जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

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शनिवार, 4 जून 2016

आधी छोड़ सारी को धावे

              
   दोपहर हो आई थी, अतः काम बंद हो गया था । भीषण गर्मी में दो-तीन घंटे का ब्रेक स्वाभाविक ही था । उसके बाद देर शाम तक काम । आठ घंटे पूरे जो करने होते थे । काम लेने वाला इतना दयालु नहीं होता कि आधे काम के पूरे पैसे दे दे । इस ब्रेक में खाने-पीने के बाद सुस्ताने को पर्याप्त समय मिल जाता था । उसने अपनी पोटली खोल ली थी । मोटी-मोटी लिटि्टयों के साथ प्याज भी संगत देने को तैयार था । लिट्टी और प्याज की जुगलबंदी हमेशा से मधुर राग छेड़ती रही है गरीब के आँगन में, पर इधर प्याज बहुत भाव खाने लगा है । वह रह-रहकर जुगलबंदी को तोड़ दे रहा है । इस साल उसे ऐसी पटकनी मिली है कि अभी तक मुँह के बल गिरा धूल फाँक रहा है । लिट्टी ने बिना कोई शिकायत किए उसे अपने साथ रख लिया है ।
   हथेलियों में प्याज को दबाकर उसका छिलका उतार ही रहा था कि मंगनू इधर ही आता दिखाई दिया । पास आते ही बोला,ʻआज अकेले ही अकेले...यारी भी और होशियारी भी ! वाह, अँचार की खुश्बू तो गजब ढा रही है...खाए बिना रहना अब तो नामुमकिन है ।ʼ
   ʻखाने से तुझे रोका ही किसने है ? आजा मेरे यार...मिलकर खाने का मजा लेते हैं ।ʼ वह भी चहक उठा था । मंगनू उसका लंगोटिया यार था । बड़े होने पर साथ ही काम करते, साथ ही खाते । दो साल पहले वह दिल्ली चला गया था अपने किसी रिश्तेदार के साथ । तब से यह याराना लगभग टूटा हुआ ही था ।
   मंगनू दुखी होते हुए,ʻयार तुझे देखकर अच्छा नहीं लगा । तू आज भी वही प्याज-लिट्टी...ʼ बोला,ʻमेरी मान, तू शहर चला चल । वहाँ दुगुनी-तिगुनी मजदूरी मिलती है यहाँ से । देखते-ही-देखते कायापलट हो जाएगी ।ʼ
   ʻपर यहाँ का छोड़कर जाना...? ठीक ही मिल जाता है यहाँ भी ।ʼ इसके बाद दोनों में अच्छी-खासी बहस हुई थी । सपने किसे अच्छे नहीं लगते ! अंततः वह यहाँ का छोड़कर जाने को तैयार हो गया था ।
    दिल्ली पहुँचते ही उसे हल्का झटका लगा था । इस वक्त वह एक दड़बे में बैठा हुआ था । कमरा कहना ज्यादती होगी । कमरा अत्यन्त छोटा था और रहने वाले थे बीस । हरेक के हिस्से में बस अपने शरीर के बराबर सोने की जगह । घर छोड़ने पर इतना कष्ट तो उठाना ही पड़ता है, यह सोचकर उसने अपने मन को सांत्वना देने की कोशिश की ।
   अगली सुबह तड़के ही वे एक चौराहे पर आ गए । इतनी सुबह क्यों? उसने पूछा भी था, पर मंगनू मुस्कुराकर रह गया था । चौराहे पर पहले ही अच्छी-खासी भीड़ इकट्ठा हो चुकी थी । किसी की नजर आसमान में कुछ ढूँढ रही थी, तो कोई आती-जाती गाड़ियों को निहार रहा था । सभी ने अपने हाथों में दफ्तियाँ ले रखी थीं । उन पर कुछ लिखा हुआ था । ʻक्या कोई जुलूस निकलने वाला है?ʼ मैंने पूछा ।
   ʻअरे नहीं यार । इन्होंने अपने रेट लिख रखे हैं इन दफ्तियों पर ।ʼ
