जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

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शनिवार, 1 अक्टूबर 2016

मच्छर भाग रहे हैं

                       



  

 उस दिन रात कुछ ज्यादा ही काली और डरावनी थी । झींगुर तक डर के मारे अपने वाद्य यंत्रों को समेट कर इधर-उधर छिप गए थे । कभी-कभी चमगादड़ों की चिंचियाहट स्तब्ध नीरवता को छेड़ जाती थी । दूर-दूर से आती सियारों के रोने की आवाजें भय की भीत को और मजबूत किए जा रही थीं । पूरा गाँव सोया हुआ था । रखवाली करने वाले कुत्ते भी नींद के आगोश में दुबके हुए थे । रात का तीसरा प्रहर अपनी जवानी पर था । तभी अचानक कदमताल के संगीत उभरने लगे थे । देखते-देखते धरती कदमों के कचूमरी चाल से कसमसा उठी । मच्छरों ने चेहरे पर मुखौटा लगाकर हमला बोल दिया था ।
   रात भर हिंसा की हँसी गूँजती रही । खून पीने-पिलाने के कई दौर चले । इस जश्न में कोई सार्थक व्यवधान उपस्थित नहीं हुआ । गाँव वाले बस हाथ हिलाते रह गए । प्रतिरोध की शक्ल में कुछ-एक फुसफुसिया प्रक्षेपास्त्र दागे जरूर गए, पर वे शत्रु का बिना कुछ नुकसान किए अपने ही शरीर से आ टकराए । भोर होते-होते अपना अभियान पूरा कर मच्छर वापस लौट गए ।
   उधर उजाला फैला, इधर क्रोध की ज्वाला धधक उठी । इतनी हिम्मत मच्छरों की ! सैकड़ों लीटर खून गायब था गाँव से । क्या बच्चा-क्या बूढ़ा, क्या पुरुष-क्या स्त्री, कोई भी नहीं बच पाया था हमले के आघात से । आनन-फानन में गाँव की चौपाल पर मीटिंग बुलाई गई । जितने लोग-उतनी राय । सबक सिखाने से लेकर माफ करने तक, किसी भी विकल्प की सलाह आने से न रही । अंततः फैसला मुखिया पर छोड़ा गया । अगले ही पल मुखिया की गम्भीर वाणी गूँज उठी, ‘मच्छरों का क्या है...छोटे लोग हैं बेचारे ! मगर हम तो बड़े लोग हैं । अपने बड़प्पन को देखते हुए हम यह हमला कदापि नहीं कर सकते । कोई क्या कहेगा हमारे बारे में? यही न कि हमें अपनी ताकत का अहंकार हो गया है । पिद्दी से जीव पर टूट पड़े सनकी हाथी की तरह ।’
   ‘मगर मच्छरों को उनकी हरकत का खामियाजा भुगतना ही चाहिए ।’ किसी कोने से किसी ने विरोध की आवाज उठाई ।
   ‘तो मुखिया आप ही क्यों नहीं बन जाते?’ तनिक गुस्से के साथ मुखिया बोला, देखिए हम अपना बड़प्पन नहीं छोड़ सकते । हमारे गाँव की महानता सदियों से चलती चली आई है । उन पर हमला करने से हमारी महानता को कितना आघात लगेगा...सोचिए जरा ।’ फिर कुछ देर रुककर, ‘हमारे विचार में हमें इस मसले को पंचाट के समक्ष पेश करना चाहिए । वही सोच-विचार करे मच्छरों के बारे में ।’
   मुखिया की बात में अधिकांश गाँव वालों को दम नजर आया । विरोधी स्वर रखने वाले चुप्पी साध गए । और मसला पंचाट के हवाले कर दिया गया । उधर मच्छरों की मीटिंग बुलाई गई...‘ऐक्शन का क्या रिएक्शन हुआ’ को जानने के लिए ।
   ‘गुस्सा तो उन्हें आया था, पर जल्दी ही वे फिस्स हो गए ।’ एक मच्छर खड़ा होते हुए बोला, ‘अच्छा है, अच्छा है...’
   ‘वे कुछ सोचें-करें, इससे पहले ही उनपर महानता का भूत सवार हो गया । अब भूत उन्हें पंचाट में ले गया है ।’ कहते हुए उसके चेहरे पर खिखियाती हँसी उभर आई थी । ढेर सारे मच्छर ठहाका लगाकर हँस पड़े ।
