जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

मंगलवार, 28 जून 2016

एक झुठक्कड़ की तलाश है

                 

   दरबार-ए-खास में विशेष सन्नाटा था । महाराज सियार और उनके दो-चार सेवकों के अलावा वहाँ कोई नहीं था । महाराज ने सभी मंत्रियों को विलंब से आने का आदेश दिया था । इस वक्त उन्हें इंतजार था किसी का । न जाने कितनी बार सिंहासन पर पहलू बदल चुके थे । तभी खबरी खरगोश तेजी से दरबार-ए-खास में प्रवेश करता दिखाई दिया था । महाराज की मुख-मुद्रा पर एक मुस्कान-सी बिखर गई और इंतजार व बेचैनी के भाव तेजी से तिरोहित होते चले गए ।
   सिंहासन के निकट पहुँचकर खबरी खरगोश घुटनों तक झुका और महाराज से मुखातिब होते हुए बोला, ‘महाराज की जय हो, सुना है कि महाराज को इस नाचीज खबरी का इंतजार है ।’
   ‘हम बड़ी देर से प्रतीक्षा कर रहे हैं तुम्हारी । तुम हो कि पता नहीं कहाँ गुम हो गए थे । पर चलो, आ तो गए आखिर ।’ कहते हुए एक लम्बी साँस ली महाराज ने । चेहरे पर प्रसन्नता बरकरार थी ।
   ‘फरमाइए महाराज, क्या सेवा है मेरे लिए?’ सिर फिर झुका था उसका ।
   ‘बहुत ही खास काम है खबरी । मैं तुम्हें एक विशेष मिशन पर भेजना चाहता हूँ । मुझे योग्यतम झुठक्कड़ की तलाश है और इसके लिए तुम पूरे जंगल को छान मारो । जो भी खर्चा-पानी चाहिए, खजाने से ले लो ।’
   इतना सुनते ही खबरी खरगोश को झटका-सा लगा । ‘पर हुजूर, झूठ तो बुरी चीज है । आपने कथाओं में सुना ही होगा कि झूठ की पोल खुलने पर लोग चेहरा छिपा लेते थे, पतली गली से निकल जाते थे या फिर धरती मैया से याचना करते थे कि वह फट जाए और वे उसमें समा जाएं ।’
   ‘तुम सतयुग की बात करते हो खबरी, पर यह मत भूलो कि इस वक्त तुम हमारे दरबार में खड़े हो ।’
   ‘सत्य ही कहा महाराज ने । सतयुग तो बहुत पीछे छूट गया ।’ एक निःश्वास छोड़ते हुए खबरी खरगोश बोला, ‘जान की अमान हो, तो एक बात और कहूँ हुजूर । वो क्या है कि शास्त्र भी इसे अच्छा नहीं मानते । एक संत ने कहा है-साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।’
   यह सुनते ही महाराज सियार को हँसी आ गई । वह ठठाकर हँसते हुए बोले, ‘तुम्हें अपडेट होने की सख्त जरूरत है खबरी । तुम वो पुराना वाला वर्जन लेकर घूम रहे हो । नया वर्जन इस तरह है-झूठ बराबर तप नहीं, साँच बराबर पाप ।’
   ‘क्या सचमुच ऐसा ही है?’ ‘बिल्कुल ऐसा ही है । क्या तुम कह सकते हो कि मैं झूठ बोलता हूँ?’
   खरगोश उछला, ‘नहीं-नहीं महाराज, राजा झूठ कहाँ बोलता है ! फिर भी झुठक्कड़ की तलाश वाली बात समझ में नहीं आई ।’
   ‘तुम बस इतना समझो कि मुख्य रूप से सरकार को अब दो ही काम करना है । नकली काम का रेखाचित्र खींचना और उसका ढिंढोरा पीटना ।’
   ‘पर महाराज, झुठक्कड़ के तलाश की क्या जरूरत है? आप के पास तो एक से बढ़कर एक झूठ बोलने वाले मंत्री-रत्न हैं ।’
   ‘तुम्हारा कहना मुनासिब है खबरी, पर ऐसा झूठ किस काम का, जिसे विपक्षी सूँघ लें...जनता ताड़ ले । जब हम नगाड़ा बजाते हैं, तो नेपथ्य से झूठ-झूठ की आवाजें आने लगती हैं । ऐसा झूठ भी कोई झूठ है लल्लू !’
   कुछ देर रुककर महाराज फिर बोले, ‘नगाड़ा विभाग तो अच्छी तरह नगाड़े बजा रहा है, पर झूठ-विकास विभाग को अभी भी एक योग्य व्यक्ति की तलाश है, जो तकनीक का उस्ताद हो और सदा अपने को अपडेट रखता हो ।’