   ʻमगर रेट किसलिए? यहाँ की मजदूरी तो पहले ही से निर्धारित होगी ।ʼ ʻतू समझा नहीं । यहाँ वैसे नहीं चलता । दफ्ती पर इन लोगों ने अपनी बेस-प्राइस लिख रखी है । बोली लगाने वाले उतने से शुरुआत करेंगे । आगे जितने अधिक पर बोली लग जाए ।ʼ
   ʻमतलब ये लोग अपने को बेचने वाले हैं?ʼ उसकी आँखें फैलती चली गईं । मुँह खुला-का-खुला रह गया ।
   ʻसिर्फ दिन भर के लिए ।ʼ मंगनू ने इत्मीनान से जवाब दिया । उसकी नजर वहाँ आए एक खरीदार पर रेंगती चली गई थी ।
   ʻएक दिन के लिए भी बेचना...यह तो सरासर गलत है ।ʼ कोई जर्जर नैतिकता उसके होठों के कोनों तक घिसटती हुई चली आई थी ।
   ʻबिकना फख्र की बात है आजकल ।ʼ नजरों को उसकी तरफ खींचते हुए कहा मंगनू ने,ʻतूने आईपीएल नहीं सुना । जमकर बोली लगती है वहाँ पर । बिकने वाला ही आज बड़ा कहलाता है । चुपचाप अपनी दफ्ती उठा ले और बिकने को...ʼ अपनी बात अधूरी छोड़ वह एक खरीदार की ओर बढ़ गया था ।
   उसे भी एक कार वाली खरीदकर अपने घर ले आई थी । अभी रंगरोगन समाप्त ही हुआ था उस घर में और सारे सामान घर के सम्पूर्ण अराजक मुद्रा में दिखाई दे रहे थे । उन्हें व्यवस्थित व नियमबद्ध करने के लिए ही उसे लाया गया था । वह तुरंत काम पर लग गया था । दो घंटे तक कोई बाधा उत्पन्न नहीं हुई । इस बीच एक प्याली चाय भी गटकने को मिल गई । यहाँ तो सचमुच ही मजा है भाई-सोचते हुए उसके चेहरे पर मुस्कान-सी पसर गई । मगर यह खुशी क्षणिक ही साबित हुई । गृहस्वामिनी की सखियां आई हुई थीं घर पर और जमकर दावत उड़ाने के बाद वे अब विदा ले रही थीं । तभी उसे सबको सैंडल पहनाने का फरमान जारी हुआ था । एक पल को वह हिचका, फिर इसमें ʻऐसी-वैसी कौन सी बात हैʼ सोचते हुए सैंडल पहनाने लगा । उनके जाने के बाद दावत के सारे जूठे बर्तन उस पर एक साथ पिल पड़े । चलो, घर का ही काम है...मजदूरी तो खरी-खरी बन जाएगी न !
   वह फिर सामानों को व्यवस्थित करने में जुट गया था । दोपहर हो आई थी और उसे भूख भी लग रही थी । दावत की बची भोजन-सामग्री के बारे में सोचते ही मुँह में दरिया-सी बहने लगी । वह कनखियों से देखता, मगर कोई उसे पूछने नहीं आया । आई, तो गृहस्वामिनी की जवान बेटी आई । नुक्कड़ वाले बड़ी-सी दुकान से विदेशी ब्रांड की चॉकलेट लानी थी...तुरंत ।
   चॉकलेट देखते ही उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया । उसने ʻईडियट कहीं काʼ कहते हुए जोरदार तमाचा रसीद कर दिया । दरअसल वह कोई दूसरी चॉकलेट उठा लाया था । गृहस्वामिनी बीच में न पड़ती, तो वह और पिट गया होता । क्षतिपूर्ति के लिए वह तुरंत चिप्स और पापड़ के कुछ टुकड़े एक प्लेट में रखकर ले आई थी । उसने एक टुकड़ा भी मुँह में नहीं डाला । अपमान ने पेट की भूख को पिघला दिया था ।
   शाम होते-होते फिर एक फरमान जारी हुआ था । उसे डॉगी को नाले के पास ले जाना था । उसे बड़े जोर की बैड फीलिंग हो रही थी । यह सुनते ही वह चकराया । आदमी तो आदमी, अब कुत्ते की भी चाकरी?