   ‘यह तो अच्छी खबर है ।’ मच्छरों का मुखिया प्रसन्न होते हुए बोला, ‘इस बात से जाहिर होता है कि वे काहिल लोग हैं । कुछ करने-धरने वाले नहीं वे । अधिक से अधिक हाथ भाँजकर अपनी विवशता दिखा सकते हैं ।’ फिर खुफिया प्रमुख की ओर मुखातिब होकर, ‘आप उनकी गतिविधियों पर निरन्तर नजर रखें, ताकि उनपर एक और सफल हमला किया जा सके ।’
   कुछ समय बीतने के बाद गाँव पर फिर हमला हो गया । मच्छर इस तरह खून पीने लगे, मानो पिछले हमले के बाद से भूखे बैठे हों । इधर गाँव वाले भी कभी-कभार हवाई फायरिंग करने लगे । कुछ-एक मच्छर धराशायी भी हुए, पर उनका तांडव जारी रहा । रात दिन में बदल गई । मच्छर पीछे हटने लगे और गाँव वाले आगे बढ़ने लगे । देखते-देखते मच्छरों का एक बड़ा इलाका उनके कदमों के नीचे आ गया । उनकी ऐसी दशा देख गाँव वालों ने युद्ध-विराम की घोषणा कर दी । इसके बाद संधि का आयोजन किया गया । मच्छरों ने कौन सी बात मानी, किसी को पता नहीं, पर दुनिया ने गाँव वालों की तरफ से एक महानता को घटित होते देखा । कब्जे वाले इलाके पुनः मच्छरों के अधीन हो गए ।
   इस हमले में मच्छरों को कुछ जानी नुकसान उठाना पड़ा था । अतः मीटिंग में फैसला हुआ कि गाँव वालों को किसी भी कीमत पर छोड़ना नहीं है, पर हमले की रणनीति को बदल दिया जाए । मच्छरों के छोटे-छोटे समूहों के साथ हमले को अंजाम दिया जाए । छिपकर हमला किया जाए । उधर गाँव वाले फिर लापरवाह हो गए । आखिर मच्छर ही तो हैं । हमारे आगे उनकी हैसियत ही क्या है । उनसे हमारा छोटा-मोटा नुकसान कोई मायने नहीं रखता । वे अपना मच्छरपना बेशक दिखाएं, पर हम तो अपनी महानता ही दिखाएंगे ।
   इसके बाद अनगिनत छोटे-छोटे हमले मच्छरों की तरफ से किए गए, पर गाँव वालों ने भर्त्सना के जवाबी फायर दिए उनकी तरफ । एक से बढ़कर एक कठोर शब्दों के गोले दागे गए । ये गोले मच्छरों के कानों तक पहुँचते-पहुँचते फुस्स हो गए । उन लोगों ने इस पर गहन विचार-विमर्श किया । एक बात स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आई कि शत्रु निकम्मा है । वह अपना गाल तो बजा सकता है, मगर हमारा बैंड नहीं बजा सकता । अब हम हमला तो छोटा ही करेंगे, पर घाव गम्भीर देंगे ।
   इसी बीच गाँव का मुखिया बदल गया । इस खबर से बेखबर मच्छरों ने अपना हमला जारी रखा । वो क्या है कि आदत नहीं छूटती । ऊपर से शत्रु की निष्क्रियता दुस्साहस का पंख लगा देती है । एक रात मच्छरों की एक छोटी टुकड़ी ने गाँव पर भीषण हमला बोल दिया । खूब खून-खराबा मचा और त्राहि-त्राहि भी । त्राहि-त्राहि तो पहले भी होती थी, पर बस यही होकर रह जाती थी । नए मुखिया ने महानता और काहिली के लबादे को लात मार दिया तथा घात लगाकर मच्छरों पर हमला बोल दिया । ढेर सारे मच्छर मारे गए ।
   आनन-फानन में मच्छरों के मुखिया ने मीटिंग को आहूत कर लिया । गहन विचार-विमर्श का यही निष्कर्ष निकला कि अब शत्रु महानता दिखाने के मूड में नहीं है और वह हमसे हमीं की भाषा में बतियाने लगा है । इसलिए पहले वाली मौज-मस्ती गई । ऊपर से जान के भी लाले आ पड़े । अब तो भाग चलने में ही भलाई है ।

