोगों को जश्न के जलाशय में डूबने के लिए प्रेरित कर रही है । दुनिया का कोई भी व्यक्ति शिक्षक बनने की मंडी में इनका मुकाबला नहीं कर सकता । शिक्षक बनना सबके वश की बात भी नहीं होती । लोग समझते हैं कि इसके लिए पढ़ा-लिखा होना जरूरी होता है । योग्य व्यक्ति ही शिक्षक बन सकता है । अब अगर पढ़ा-लिखा आदमी शिक्षक बन गया, तो इसमें योग्यता वाली कौन सी बात हुई? योग्यता तो तब दिखाई देती है, जब कम पढ़ा-लिखा या न पढ़ा-लिखा आदमी शिक्षक बने । एक अयोग्य जब शिक्षक बन रहा होता है, तो वह अपनी योग्यता ही प्रदर्शित कर रहा होता है । सौभाग्य की बात है कि इन राज्यों में ऐसे ही लोग शिक्षक बनाए जाते हैं ।
   जाहिर सी बात है कि मंगल ग्रह को जाने वाले रास्ते में वही लोग दिखाई देंगे, जिनमें प्रतिभा कूट-कूट कर भरी होगी । इन राज्यों के अधिकांश वर्तमान एवं भावी शिक्षकों को पार पाना किसी के लिए भी समंदर को तैर कर पार करने के समान होगा । किसी और जगह के शिक्षकों के पास, हो सकता है, एकाध प्रतिभाएं हों, पर यहाँ के शिक्षक तो प्रतिभाओं की खान हैं । अब प्रतिभा है, तो उसे छिपाना गैर-न्यायसंगत है । प्रतिभा की ढोल तो बजती रहनी चाहिए ।
   अयोग्य शिक्षक में सबसे बड़ी प्रतिभा यह होती है कि वह अपने पोषक सरकार के प्रति उसी तरह स्वामीभक्त होता है, जैसे कुत्ता अपने पोषक स्वामी के प्रति । कुत्ते के स्तर को छूना आसान नहीं होता । वह पक्का योगाचार्य होता है । जिस तरह सूर्य के सामने सूर्य-नमस्कार किया जाता है, उसी तरह यह अफसर-नमस्कार करता है । पूँछ-मूवमेंटासन इसके द्वारा किया जाने वाला सर्वकालिक आसन है । अन्य लाभों के साथ संकट के बादल छँटने का महालाभ होता है इस आसन से ।
   यह बिल्डर भी है । तमाम ठेके इसकी झोली में अनायास गिरते रहते हैं । मंगल पर तो अभी खाली-का-खाली मैदान है । वहाँ रहने के लिए बिल्डिंग तो चाहिए ही चाहिए । यह हलवाई भी है । इज्जत देने का मूड हो, तो आप इसे कैटरर भी कह सकते हैं । यह खाना बनाने से लेकर खाना खिलाने, बर्तन मांजने व जूठन की साफ-सफाई का उस्ताद है । गाय-भैंसों की गिनती करना, राजनीति करना, चुनाव की बैलगाड़ी हांकना, बच्चों को टीका पिलाकर समाजसेवा करना...अनगिनत प्रतिभाएं छिपी हैं इसके अंदर । इन सब चीजों की मंगल ग्रह पर जरूरत होगी ।
   शिक्षक...माने जिसे पढ़ना-पढ़ाना आता हो, वह किस खेत की मूली खाकर इन शिक्षकों का मुकाबला करेगा ! प्रतिभाओं की संपदा के मामले में कहाँ गंगू तेली और कहाँ राजा भोज ! इन सब चीजों से एक बात तो एकदम स्पष्ट है कि जिस दिन मंगल के लिए चयन शुरु होगा, यहाँ बस मंगल ही मंगल होगा ।

   यहाँ के जश्न की खबर के बाद नासा अलर्ट-मोड में आ गया है । उसके सामने सबसे बड़ी समस्या शिक्षक को परिभाषित करने की है । जिन लोगों ने यहाँ कबाड़ा कर रखा है, वे वहाँ पर क्या करेंगे । इनकी जुगाड़ की प्रतिभा इनके मंगल पर पहुँचने की संभावना के द्वार खोलती है । नासा ने अभी से इस संभावना को नष्ट करने के लिए एक विकट जंतुनाशी पर अनुसंधान शुरु कर दिया है । अगर ऐसा नहीं हुआ, तो नासा का लासा निकलने से ( मिट्टी पलीद होने से ) कोई नहीं रोक सकता । अब देखना है कि जश्न मनाने वाले नासा का बैंड बजा पाते हैं या नहीं ।

शुक्रवार, 8 जुलाई 2016

कुत्ता नहीं...आदमी गिर रहा था नीचे !