   रात में वह सोच रहा था । पैसा अधिक है, तो खर्च और अपमान भी अधिक हैं यहाँ । आधी छोड़कर आया था, अब...?   

मंगलवार, 31 मई 2016

चुनावी पीड़ा और ऑपरेशन राजतिलक

             
   राजमाता लोमड़ी इस वक्त अपने सिंहासन से चिपक कर बैठी हुई हैं । दोनों हाथ उसे कसकर पकड़े हुए हैं । हालांकि सिंहासन के छिन जाने का कोई डर नहीं है । जो भी हैं दल में, वे सब दास हैं मन, वचन और कर्म से । उनकी वाणी देववाणी है और उनके संग बैठने का अवसर किसी महा-सत्संग के बराबर है । उनकी टेढ़ी भृकुटि किसी भी अंदरूनी विवाद रुपी मेढक को खा जाने के लिए साँप के समान है । कहने की जरूरत नहीं कि उनके दल में बल है, अर्थात गजब की एकता है । बीच-बीच में दादुर, चातक, पपीहे बोलते रहते हैं, पर कुल मिलाकर एकता का साम्राज्य है । खुशी की इस बात के बीच चिंता की बात ये है कि उनका वास्तविक साम्राज्य सिकुड़ रहा है । चुनावों ने नाक में दम कर रखा है । हर चुनाव में जमीन खिसक जा रही है । उधर जमीन खिसकती है, इधर दल के दादुर प्राण-रक्षा के लिए टर्राने लगते हैं...यज्ञ, आहुति, ऑपरेशन, सर्जरी की बातें करने लगते हैं ।
   दरबारी दासों का मन रखने के लिए ही इस खास सभा का आयोजन किया गया है । न केवल उत्तम कोटि के दरबारी उपस्थित हैं, बल्कि स्वयं युवराज और भूतपूर्व प्रधानमंत्री भेड़ भी दरबार की शोभा को चार-चाँद लगा रहे हैं । कुर्ते की आस्तीनों को बार-बार चढ़ा-चढ़ाके युवराज अपनी विशेष पहचान को रूपायित कर रहे हैं । पूर्व प्रधानमंत्री मौन की माला फेरने में व्यस्त हैं ।
   तभी राजमाता की कठोर और कर्कश आवाज गूँजती है-कुछ वन-क्षेत्रों में हमें हाल के दिनों में विफलता का सामना करना पड़ा है, जिससे हमारे सेवक हतोत्साह की मुद्रा में हैं । उनके मन में शक का कीड़ा कुलबुलाने लगा है कि अब हमारा साम्राज्य विस्तार को प्राप्त नहीं होगा । मैं उनसे कहना चाहती हूँ कि यह विफलता बहुत दिनों तक नहीं चलने वाली...शास्त्रों में भी यही लिखा है । आप सब हमारे साथ यह मंत्र पाँच बार दोहराइए ।
   पूरा दरबार मंत्र की ध्वनि से गूँज उठता है । दरबारियों में अजब चेतना व गजब उर्जा का समावेश हो जाता है । इस उर्जा से लबरेज एक राज्य-पोषित सांड उठ खड़ा होता है । उसकी विशेषता है कि वह दूसरे के खेतों में मुँह मारने का उस्ताद है । कोई और खेत दिखाई नहीं पड़ता, तो वह अपने ही खेत में मुँह मारकर जुगाली करने लगता है । इस वक्त उसके मुँह में अपने ही खेत की सूखी घास भरी हुई है । वह राजमाता की ओर सिर झुकाते हुए कहता है-माते, आज आपको कठोर निर्णय लेना ही होगा । दरबार में बहुत सारे सफेद हाथी हो गए हैं, जिनका भार दल पर शत्रु की मार की तरह पड़ रहा है । इन्हें अब संन्यास में भेज देना चाहिए ।
   बहुत अच्छा सुझाव है आपका, पर ये हाथी हमारे दरबार की शोभा हैं । इनकी बदौलत ही हमारा दरबार दीर्घायु को प्राप्त हुआ है । दरबार चलता रहे, इसके लिए हमेशा ऐसे दरबारियों की जरूरत होती है । संन्यास में चले जाने पर ये हमारा गुण-गान कैसे करेंगे?
   राजमाता के इतना कहते ही पूरा दरबार तालियों की गूँज से भर उठता है । सभी राजमाता की महाअक्ली की प्रशंसा करने लगते हैं ।
   पर राजमाता, चुनावों में निरन्तर हार एक सच्चाई है । हार का फोड़ा नासूर भी बन सकता है । सांड एक बार फिर खड़ा हो गया है । लोकतंत्र की मर्यादा का ध्यान रखते हुए उसकी आवाज और विनम्र हो गई है । उसकी नजरें जमीन में गड़ी जा रही हैं । राजमाता की आँखों में आँखें डालकर वह लोकतंत्र के हनन की हिमाकत नहीं कर सकता ।
   लोकतंत्र और अपने प्रति उसकी निष्ठा देखकर राजमाता गद्गद् हो उठती हैं । वे ऐलान करती हैं-ऑपरेशन होगा और बहुत बड़ा ऑपरेशन होगा । आप सब की इच्छाओं का असम्मान हम नहीं करेंगे । अभी तक छोटे-मोटे ऑपरेशन होते रहे हैं, पर इस बार सचमुच बड़ा होगा...इतना बड़ा कि शत्रु की बोलती बंद हो जाए ।
   सारे दरबार में खुसर-पुसर होने लगती है । राजमाता जो भी करेंगी, अच्छा करेंगी । दल को आगे ले जाने का सवाल जो ठहरा । उनका इशारा पाते ही सेवक दौड़ लगाते हैं । तत्क्षण पंडित उपस्थित हो जाते हैं । राजतिलक की सारी सामग्री पलक मारने की देरी में दिखाई देने लगती है । दरबारी सारी बात समझते ही खुशी के अतिरेक में गधे की तरह लोट-पोट होने लगते हैं ।