   मच्छर भाग रहे हैं । क्या आप बता सकते हैं कि मच्छरों की यह विशेष प्रजाति किस इलाके में निवास करती है? गाँव में काली रात तो अब भी हो रही है, किन्तु डर वापस लौटते मानसून के बादल की तरह छँटता चला जा रहा है ।

मंगलवार, 23 अगस्त 2016

किस-किस को खुश करूँ रब्बा

               
   हमारे एक पड़ोसी की फितरत अजीब है । जिस काम का विरोध होता है, वही काम करने में उन्हें मजा आता है । लोगों ने उनके मोहल्ला विकास दल का सदस्य बनने का विरोध किया, वह बन गए । फिर उन्होंने उस दल का मुख्यमंत्री बनना चाहा । विरोध हुआ । कहा गया कि सबको साथ लेकर चलना उनके वश की बात नहीं । वह अड़ गए । विरोध उत्पन्न हुआ, तो सहानुभूति भी पैदा हुई । वह अच्छे मतों से मोहल्ला विकास दल का नेता अर्थात मुख्यमंत्री बन गए । उन्होंने बड़प्पन का परिचय दिया और सबको साथ लेकर चलने की घोषणा कर दी । अब सबका ध्यान होगा, सभी की इच्छाओं का सम्मान होगा ।
   लोगों ने कहा कि नया पद है, नया काम है, अतः शुरुआत प्रभु के स्मरण से होनी चाहिए । उनकी इच्छा का मान रखते हुए रामायण-पाठ का आयोजन कर दिया गया । उन्होंने स्वयं मोर्चा सम्भाला । वह यह काम किसी और पर नहीं छोड़ना चाहते थे । प्रभु का स्मरण हो और वह भी किसी और से करवाया जाए ! इस काम में काम का हस्तांतरण अर्थात आउटसोर्सिंग के पक्ष में वह कभी नहीं रहे । खुद ही पाठ कहना शुरू किया...हर संभव शुद्धि एवं शांति के साथ । दिन बीता, रात बीती । पाठ-समापन के साथ प्रसाद के वितरण की बेला, मगर लोगों का नहीं लगा मेला । एकाध को छोड़ कोई प्रसाद लेने नहीं आया ।
   ‘काहे भइया, प्रसाद लेने नहीं आए । कुछ गलत-वलत हो गया क्या?’ कोमल स्वर में पूछा था उन्होंने एक पड़ोसी से ।
   ‘जंगल में मोर नाचा, किसने देखा । बिना ध्वनि विस्तारक यंत्र के मंगल-गान हुआ, किसने सुना । जब कोई सुने, तब न आए प्रसाद लेने । किसी को लगा ही नहीं कि आपके यहाँ कुछ हुआ है ।’ यह सिर्फ पड़ोसी की बात नहीं थी, बल्कि पूरे मोहल्ले का प्रतिनिधि कथन था । प्रसाद तो पहुँच गया सभी के हाथों में, पर मन की बात नहीं पहुँची किसी के मन तक ।
   दो दिनों के बाद खूब धूम-धड़ाके के साथ फिर शुरू हुआ रामायण का पाठ । ढेर सारे ध्वनि विस्तारक यंत्रों ने ऐसा समाँ बाँधा कि कुछ लोग वाह-वाह, तो कुछ लोग आह-आह कर उठे । दिन को मजा, रात को सजा । रोगी-बुजुर्ग तो क्या, ढीठ नौजवान तक सो नहीं पाए । उधर रामायण में तीर सनन-सनन चल रहे थे और वीर कट-कट के गिर रहे थे, इधर अपने घरों में दुबकी ऑडियंस नींद-रक्षा के लिए त्राहि-त्राहि के विगुल बजाए जा रही थी । उधर कितने वीरों ने क्या किया, पता नहीं, पर इधर के कई वीर सुबह होने के पहले ही समर्पण कर चुके थे ।