           
   साधो, दिल को आघात पहुँचाने वाली एक घटना अभी हाल ही में घटित हुई है । सोशल मीडिया पर यदि यह वायरल न हुई होती, तो शायद ही कोई जान पाता इस घटना के बारे में । अखबारों में वैसे भी ऐसी घटनाओं के लिए जगह नहीं होती । हाँ, टीवी चैनल वाले जरूर इस तरह की घटनाओं को सूँघते फिरते हैं, ताकि ब्रेकिंग न्यूज में वे आगे रह सकें । अगर इस तरह की घटनाओं को न पकड़ें, तो चौबीसों घंटे चैनल किस तरह चलेंगे और टीआरपी का मायाजाल किस प्रकार बुना जा सकेगा ।
   दरअसल समाज में महत्व के हिसाब से देखा जाए, तो यह एक अति न्यून महत्व की घटना थी । हमारे समाज में कुत्ते कितना महत्व रखते हैं? हम आते-जाते कुत्तों पर अनावश्यक पत्थर फेंककर मुस्कुराते हैं, सड़क पर सोए कुत्तों को लात मारकर बहादुरी का बोध ग्रहण करते हैं, उनपर अपने मुँह की गन्दगी फेंककर तथा विपरीत मौसम में गरम या ठंडा पानी डालकर असीम सुख का अनुभव करते हैं । इन तथ्यों के बावजूद उस घटना का वायरल होना कम-से-कम इस बात की तस्दीक अवश्य करता है कि थोड़ी ही सही, आदमियत अब भी बरकरार है ।
   वरना उस कुत्ते को फेंकने वाले आदमी ही थे, रूप-रंग और आकार-प्रकार के हिसाब से । संयोग से दोनों भविष्य के डॉक्टर हैं । करुणा, दया, सेवा-जिस पेशे के आत्मतत्व हैं, उन्हीं ने ऐसी हरकत की । पैसा जब संस्कार बन जाए, तो इन चीजों को छूटते देर ही कितनी लगती है ! खैर, कुत्ते को उछाल दिया गया उतनी उँचाई से । लोगों ने जान लिया कि कुत्ता नीचे गिर रहा है...गिर गया, पर कुत्ता नहीं गिर रहा था वहाँ । वहाँ तो आदमी गिर रहा था...नीचे...और नीचे ।
   कुत्ते को मैंने गिरते नहीं देखा है कभी । निकट से परिचय तब हुआ था, जब पहली बार इस मुहल्ले में रहने आया था । मुझे देखते ही किसी आँधी की तरह मेरी ओर बढ़ा था । मेरी ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे ही अँटक गई थी । उस एक पल में यह भी अहसास हो गया था कि बेटा रैबीज के चौदह टीके ठुँकवाने से अब तुझे कोई नहीं रोक सकता । अफसोस ! आँधी निकट आते ही अचानक थम गई थी । थोड़ी दूरी से ही उसने मुझे सूँघा था और पूँछ झटकारते हुए वापस चला गया था । तब का दिन और आज का दिन । मैं अकसर देर रात को घर आता-जाता हूँ । वह मुझे दूर से ही देखता है । उसका जागरण और अलर्ट-भाव मुझे एक अजीब-सी सुरक्षा का अहसास प्रदान करता है । हालांकि उसके और मेरे बीच के सम्बन्ध को मैं आज तक समझ नहीं पाया हूँ, क्योंकि न तो वह मेरे दरवाजे कभी आया, न मैंने कभी किसी रोटी का टुकड़ा ही उसकी ओर फेंका ।
   उसके प्रति मेरे मन में सम्मान हो, ऐसा मैंने कभी नहीं सोचा । वह तो दिल के किसी कोने में बैठा हुआ है और व्यवहार तो दिल का ही आईना होता है । उसे देखते ही मेरी नजर झुक जाती है । यही सम्मान का भाव रहा होगा, जब उन निर्माता-निर्देशक ने एक कुत्ते पर फिल्म बनाने की सोची होगी । तेरी मेहरबानियां फिल्म हमारे सामने आई केवल उसके कारण । कुत्ता क्या चीज होता है, इसे जानने के लिए एक फिल्म कभी पर्याप्त नहीं हो सकती । इसके लिए तो एक लम्बी श्रृँखला बनानी होगी ।
   महाभारत काल में जब पांडवों को लगा कि अब इस दुनिया से कूच करना चाहिए, तो वे दुर्गम पहाड़ों की ओर निकल पड़े । जब तक जीवन है, तब तक उसकी सुरक्षा की चाह भी होती है मनुष्य में । हालांकि अपनी सुरक्षा करने में वे हर तरह से सक्षम थे, फिर भी उनके साथ एक कुत्ता चल रहा था । उन्हें यकीन था कि वह न केवल निष्कंटक पथ को दिखलाएगा, बल्कि चौकन्ना रहकर सुरक्षा को भी मजबूत करेगा । यह बात कुत्ते के महत्व और सम्मान को ही दिखलाती है ।