   सिंहासन लाया जाता है । पंडित मंत्रोच्चार से दरबार को फाड़ने लगते हैं । राजमाता युवराज को सिंहासन पर आसीन होने का इशारा करती हैं । युवराज आगे बढ़ते हैं, किन्तु सिंहासन पीछे खिसक जाता है । वे और आगे बढ़ते हैं, वह और पीछे खिसक लेता है । तभी लपककर दरबारी सिंहासन की टांगें पकड़ लेते हैं और खींचा-खिंची शुरु हो जाती है । इस धक्कमपेल में युवराज पीछे धकेल दिए जाते हैं, पर ऑपरेशन राजतिलक चलता रहता है । 

शुक्रवार, 27 मई 2016

सादा बनाम रंगीन पानी और सरकारी वरदहस्त


           
   इधर का इलाका एकदम चकाचक है । किसी और इलाके में सूखे का कोप भले ही बरस रहा हो, इधर तो होप-ही-होप है । प्रकृति तनिक रूठती है, तो नेतागण इतने घड़ियाली आँसू गिराते हैं कि भरपाई हो जाती है । उनकी संवेदनशीलता पानी के लिए बहुत अधिक है । पानी की उपलब्धता दो तरह की है इधर । सादा पानी, जो अब ज्यादातर हैंडपंपों से ही निकलता है तथा रंगीन पानी, जो गन्नों को निचोड़कर फैक्टरियों में बनाया जाता है । सादा पानी कम हो, तो चलता है, पर रंगीन पानी के प्रवाह में बाधा नेताओं की संवेदना को निचोड़ने लगती है ।
   किसी भी जगह हाट-बाजार का विकास करना हो, तो सबसे पहले एक रंगीन पानी की दुकान खोल दीजिए । देखते-देखते चना-चबेना, चाट, पकौड़े-समोसे, भेलपूरी-पानीपूरी तथा अनगिनत प्रकार की नमकीनों की दुकानें खुल जाएंगी । इस बढ़ते सह-अस्तित्व व भाईचारे को और बढ़ाने के लिए बगल में सरकार तुरंत एक पुलिस चौकी को ला बिठाएगी । इस तरह बाजार के बनने में देर नहीं लगती । सादा पानी ऐसा कमाल करने में सर्वथा अक्षम है । चूँकि इधर बाजारों की संख्या कमाल की है, अतः रंगीन पानी की आपूर्ति भी कमाल की है ।
   आपूर्ति की अधिकता निर्यात के रास्ते खोलती है । प्राकृतिक या कृत्रिम प्रयास से सूखे इलाके व्यापार की असीम संभावनाओं को जन्म देते हैं । बौद्ध-इलाका अहिंसा के लिए रंगीन पानी पर रोक लगाता है और इधर का अ-बौद्ध इलाका उनके प्रयास की प्रशंसा में उधर जमकर पानी भेजता है । रंगीन पानी पर कोई आँच न आवे, इसके लिए सरकार एक टांग पर खड़ी रहती है । आखिर गन्ना-किसानों का महाकल्याण जो ठहरा ! किसानों के हित में रंगीन पानी का निर्माण होना ही चाहिए ।
   सरकार ने फैसला किया है कि रंगीन पानी की आपूर्ति अबाध गति से बनी रहेगी । अपने नाम के अनुरूप उत्तमता को बनाए रखने के लिए पानी तो होना ही चाहिए । रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून-इसलिए पानी को बनाकर रखा जा रहा है । वैसे भी अपना ही एक हिस्सा भयंकर सूखे की चपेट में है । सादा न सही, रंगीन पानी तो उन्हें उपलब्ध होगा ।