   अब खबरी खरगोश को समझते देर नहीं लगती कि सरकार को लम्बी अवधि तक चलाने के लिए लाल बुझक्कड़ की तरह लाल झुठक्कड़ की कितनी जरूरत है । झूठ चलेगा, तभी सरकार चलेगी । वह तेजी से सरकारी मिशन पर निकलता है । 

शुक्रवार, 24 जून 2016

भैंस नहीं...अबकी बार, गुम है सरकार

  सरकार चीख-चीखकर बता रही है कि वह गाँव तक पहुँच चुकी है उसका चीखना लाजिमी है, क्योंकि जनता अमूमन बहरी होती है धीरे की बात सुन लेती, तो नगाड़ा बजाने की जरूरत ही नहीं पड़ती खैर, वह आई तो आई कैसे? न एअरोप्लेन दिखाई दिया, न रेलगाड़ी आई, न चमचमाती लग्जरी गाड़ियां, न ही फौजी हेलीकॉप्टर । न इक्का-तांगा आया, न कोई बैलगाड़ी आई, न कोई टेम्पू आया, न ही रिक्शे की सवारी आई । न कोई साइकिल दिखाई दी, न कोई हाथी मतवाली चाल से चलती हुई आई । न पालकी को ढोने वाले कहार दिखाई दिए, न कोई पैदल चप्पल घसीटता हुआ आया । हवा भी आई, तो अपने साथ धूल-अंधड़ ही लाई ।
  फिर भी सरकार आ गई है । जनता काहिल और जाहिल इसीलिए कहलाती है, क्योंकि वह सरकार का आना ताड़ ही नहीं पाती है । ऐसी जनता किस काम की, जो सरकार को ही न देख सके । मैं उसे ढूँढने लगा । सूखे खेतों में देखा, खाली खलिहानों में देखा । फटी धरती-सी रूखे और खुरदरे चेहरे वाले लोग ही दिखाई दिए । यहाँ सरकार हरगिज नहीं हो सकती । हरियाली और सूखे का भला क्या मेल !
   मैंने उसे कुओं में झांका, पोखरों-तालाबों में देखा, नदी-नालों में देखा, हर गहराई में देखा, पर वह दिखाई नहीं दी । रास्तों-पगडंडियों पर देखा, गलियों-चौबारों में देखा, नुक्कड़ पर देखा, नाकों-सरहदों पर देखा । अमीर की हवेली में देखा, गरीब की झोपड़ी में देखा । घरों के कोनों में देखा, भात के दोनों में देखा । चाय की कुल्हड़ और बच्चों की हुल्लड़ में देखा । ताले-तिजोरी में देखा, लोगों की फटी जेबों में देखा । टूटी खटिया व पलंग पर देखा । हतभाग्य, सरकार कहीं नहीं दिखी ।
   राशन की दुकान पर खोजा । वहाँ कुछ दिखाई दिया । एक आदमी दो दिनों से बच्चों के भूखे होने की दुहाई देकर अनाज मांग रहा था और दुकानदार उसकी गर्दन में हाथ लगाकर बाहर धकिया रहा था । कुछ आगे सड़क के एक शानदार गड्ढे में दो-चार लोग गिरे पड़े थे । जरूर वहाँ सरकार होनी चाहिए, तभी तो लोग खुशी-खुशी उसमें...अफसोस ! चौराहे पर मैंने पूछा, ʻसरकार को तुमने देखा है कहीं
  अभी तो आया था,’ लोगों ने जवाब दिया,चुनाव सिर पर है । अतः कमजोरों के वोटर कार्ड जमा करवा रहा है...सुरक्षा के लिए ।’ अब इसमें उनकी सुरक्षा है या नेता की...सरकार ही जाने ! ( दरअसल यह सरकार इलाके के खुर्राट नेता का खास आदमी है ।)