   अक्सर हम किसी को गाली देते हुए कहते हैं कि अमुक अपने कुत्तेपन पर उतर गया है । उस आदमी ने जो किया, उसे देखते हुए गाली यह होनी चाहिए कि अमुक अपने आदमीपने पर उतर गया था । कुत्ता होना कोई गाली नहीं, आदमी होना ही एक बड़ी गाली है ।

मंगलवार, 5 जुलाई 2016

मैं हूँ आम सियार

                   
   जंतर-मंतर आश्चर्य से मुँह फाड़े खड़ा था । आँखें बेहिसाब चौड़ी होती गई थीं । जिधर से देखो, उधर से सियार चले आ रहे थे । धरती के अंदर और आसमान को छोड़कर दिशाओं का कोई कोना बाकी नहीं था । खेलम-खेल थी, मेलम-मेल थी, रेलम-पेल थी, जेलम-जेल थी, ठेलम-ठेल थी । हर कोई एक जगह पकड़ने को आतुर । जिन्हें जगह मिल गई, वे बैठ गए थे । जिन्हें नहीं मिली, वे खड़े-खड़े ही धरती को पैरों तले रौंद रहे थे ।
   सामने मंच पर बैठे आठ-दस नेता टाइप सियार अचानक खड़े हो गए थे । वे जोर-जोर से हाथ हिलाकर सबको शांत करने की कोशिश करने लगे । सबके शांत होते ही मुख्य नेता सियार उठ खड़ा हुआ । गले में अच्छी तरह मफलर लपेटने के बाद वह चार-पाँच बार खाँसा । गला साफ होने के बाद उसने सभी से सियार-वंदना की अपील की । पूरा जंतर-मंतर हुआँ-हुआँ की मधुर ध्वनि से गूँज उठा ।
   ‘भाइयों,’ वंदना खत्म होते ही नेता सियार बोला, ‘जीवन के हर क्षेत्र में, हर कार्य-व्यापार में, रोजमर्रा के हर व्यवहार में हमें दिक्कतों का सामना है । हर जगह वह कौन है, जिसके कारण हमें बार-बार दौड़ना पड़ता है, चप्पलों को घसीटना पड़ता है, फिर भी हाथ खाली-के-खाली रह जाते हैं ।’
   ‘कौन है वह?’ भीड़ में से आवाज आई ।
   ‘अच्छा प्रश्न किया किसी सियार दोस्त ने ।’ नेता सियार चहक उठा था । वह बोला, ‘भ्रष्टाचार है वह, जिससे हर सियार त्रस्त है ।’
   ‘उसे मार डालो...मार डालो ।’ भीड़ ऐसे हिलने लगी, जैसे कई शांत लहरें अचानक विक्षुब्ध हो उठी हों ।
   ‘मार तो डाला जाए, पर यह तो पता चले कि वह रहता कहाँ है ।’ एक दूसरा नेता उठकर बोला और भीड़ को शांत करने लगा । जैसे ट्यूब से हवा निकल गई हो, भीड़ फिर चिपक कर बैठ गई ।
   तभी मुख्य नेता सियार ऐलान करते हुए बोला, ‘ठीक एक पखवाड़े बाद अगली शाम को हम फिर यहीं मिलेंगे । निश्चय ही इस अवधि में भ्रष्टाचार का पता हमारी मुट्ठी में होगा ।’
   एक पखवाड़े बाद वाली शाम थी आज । सियारों की संख्या भी दोगुनी थी और उत्साह भी दोगुना । ‘क्या मिला ठिकाना? हमें भी तो पता चले कौन-सी है उसकी गुफा ।’ भीड़ से आवाज आई, शायद वह तनिक भी ताकने के मूड में नहीं थी ।