   पता नहीं क्यों, कुछ नकचढ़े लोग कह रहे हैं कि सरकार की आँखों का पानी कम हो रहा है । जबकि हकीकत यह है कि घड़ियाली आँसुओं से सारे सूखे पोखर-तालाब लबालब भरे पड़े हैं । शायद इसकी एक वजह यह हो सकती है कि वह अब आजाद नहीं रहा । आँखों में कम पानी दिखाई दे रहा है, क्योंकि वह तेजी से बोतलों में कैद होता जा रहा है ।

शुक्रवार, 20 मई 2016

अंधेरा कहाँ है आखिर

                            
   आज उसका मन काम में नहीं लग रहा था । तीन बार पानी पीने के बहाने तथा सात बार लघु शंका की टीस के उद्दाम वेग को इशारों में बताकर खेत से बाहर जा चुका था । सहकर्मी मजदूर भी अचंभे में थे...हो क्या रहा है आखिर । पहले तो कभी ऐसा न हुआ था । एक बार काम में जुट गया...तो जुट गया । न पानी पीने का होश, न खाने की चिंता । न पड़ोसी की पड़ोसी-गिरी की चर्चा, न गाँव की राजनीति पर बतकूचन । न अपने दुख-दर्द की रटन्त, न औरों की सुख-संपत्ति से कोई भिड़न्त । उसके पास इतना कैसे हो गया...क्यों हो गया-इन जैसे मसलों से एक आम आदमी अपने स्वभाव के वशीभूत हो अक्सर भिड़ता रहता है ।
   कुछ सहकर्मी तो उसे कोल्हू का बैल भी पुकारा करते थे । कोल्हू का बैल जुतने के बाद न इधर देखता है, न उधर । काम खत्म करने के बाद ही उसे सांस लेने की फुरसत मिलती है । चूँकि इन सब बातों से उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता था, अतः सहकर्मियों का रसरंजन बिना विघ्न-बाधा के जारी रहता था । ठीक काम न करने पर, हो सकता है, किसी को आलोचना के अंगारे झेलने पड़ें, पर ठीक काम करने की सूरत में उपहास की उलूक हँसी-ठट्ठों से दो-चार होने की गारन्टी है ।
   भूस्वामी के आगमन की आहट पाते ही मजदूर अनुशासित हो गए थे फौजियों की तरह । लगाम लगने पर ही घोड़ा इच्छित दिशा में दौड़ता है । कुछ मनुष्य अपनी विवेकशीलता का परिचय देते हुए घोड़े से यह गुण उधार में ले लेते हैं । उधर उसपर कोई फर्क नहीं पड़ा था । वह खेत की मेड़ पर इस तरह बैठ गया, जैसे बहुत थक गया हो । भूस्वामी की बुलेट की गति से दौड़ती नजर उससे जा टकराई थी । दुर्घटना का घटित होना स्वाभाविक ही था । समय के अनुसार कम काम के गुस्से का गुब्बारा उसी पर फूट पड़ा ।
   बरसना जब बंद हुआ, तब भूस्वामी की निगाह उसके चेहरे पर थम-सी गई । पूरा चेहरा सराबोर था आँसुओं से । उसे इस तरह भीगे देखकर उन्हें कुछ अपराध-बोध सा हुआ था । बरसने के बाद की शांति मन पर पसरती चली गई थी । आज तक उससे कोई शिकायत नहीं हुई थी । उसके निढाल बैठने के पीछे कोई और कारण तो नहीं । क्या बात है...तुम्हारी तबियत तो ठीक है?