   सचमुच सरकार लापता हो गई है । जो खुद लापता हो, वह अपना पता भला किस तरह बता सकती है । इसके बावजूद वह बता रही है, तो सच ही बता रही होगी । सरकार सच ही बोलती है । सच तो सच होता ही है, उसका झूठ भी सच ही माना जाता है । पर आम जनता के लिए दिक्कत यह है कि वह सरकार को अपनी दुनियावी आँखों से नहीं देख पा रही है । अतः सरकार उसके लिए लापता ही हुई न ! भैंस लापता हुई थी, तो पुलिस और प्रशासन ने उसकी तलाश में रात-दिन एक कर दिया था । तभी नासमझ जनता को यह भी पता चला था कि पुलिस कितनी कर्मठ चीज होती है । पर आज सरकार को ढूँढने के लिए कोई आगे नहीं आया, एकदम शांति छाई हुई है ।...आखिर इतना सन्नाटा क्यों है भाई !

मंगलवार, 21 जून 2016

बाबा के विदेशी अज्ञातवास का रहस्य

            

    बाबा आजकल अज्ञातवास में हैं । इसके लिए उन्हें विदेश की शरण लेनी पड़ी । अपने देश में मीडिया का खतरा था । खोज निकालते तो ! महाभारत वाले जमाने में पांडवों को मजबूरी में अज्ञातवास में जाना पड़ा था, किन्तु बाबा अपने शौक से शुभ-मुहुर्त्त निकालकर अज्ञातवास में चले जाते हैं । यह उनका अपना स्टाइल है । पांडवों को एक बार ऐसा करना पड़ा था, पर बाबा अक्सर ऐसा करते रहते हैं । पूरे अज्ञातवास के दौरान पांडव भयभीत बने रहे । उन्हें अपने लाइट में आने का डर था । बाबा के सामने भय हमेशा अवकाश पर रहता है । लाइट में बने रहने के लिए ही बाबा ऐसा करते हैं ।
    बाबा का अज्ञातवास में जाना तथा नेवले और साँप की कहानी का मन में आना एक संयोग मात्र है । नेवले और साँप की लड़ाई में नेवला कुछ-कुछ समयान्तराल पर अपने बिल की ओर भागता है । ऐसा माना जाता है कि वह वहाँ पर जाकर कुछ जड़ी-बूटियों को सूँघता है या उनका रसास्वादन करता है । इससे उस पर साँप के जहर का प्रभाव कम होता है तथा साथ ही साथ वह वहाँ बैठकर चिंतन–मनन करता है । हमला करने की आगे की रणनीति पर विचार करता है । विपक्षी पर कौन-कौन से शस्त्रास्त्र प्रयोग किए जाएँ-–इसका निर्णय लेता है । कौन से दाँव आजमाएँ जाएँ–-इस पर त्वरित फैसला करता है । साथ ही साथ वह अपनी ऊर्जा की, देसी भाषा में बोले तो, पुनर्प्राप्ति कर रहा होता है ।
    विदेशी अज्ञातवास में जाने के पीछे बाबा का मकसद भी बहुत कुछ इससे मिलता-जुलता है । गुड़ खाने वाला ही गुड़ का मजा जानता है । अज्ञातवास का मजा बाबा के अलावा और कौन जान सकता है । बिना मजा के वे अज्ञातवास में बार-बार क्यों जाते ! अज्ञातवास में जाने के लिए गुप्त और सुरक्षित ठिकानों की दरकार होती है । ठिकाना मनमाफिक न हो तो आपके बाबा होने का क्या फायदा !  दूसरी बात ये है कि बाबा अज्ञातवास में सचमुच चिंतन-मनन के लिए ही जाते हैं । वे वहाँ पर देसी समस्याओं पर विदेशी विशेषज्ञों से राय लेते हैं । विपक्षियों से निपटने के लिए विदेशी किताबों में उपाय ढूँढते हैं । दाँव-पेंच को स्मरण करने के लिए विदेशी भोजन का अनिच्छित प्रयोग करते हैं तथा विभिन्न विदेशी जगहों की खाक छानते हैं । साथ ही साथ वह अपनी एनर्जी को, अंग्रेजी भाषा में बोले तो, रीगेन कर रहे होते हैं ।
   अज्ञातवास का सबसे बड़ा इफेक्ट ये पड़ता है कि क्या पक्षवाले और क्या विपक्षवालेसभी भौंचक रह जाते हैं बाबा रणक्षेत्र से ऐन प्राइम टाईम में ही निकल जाते हैं इसका साइड इफेक्ट ये होता है कि अज्ञातवास में निकल जाने के बाद भी विपक्ष मौखिक रूप से हमलावर रहता है और निरन्तर अपनी ऊर्जा का क्षय कर रहा होता है आज भी यही स्थिति है विपक्ष उन्हें ढूँढ रहा है और बाबा की चुनौती उस डिटर्जेन्ट टिकिया की तरह अपनी जगह बनी हुई है-–पैरों के दाग ( निशान ) ढूँढते रह जाओगे !