   इधर सूरज फूटा, उधर लोगों का गुस्सा । ‘धर्म हो रहा है या अधर्म । कान में धर्म की बातें डाली जा रही हैं या खौलता शीशा । हद हो गई । जबर्दस्ती शरबत पिलाए जा रहे है । आपको धर्म-कर्म करना है, कीजिए, पर दूसरों का श्राद्ध-कर्म क्यों किए जाते हैं ।’ इस आतंक के बीच कुछेक मोहल्ले के वीर अभी भी डटे हुए थे । रात की गगन-भेदी आवाजें असफल रही थीं उनके मर्म को बेधने में । मुकाबले में मजा आया था । काश ! ऐसी चिंग्घाड़ू चीजें अक्सर होतीं, पर एक बात की शिकायत उनके पास भी थी । केवल पीली धोती धारण कर लेने से बंदा धर्मात्मा नहीं हो जाता । धर्म के लिए दिल खोलना पड़ता है ।
   ‘मैं समझा नहीं कि दिल को कैसे खोला जाता है ।’ उन्होंने पूछ ही लिया था आखिर एक मोहल्ला-वीर से ।
   ‘भई, आप जैसे कंजूस-मक्खीचूस यह बात नहीं समझ सकते ।’ उसने ताना मारते हुए कहा था, ‘धर्म-कर्म क्या अकेले करने की चीज है । पाठ वाचक दल को बुला लिया होता । शानदार ढंग से धर्म-कर्म होता । उन्हें रोजगार मिलता, वह भी तो धर्म ही होता । धर्म एक, रास्ते हजार ।’
   पड़ोसी ने सोचा कि हमें तो वही करना है, जो लोगों को अच्छा लगे । चलो, यह भी करके देखते हैं । अगला ही हफ्ता महा-आयोजन का गवाह बना । झाँझ-मजीरा और ढोलक की थाप पर वाचक दल ने सभी मोर्चे सम्भाल लिए । सोमरस और भांग के संयुक्त प्रभाव ने कहर बरपाना शुरु कर दिया । पूरा मोहल्ला साँसें रोके देख-सुन रहा था और इधर धर्म कुलांचे भरता हुआ आकाश के चरण चूम रहा था । पड़ोसी को प्रसन्नता थी कि यह आयोजन अवश्य ही सभी लोगों को आह्लादित करेगा ।
   पर अफसोस, बोलने वाले फिर निकल आए अगली भोर के साथ । ‘क्या ऐसे भी होता है प्रभु का स्मरण ...मानो प्रभु पर ही धावा बोल दिया हो । प्रभु को मंजूर हो तो करो, पर हमें तो जिंदा छोड़ दो ।’
   किसी और ने कहा, ‘राम-राम, कितना धिक्पुरुष है यह । प्रभु को भी पैसे का अहंकार दिखा रहा है । भाड़े की सेना से प्रभु को खरीदने चला है ।’

   पड़ोसी बेचारा मायूस था । लोगों ने जो कहा, उसने किया । इसके बावजूद आरोप, शिकायत, ताना-तंज...आखिर कैसे खुश किया जाए लोगों को अचानक उसे ऐसा आभास होने लगा, जैसे वह देश का ‘वर्तमान’ प्रधानमंत्री बन गया हो ।
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