   कोई जवाब नहीं दिया था उसने । ये आँसू ही थे, जो अब भी कुछ कहे जा रहे थे अपनी भाषा में । बार-बार और हठात् पूछने पर उसके धीरज का बर्फ हरहराकर पिघल गया । ठाठें मारकर वह रोने लगा । यह दृश्य भूस्वामी को अच्छा न लगा । वह तनिक उग्र होते हुए बोले-बताएगा भी कि क्या हुआ है तेरे साथ...या यूँ ही बच्चों की तरह मूर्खता करता रहेगा ।
   मालिक, मेरा लड़का बीमार है । उसकी दशा दिनोंदिन खराब होती जा रही है ।
   और तू यहाँ मरने आ गया है...तुझे तो उसका ऑपरेशन कब का करवा देना चाहिए था ।
   पैसे का जुगाड़ नहीं हो पाया । आप ही कुछ दे देते मालिक ।
   यह सुनते ही भूस्वामी उस पर ऐसे चढ़ बैठा, जैसे लाल रंग देखकर भैंसा चढ़ बैठता है । तुम लोगों को तो मांगने का बहाना मिलना चाहिए । पैसे कोई पेड़ पर नहीं फलते । भीख मांगने का इतना ही शौक है, तो किसी चौराहे पर क्यों नहीं बैठ जाते...कटोरा लेकर ।
   उसे चोट लगनी ही थी इन कटु शब्दों से, किन्तु उसके दिल ने महसूस ही नहीं किया ऐसा कुछ । अपने लिए भिखारी शब्द पहली बार नहीं सुन रहा था । कदम बोझिल कदमों से घर की ओर बढ़ रहे थे । उधर वे दृश्य फर्राटा भरने लगे थे ।
   पन्द्रह दिनों तक जिला अस्पताल में रखने के बाद डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था । कुछ पैसे जुगाड़कर लड़के को बड़े शहर में ले आया था । जीवन की उम्मीद तो वहाँ के डॉक्टरों ने बँधाई थी, किन्तु पैसे की उम्मीद को उन लोगों ने उस पर डाल दिया था । ऑपरेशन के लिए पाँच लाख रूपयों की दरकार थी । अड़ोसी-पड़ोसी, नाते-रिश्तेदार, गाँव-गिराँव, अपना-पराया-किसके दर पर मत्था नहीं टेका, किसके आगे झोली नहीं फैलाई । किसी को वह अनाड़ी पाकिटमार लगा, तो किसी को अघोषित भिखारी । अनाड़ी पाकिटमार के कुछ हाथ नहीं लगता और भीख लेने के लिए भिखारीपना भी आना चाहिए । स्किल इंडिया में यह स्किल जितना एक नेता के पास है, उतना किसी बड़े शहर के चौराहे पर कटोरा लेकर बैठे भिखारी में भी नहीं ।
   उसे उस दिन पता नहीं क्या सूझी कि इलाके के तमाम नेताओं की चरणगुहारी करने चला गया । जहाँ तमाम अड़ोसी-पड़ोसी, नाते-रिश्तेदार कठोरता की चट्टान निकले थे, वहाँ नेता दया का दरिया साबित हुए । उधर से झोली खाली चली आई थी, किन्तु इधर आकर वह लबालब भर गई । आश्वासनों के मोती झोली में इतने ठँस गए कि गिरने लगे थे ।
   तभी बाहर कोई शोर उठा था । उसके दृश्य-प्रवाह में अचानक विराम लग गया । सामने से एक हुजूम चला आ रहा था । मंत्री व इलाके का बड़ा नेता उनके आगे-आगे चल रहा था । निकट आने पर पता चला कि वह दान मांग रहा है । वह अपने पिताजी की एक रिकार्ड-तोड़ ऊँचाई वाली प्रतिमा लगवाना चाहता था । इस नेक काम के लिए जनता से बेहतर दानदाता भला और कौन हो सकता था । जनता ने भी मायूस नहीं किया था । सभी बढ़-चढ़कर रूपये फेंक रहे थे, ताकि नेता की निगाह में चढ़ सकें । भूस्वामी भी एक बड़ी-सी पोटली के साथ आगे आया था और नेता के साथ अपनी सेल्फी ले रहा था ।