शुक्रवार, 10 जून 2016

गोली जो खनकी...बागों में

               
                
   वह अचानक बेंच से उठे और तेजी से बाग के एक्जिट की ओर कदम बढ़ाने लगे । मुझे आश्चर्य हुआ । हम दोनों घंटों बैठते थे बाग में...इधर-उधर की बातें करते, एक-दूसरे का सुख-दुख साझा करते, राजनीतिक मुद्दों पर बतियाते और कभी-कभी पड़ोसी धर्म का मान रखते हुए पड़ोसियों की बुराइयां खुर्दबीन से ढूँढते ।
   उनके पीछे दौड़ते हुए मैंने पूछा,'अरे-अरे, कहाँ चल दिए बुलेट ट्रेन से?’
   मुझे नहीं सैर करना अब बागों में । खैर होगा, तभी सैर होगा । मैं कोई और ठिकाना ढूँढ लूँगा । मैं तो कहता हूँ...आप भी निकल ही जाइए ।’ कहते हुए गति को उन्होंने और बढ़ा दिया ।
   मगर यहाँ क्या बुराई है?...ताजी हवा है, हरे-भरे पेड़ हैं, मखमली घास है, आते-जाते-चहचहाते पक्षी हैं, लोग-बाग हैं, और क्या चाहिए आपको?’
   मगर यहाँ सुरक्षा नहीं है । बाग अब महफूज नहीं रहे किसी के लिए ।’ तेज चलने से उनकी साँस फूलने लगी थी ।
   क्यों?...बाग में बाघ घुस आया है क्या, जो यह सुरक्षित नहीं रहा?’
   बाघ होता, तब भी गनीमत थी, क्योंकि बाघ बाग पर कब्जा नहीं करते । यह तो मनुष्य की पाशविकता है
   अच्छा...अब समझा । आप जवाहरबाग की बात कर रहे हैं ’ मैंने बात को अच्छी तरह समझने की कोशिश करते हुए कहा ।
   पर मुझे लगा कि उनका ध्यान मेरी तरफ नहीं है, क्योंकि वह अपनी ही बोलते चले गए । गति में कमी किए बिना वह बोले,‘वह तो भला हो सरकार का कि उसने कोई रोक-टोक नहीं लगाई । अपनों पर भी कोई रोक-टोक लगाता है भला ! अपना-पराया भी तो कोई चीज होती है कि नहीं
   पर सरकार ही तो...मैं नहीं मानता । सारा दोष अदालत का है । उसे क्या जरूरत थी शांत पानी में पत्थर फेंकने की?’
   कब्जा हुआ था वहाँ मैं भी तो वही कह रहा हूँ । तीन साल से कब्जा...माने सरकार का कब्जा, सरकार के आदमियों का कब्जा । कोई आम आदमी इतना लम्बा कब्जा किस बाप के दम पर करेगा !’
   मैं चुप रहा, ताकि उनकी गति में कोई बाधा न पड़े । एक पल रुककर वह फिर बोले,‘आम आदमी भी समझता है इस बात को और अदालत है कि हुक्म-उदूली नहीं चाहिए । जब आप सरकार को सरकार के खिलाफ खड़ा करेंगे, तो कोई कांड ही जन्म लेगा ।’
   ‘मैं समझा नहीं आपके कहने का अभिप्राय ।’ मैंने अपनी आँखों को उनके चेहरे पर गाड़ते हुए पूछा ।
   ‘इसमें न समझने वाली क्या बात है । सरकार का कब्जा था, तो छोड़ देना चाहिए था । अब सरकार है, तो उसको इतना हक तो होना ही चाहिए । वैसे भी कब्जों और लफ्जों के अलावा सरकार के पास काम ही कितना होता है ! या तो वह कहीं-न-कहीं कब्जा करती है, या फिर लफ्जों में आम-आदमी को उसी तरह फँसाती है जैसे गाढ़ी चाशनी में मक्खी ।’
   वाह, क्या बात कही आपने । मेरे मुँह से बेसाख्ता निकल पड़ा ।
   इस पर वह तनिक रुके और लम्बी साँस खींचते हुए बोले,‘मेरे एक फिल्म-निर्माता दोस्त कल आने वाले थे यहाँ । एक गाने का दृश्य फिल्माना था- चूड़ी जो खनकी...बागों में । मैंने मना कर दिया और समझाया कि चूड़ी अब बाग में नहीं खनक सकती, क्योंकि वहाँ तो गोलियां खनकने लगी हैं । दृश्य इस तरह हो लिया है- गोली जो खनकी...बागों में, याद पिया की (भगवान की) आने लगी...हाय काली-काली रातों में ।’
   उनसे सहमत होकर मैं भी उनके पीछे-पीछे चलने लगा था । 

