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फिर भी सरकार आ गई है । जनता काहिल और जाहिल इसीलिए कहलाती है, क्योंकि वह
सरकार का आना ताड़ ही नहीं पाती है । ऐसी जनता किस काम की, जो सरकार को ही न देख
सके । मैं उसे ढूँढने लगा । सूखे खेतों में देखा, खाली खलिहानों में देखा । फटी
धरती-सी रूखे और खुरदरे चेहरे वाले लोग ही दिखाई दिए । यहाँ सरकार हरगिज नहीं हो
सकती । हरियाली और सूखे का भला क्या मेल !
मैंने उसे कुओं में झांका,
पोखरों-तालाबों में देखा, नदी-नालों में देखा, हर गहराई में देखा, पर वह दिखाई
नहीं दी । रास्तों-पगडंडियों पर देखा, गलियों-चौबारों में देखा, नुक्कड़ पर देखा,
नाकों-सरहदों पर देखा । अमीर की हवेली में देखा, गरीब की झोपड़ी में देखा । घरों
के कोनों में देखा, भात के दोनों में देखा । चाय की कुल्हड़ और बच्चों की हुल्लड़
में देखा । ताले-तिजोरी में देखा, लोगों की फटी जेबों में देखा । टूटी खटिया व
पलंग पर देखा । हतभाग्य, सरकार कहीं नहीं दिखी ।
राशन की दुकान पर खोजा । वहाँ कुछ
दिखाई दिया । एक आदमी दो दिनों से बच्चों के भूखे होने की दुहाई देकर अनाज मांग
रहा था और दुकानदार उसकी गर्दन में हाथ लगाकर बाहर धकिया रहा था । कुछ आगे सड़क के
एक शानदार गड्ढे में दो-चार लोग गिरे पड़े थे । जरूर वहाँ सरकार होनी चाहिए, तभी
तो लोग खुशी-खुशी उसमें...अफसोस ! चौराहे पर मैंने पूछा, ʻसरकार को तुमने देखा है कहीं?ʼ
‘अभी तो आया था,’ लोगों ने जवाब दिया, ‘चुनाव सिर पर है । अतः कमजोरों के वोटर कार्ड जमा करवा रहा
है...सुरक्षा के लिए ।’ अब इसमें उनकी सुरक्षा है या नेता की...सरकार ही जाने ! ( दरअसल यह सरकार इलाके के खुर्राट नेता का खास आदमी है ।)
सचमुच सरकार लापता हो गई है । जो खुद लापता हो,
वह अपना पता भला किस तरह बता सकती है । इसके बावजूद वह बता रही है, तो सच ही बता
रही होगी । सरकार सच ही बोलती है । सच तो सच होता ही है, उसका झूठ भी सच ही माना
जाता है । पर आम जनता के लिए दिक्कत यह है कि वह सरकार को अपनी दुनियावी आँखों से
नहीं देख पा रही है । अतः सरकार उसके लिए लापता ही हुई न ! भैंस लापता हुई थी, तो पुलिस और प्रशासन ने उसकी तलाश में रात-दिन एक कर
दिया था । तभी नासमझ जनता को यह भी पता चला था कि पुलिस कितनी कर्मठ चीज होती है ।
पर आज सरकार को ढूँढने के लिए कोई आगे नहीं आया, एकदम शांति छाई हुई है ।...आखिर
इतना सन्नाटा क्यों है भाई !
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