   शाम होते-होते नेता की बड़ी-सी गाड़ी नोटों से ठसाठस भर गई । कृतज्ञ नेता हुआ था या जनता कृतज्ञ हुई थी, इसे रात के गहराते जा रहे अंधेरे में कोई देख नहीं सका था । उधर लड़के की तबियत बिगड़ती चली गई थी । आसमान के काले बादल और चमकती बिजली आज कुछ ज्यादा ही डरा रहे थे । अचानक एक तेज बिजली कड़की और इधर घर का दिया बुझ गया । दूर से किसी कुत्ते के रोने की आवाज सुनाई पड़ने लगी थी । वह बाहर निकलकर अंधेरे को पकड़ने की कोशिश में बेतहाशा दौड़ता चला गया था ।

मंगलवार, 10 मई 2016

स्वप्न-राग की पावन बेला

                

   दरबार-ए-खास में आज काफी गहमागहमी है । महाराज सियार उन्नींदी अवस्था में अवश्य हैं, पर चेहरे पर सम्पूर्ण जोश का जाम बिखरा हुआ है । दरबार में सभी बड़भागी और बड़बोले मंत्री उपस्थित हैं । चुनाव रुपी वसन्त का आगमन होने वाला है । वह अपने लिए खुशियाँ अपार लेकर आए, इसके लिए महाराज की इच्छा है कि उसे प्रसन्न करने के लिए स्वप्न-राग का महोत्सव आयोजित किया जाए । वसन्त-आगमन की पूर्व-संध्या से अच्छी बेला भला और क्या हो सकती है ।
   स्वप्न-राग का विचार आपके मन में आया भी कैसे महाराज ?’-प्रधानमंत्री शेर से जानने की उत्सुकता रोके नहीं रुकती ।
   ‘स्वप्न-राग बड़े काम की चीज होती है’, महाराज प्रमुदित हो जवाब देते हैं-‘स्वप्न-राग छिड़ने पर भोली-भाली जनता स्वप्न के मायालोक में विचरण करने लगती है । इस स्थिति में उसे वही दिखता है, जो उसे दिखाया जाता है ।’
   ‘पर हुजूर, अखबार में विज्ञापनों पर इतना खर्च क्यों ?’ इस बार नगाड़ा मंत्री की आवाज गूँजती है ।
   नगाड़े की तरह आप बस बजना जानते हैं मंत्री जी, महाराज तनिक उखड़ते हुए कहते हैं-‘क्या आप इतना भी नहीं जानते कि अखबारी विज्ञापन उस मायालोक को रचने में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं ?’
   ‘गुस्ताखी माफ हो हुजूर ।’ तभी एक कोने में खड़ा खबरी खरगोश घुटने तक झुकते हुए बोलता है,‘सच्ची खबर है कि राज्य के गरीबों के पेट खाली हैं । भूख क्या उन्हें सपनों में उतरने देगी ?’
   ‘भूख ही तो सपनों के लिए विवश करती है । वैसे भी गरीबों का पेट भरा, किसने देखा ! पर अखबारों के भरे हुए पेट सभी देखते हैं । हमने जो किया, अच्छी तरह उसे हम भी नहीं जानते । जो नहीं किया, उसे जनता किया हुआ माने- इसी के लिए स्वप्न-राग की झंकृत प्रस्तुति की दरकार होती है ।’
   पर इस सम्पूर्ण महोत्सव के लिए पैसे की व्यवस्था...?’ खबरी खरगोश डरते-डरते पूछता है ।
   खबरी, इतने सालों से राज-दरबार से जुड़े होने के बावजूद तुम्हारी बुद्धि छोटी-की-छोटी बनी रही । राजकोष मतलब राजा का कोष । उस पर राजा का ही सम्पूर्ण अधिकार है ।’ इस बार प्रधानमंत्री डपटते हुए जवाब देते हैं खबरी खरगोश को ।
  ‘वैसे भी लैफई महोत्सव हर साल हम जनता के लिए ही करते हैं । स्वप्न-लोक से कलाकार बुलाए ही इसलिए जाते हैं, ताकि जनता को सपना दिखाया जा सके । क्या तुमने वहाँ पानी की तरह पैसे को बहते हुए नहीं देखा ।’ यह तथ्य सामने रखकर नगाड़ा मंत्री महाराज की तरफ देखते हैं ।

   इसके बाद गंभीर मंथन होता है । सभी को समुचित जिम्मेदारी सौंपकर महाराज रूखसत होते हैं ।

शुक्रवार, 6 मई 2016

सूखे खेत और झमाझम बरसते विज्ञापन

            