मंगलवार, 7 जून 2016

नीरो बंसी बजा रहा है

              
                 
   साधो, कंस की नगरी जल रही है । कंस के किसी वंशज के अत्याचार से, पुलिस की शुतुरमुर्गी व्यवहार से । यह जल रही है प्रशासन की अमिट लापरवाही से, राजसत्ता की अहंकारी अकर्मण्यता से । जब कंस का शासन था, तब भी यह जल रही थी उसकी अमरता की इच्छाओं से, अनंत आकाक्षांओं से । जनता के दहकते तन-मन पर किसी तपते रेगिस्तान में वर्षा की शीतल बूँद बन उतरी थी श्रीकृष्ण की बंसी । उनकी बंसी बजती गई थी और अनाचार के अंगार अपने अस्तित्व की अंगीठी से ओझल होते गए थे । उनकी बंसी तब तक बजती रही, जब तक नगरी ने पूर्ण शीतलता का अनुभव न कर लिया ।
   उधर जब रोम जल रहा था, तो नीरो बंसी बजा रहा था...चैन की बंसी । कुछ लोग समझते हैं कि गैर-जिम्मेदारी और अकर्मण्यता के चलते वह वैसा कर रहा था । पर यह भी तो हो सकता है कि वह रोम के जलने से दुखी हो और जनता के मन की दाहकता को दूर करने के लिए बंसी बजाने लगा हो । तन तो जल ही रहा है, कम-से-कम मन को तो कुछ राहत दे दी जाए । राज्य के प्रति उसकी उस असंदिग्ध निष्ठा को नजर-अंदाज करने के लिए ऐसे लोगों को कतई माफ नहीं किया जा सकता ।
   नीरो तो नहीं रहा, पर उसके वंशज हर जगह मौजूद हैं । कंस की नगरी पर  शासन का ठेका नीरो के एक वंशज के ही हाथों में है । वह पिछले काफी समय से चैन की बंसी बजा रहा है । श्रीकृष्ण ने तो कुछ किया-धरा था, तब जाके चैन की बंसी बज पाई थी । पर इसके बंसी बजाने के पीछे गहरी सोच है । बंसी बजा-बजाकर जनता को इतना मदहोश कर दिया जाए कि वह किए-धरे का हिसाब ही भूल जाए । नीरो के पास बंसी बजाने का एक ही तर्क था...आग ! तुम चैन की बंसी क्यों बजा रहे हो?’ क्योंकि रोम इत्मीनान से जल रहा है ’ पर आज के नीरो के पास तर्क की टकसाल है । अराजकता, अत्याचार, अनाचार, अपराध रुपी आग कभी इधर-कभी उधर न लगती रहे, तो बोरियत का बोध होता है । तब भी बंसी बजाना बनता है, जब उसे लगे कि उसने इतना काम कर दिया है कि किसी के लिए कुछ बचा ही नहीं । उसकी दूर-दृष्टि के दोष के कारण जब मैदान में कोई शत्रु दिखाई नहीं देता, तो वह बंसी बजाता है । बंसी बजाने के लिए आत्म-मुग्धता का एक तर्क और है । आत्म-मुग्ध व्यक्ति चैन की बंसी ही बजाता है ।
   कंस की नगरी की आग क्या यह समझने के लिए पर्याप्त नहीं कि आज का नीरो बंसी बजाने में मशगूल है?