   ‘हाँ-हाँ, पता चल गया है ।’ मुख्य नेता सियार उठते हुए बोला, ‘वह सत्ता के गलियारे में रहता है । लकड़बग्घों और भेड़ियों के बंगले उसके आश्रय-स्थल हैं । उसे अक्सर खिड़कियों से झाँकते देखा जा सकता है ।’
   ‘तो देर किस बात की, उसे मार डालो...मार डालो ।’ एक हल्ला-सा उठा और भीड़ बेकाबू होने लगी ।
   ‘भाइयों-भाइयों,’ हाथ के इशारे से बैठने को कहता हुआ नेता बोला, ‘इतना आसान नहीं है उसे मारना । वह बड़े-बड़े लोगों के शरणागत है । उसे मारने के लिए  घमासान करना होगा और इस काम के लिए हमें चुनावी रण-क्षेत्र में उतरना होगा । सत्ता के गलियारों तक पहुँचना होगा । क्या आप सब चुनावी रण-क्षेत्र के लिए हमें योद्धा चुनने को तैयार हैं?’
   ‘हाँ-हाँ, आप लोग ही योद्धा होंगे ।’ भीड़ ने एक स्वर से हामी भरी थी ।
   मंच पर बैठे सारे नेता सियार चुनावी रण-क्षेत्र से होते हुए सत्ता के गलियारे में पहुँच गए । भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए ताकत की जरूरत होती है और ताकत इकट्ठा करने के लिए उन्होंने अपना-अपना वेतन कई-कई गुना बढ़ा लिया । अब टक्कर की लड़ाई थी । भ्रष्टाचार मजबूत था, तो ये भी कम मजबूत नहीं थे । ये रोज-रोज उसे आँखें दिखाने लगे । वह भी इन्हें घूरता रहा और इसी आँख-मिलाई में दो साल गुजर गए ।
   जंतर-मंतर एक बार फिर गुलजार हुआ । ‘भ्रष्टाचार का क्या हुआ’ जैसे प्रश्नों पर मुख्य नेता सियार गरजते हुए बोला, ‘भ्रष्टाचार बहुत ढीठ है दोस्तों, वह कई रूपों में मौजूद है, पर हम उसे छोड़ेंगे नहीं । हमने अंग्रेजों के डिवाइड एण्ड रूल की तरह एक पॉलिसी बनाई है-डिवाइड एण्ड किल । हम भ्रष्टाचार के कुछ रूपों को अपनी तरफ मिला लेंगे और उन्हें कमजोर करके मार डालेंगे । क्या इस पॉलिसी से सभी सियार सहमत हैं?’
   भीड़ ने सिर हिलाया । सहमति पाकर एक नेता सियार हाथ लहराते हुए बोला, ‘हम आम सियार थे, आम सियार हैं और सदा आम सियार बने रहेंगे ।’ नेताओं की ऐसी भावना सुनकर भीड़ गद्गद हो तालियाँ पीटने लगी ।

   जल्दी ही कुछ नेता सियारों के बंग्लों में भ्रष्टाचार दिखाई देने लगता है । आम सियार खुश हैं कि नेता सियारों के सिर पर अभी भी मैं हूँ आम सियार’ की टोपी सजी हुई है ।
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