शनिवार, 4 जून 2016

आधी छोड़ सारी को धावे

              
   दोपहर हो आई थी, अतः काम बंद हो गया था । भीषण गर्मी में दो-तीन घंटे का ब्रेक स्वाभाविक ही था । उसके बाद देर शाम तक काम । आठ घंटे पूरे जो करने होते थे । काम लेने वाला इतना दयालु नहीं होता कि आधे काम के पूरे पैसे दे दे । इस ब्रेक में खाने-पीने के बाद सुस्ताने को पर्याप्त समय मिल जाता था । उसने अपनी पोटली खोल ली थी । मोटी-मोटी लिटि्टयों के साथ प्याज भी संगत देने को तैयार था । लिट्टी और प्याज की जुगलबंदी हमेशा से मधुर राग छेड़ती रही है गरीब के आँगन में, पर इधर प्याज बहुत भाव खाने लगा है । वह रह-रहकर जुगलबंदी को तोड़ दे रहा है । इस साल उसे ऐसी पटकनी मिली है कि अभी तक मुँह के बल गिरा धूल फाँक रहा है । लिट्टी ने बिना कोई शिकायत किए उसे अपने साथ रख लिया है ।
   हथेलियों में प्याज को दबाकर उसका छिलका उतार ही रहा था कि मंगनू इधर ही आता दिखाई दिया । पास आते ही बोला,ʻआज अकेले ही अकेले...यारी भी और होशियारी भी ! वाह, अँचार की खुश्बू तो गजब ढा रही है...खाए बिना रहना अब तो नामुमकिन है ।ʼ
   ʻखाने से तुझे रोका ही किसने है ? आजा मेरे यार...मिलकर खाने का मजा लेते हैं ।ʼ वह भी चहक उठा था । मंगनू उसका लंगोटिया यार था । बड़े होने पर साथ ही काम करते, साथ ही खाते । दो साल पहले वह दिल्ली चला गया था अपने किसी रिश्तेदार के साथ । तब से यह याराना लगभग टूटा हुआ ही था ।
   मंगनू दुखी होते हुए,ʻयार तुझे देखकर अच्छा नहीं लगा । तू आज भी वही प्याज-लिट्टी...ʼ बोला,ʻमेरी मान, तू शहर चला चल । वहाँ दुगुनी-तिगुनी मजदूरी मिलती है यहाँ से । देखते-ही-देखते कायापलट हो जाएगी ।ʼ
   ʻपर यहाँ का छोड़कर जाना...? ठीक ही मिल जाता है यहाँ भी ।ʼ इसके बाद दोनों में अच्छी-खासी बहस हुई थी । सपने किसे अच्छे नहीं लगते ! अंततः वह यहाँ का छोड़कर जाने को तैयार हो गया था ।
    दिल्ली पहुँचते ही उसे हल्का झटका लगा था । इस वक्त वह एक दड़बे में बैठा हुआ था । कमरा कहना ज्यादती होगी । कमरा अत्यन्त छोटा था और रहने वाले थे बीस । हरेक के हिस्से में बस अपने शरीर के बराबर सोने की जगह । घर छोड़ने पर इतना कष्ट तो उठाना ही पड़ता है, यह सोचकर उसने अपने मन को सांत्वना देने की कोशिश की ।
   अगली सुबह तड़के ही वे एक चौराहे पर आ गए । इतनी सुबह क्यों? उसने पूछा भी था, पर मंगनू मुस्कुराकर रह गया था । चौराहे पर पहले ही अच्छी-खासी भीड़ इकट्ठा हो चुकी थी । किसी की नजर आसमान में कुछ ढूँढ रही थी, तो कोई आती-जाती गाड़ियों को निहार रहा था । सभी ने अपने हाथों में दफ्तियाँ ले रखी थीं । उन पर कुछ लिखा हुआ था । ʻक्या कोई जुलूस निकलने वाला है?ʼ मैंने पूछा ।
   ʻअरे नहीं यार । इन्होंने अपने रेट लिख रखे हैं इन दफ्तियों पर ।ʼ
   ʻमगर रेट किसलिए? यहाँ की मजदूरी तो पहले ही से निर्धारित होगी ।ʼ ʻतू समझा नहीं । यहाँ वैसे नहीं चलता । दफ्ती पर इन लोगों ने अपनी बेस-प्राइस लिख रखी है । बोली लगाने वाले उतने से शुरुआत करेंगे । आगे जितने अधिक पर बोली लग जाए ।ʼ
   ʻमतलब ये लोग अपने को बेचने वाले हैं?ʼ उसकी आँखें फैलती चली गईं । मुँह खुला-का-खुला रह गया ।
   ʻसिर्फ दिन भर के लिए ।ʼ मंगनू ने इत्मीनान से जवाब दिया । उसकी नजर वहाँ आए एक खरीदार पर रेंगती चली गई थी ।
   ʻएक दिन के लिए भी बेचना...यह तो सरासर गलत है ।ʼ कोई जर्जर नैतिकता उसके होठों के कोनों तक घिसटती हुई चली आई थी ।
   ʻबिकना फख्र की बात है आजकल ।ʼ नजरों को उसकी तरफ खींचते हुए कहा मंगनू ने,ʻतूने आईपीएल नहीं सुना । जमकर बोली लगती है वहाँ पर । बिकने वाला ही आज बड़ा कहलाता है । चुपचाप अपनी दफ्ती उठा ले और बिकने को...ʼ अपनी बात अधूरी छोड़ वह एक खरीदार की ओर बढ़ गया था ।
   उसे भी एक कार वाली खरीदकर अपने घर ले आई थी । अभी रंगरोगन समाप्त ही हुआ था उस घर में और सारे सामान घर के सम्पूर्ण अराजक मुद्रा में दिखाई दे रहे थे । उन्हें व्यवस्थित व नियमबद्ध करने के लिए ही उसे लाया गया था । वह तुरंत काम पर लग गया था । दो घंटे तक कोई बाधा उत्पन्न नहीं हुई । इस बीच एक प्याली चाय भी गटकने को मिल गई । यहाँ तो सचमुच ही मजा है भाई-सोचते हुए उसके चेहरे पर मुस्कान-सी पसर गई । मगर यह खुशी क्षणिक ही साबित हुई । गृहस्वामिनी की सखियां आई हुई थीं घर पर और जमकर दावत उड़ाने के बाद वे अब विदा ले रही थीं । तभी उसे सबको सैंडल पहनाने का फरमान जारी हुआ था । एक पल को वह हिचका, फिर इसमें ʻऐसी-वैसी कौन सी बात हैʼ सोचते हुए सैंडल पहनाने लगा । उनके जाने के बाद दावत के सारे जूठे बर्तन उस पर एक साथ पिल पड़े । चलो, घर का ही काम है...मजदूरी तो खरी-खरी बन जाएगी न !
   वह फिर सामानों को व्यवस्थित करने में जुट गया था । दोपहर हो आई थी और उसे भूख भी लग रही थी । दावत की बची भोजन-सामग्री के बारे में सोचते ही मुँह में दरिया-सी बहने लगी । वह कनखियों से देखता, मगर कोई उसे पूछने नहीं आया । आई, तो गृहस्वामिनी की जवान बेटी आई । नुक्कड़ वाले बड़ी-सी दुकान से विदेशी ब्रांड की चॉकलेट लानी थी...तुरंत ।
   चॉकलेट देखते ही उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया । उसने ʻईडियट कहीं काʼ कहते हुए जोरदार तमाचा रसीद कर दिया । दरअसल वह कोई दूसरी चॉकलेट उठा लाया था । गृहस्वामिनी बीच में न पड़ती, तो वह और पिट गया होता । क्षतिपूर्ति के लिए वह तुरंत चिप्स और पापड़ के कुछ टुकड़े एक प्लेट में रखकर ले आई थी । उसने एक टुकड़ा भी मुँह में नहीं डाला । अपमान ने पेट की भूख को पिघला दिया था ।
   शाम होते-होते फिर एक फरमान जारी हुआ था । उसे डॉगी को नाले के पास ले जाना था । उसे बड़े जोर की बैड फीलिंग हो रही थी । यह सुनते ही वह चकराया । आदमी तो आदमी, अब कुत्ते की भी चाकरी?

   रात में वह सोच रहा था । पैसा अधिक है, तो खर्च और अपमान भी अधिक हैं यहाँ । आधी छोड़कर आया था, अब...?   
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