  महाराज सियार सत्ता की गद्दी पर काबिज होने के पाँचवें वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं । जनता भी अपनी मूर्खता, बेबसी और आँसुओं की उपलब्धि की पाँचवीं वर्षगांठ खुशी-खुशी मनाने के लिए शाप-ग्रस्त है या वरदान-प्राप्त-यह राज उसके सिवा कोई नहीं जानता । वैसे इस वर्ष में प्रवेश करते ही घाघों के घाघ जो होते हैं, उनके भी पसीने छूटने लगते हैं, आँखों की नींद उड़ जाती है । चार साल से मलाई-काटा बदन अचानक सूखकर काँटा होने लगता है और मन दुख की दरिया में जा गिरता है । पर महाराज सियार भरपूर सुखनिद्रा के आगोश में हैं । उनके लकड़बग्घों ने इन सालों में खूब काम किया है । जनता की अपार वाहवाही लूटी है-लड़की से लेकर नोट-वोट की लूट तक के लिए । सभी को भरमाने से लेकर हड़काने का अभियान अथक चलता रहा है ।
   उनके योग्य मंत्रियों ने उन्हें सलाह दी है कि कुछ ऐसा लगातार करते रहा जाए, जिससे जनता को सब कुछ हरा-ही-हरा दिखाई दे । गाए अपने मियां मल्हार वाले दादुर-रटन्त से उनके कान बहरे कर दिए जाएं तथा हरी-हरी, रसभरी विकास की गगरी दिखा-दिखाकर हरा-हरा सत्ता का चश्मा पहना दिया जाए । वैसे भी सूखे के मारों को सपना भी हरा-हरा ही दिखाई देता है ।
   सत्ता में पुन: आने का जाप महाराज सियार और उनके मंत्री अभी शुरू करते ही हैं कि तभी खबरी खरगोश दनदनाता हुआ दरबार में प्रवेश करता है और घुटनों तक झुकते हुए- महाराज की जय हो । हुजूर, पूरा धुंधेलखण्ड का इलाका जबर्दस्त सूखे की चपेट में है । जनता पानी को तरस रही है और आपको कोस रही है ।
   नगाड़ा मंत्री, आपका विभाग कर क्या रहा है ? नगाड़े क्यों नहीं बजे अभी तक उन इलाकों में  ? महाराज की भौंहें तन जाती हैं
   महाराज, नगाड़े तो बहुत पहले से बज रहे हैं । विज्ञापनों की राहत सामग्री भी भेज दी गई है । अब तक तो कई खेपें पहुँच चुकी होंगी वहाँ ।
   विज्ञापन और राहत सामग्री ! मैं कुछ समझा नहीं ।-खबरी खरगोश आश्चर्य में पड़ जाता है ।
   हमने बताया है विज्ञापनों में कि सैकड़ों नहरें निकाली गई हैं, हजारों तालाब खोदे गये हैं, मुफ्त बिजली दी गई है किसानें को । सरकार ने क्या नहीं किया है उनके लिए ।
   पर असल में ये सब चीजें कहाँ हैं ?
   जनता को जमीन पर दिखाई नहीं देता, इसीलिए हम विज्ञापनों में उसे दिखा रहे हैं । महाराज अत्यन्त कोमलता से जवाब देते हैं ।
   साथ ही इनमें पसरी हरियाली उनके सूखे मन को राहत प्रदान करेगी ।-कहते हुए नगाड़ा मंत्री सचमुच राहत की अनुभूति करते हैं ।

   खबरी खरगोश नहीं समझ पाता कि आखिर राहत की अनुभूति उसे क्यों नहीं हुई, पर अगली खबर के लिए वह बाहर निकल जाता है । 

मंगलवार, 3 मई 2016

सूखे में भी बरसात का फील-गुड


             

   इस वक्त देश के कई हिस्सों में सूखे की स्थिति है । उस राज्य में भी सूखा मुँह बाए खड़ा है । इधर के सूखे को किसी बरसात का इंतजार है । उधर के सूखे के लिए बरसात कोई सांत्वना लेकर नहीं आती । मतलब उसका गला तर करने के लिए बरसात बेमानी है । इधर का सूखा मौसम की बेईमानी का फल है । उधर का सूखा सरकार की ईमानदारी का ईनाम है । एक को मौसम की नजर लग गई है, तो उस वाले को सरकार की नजर । नजर भले ही इसका-उसका लगा हो, मगर पीड़ित दोनों तरफ समान हैं ।
   इधर का सूखा तो राम-भरोसे है । इसे राम के भरोसे ही छोड़ते हैं । हमारी चिंता तो उधर के सूखे को लेकर अधिक है । सरकार ने कृत्रिम सूखा उत्पन्न कर दिया है । वह कोई मौसम तो नहीं, जो प्राकृतिक सूखा पैदा करे । वह पीड़ित-जनों के धैर्य और उनके बटुवे की गहराई की थाह लेना चाह रही है । साथ ही उनकी कर्मठता, जुझारुपन और जुगाड़ की प्रवृत्ति की भी परीक्षा होनी है । सूखे की मार झेलने के लिए पीठ में दम होना चाहिए । मरियल कोई इसीलिए बनता है, क्योंकि उसमें ये सारे गुण नहीं होते । गला तर करने में तो बड़े-बड़ों के पसीने छूट जाते हैं ।
   जब वहाँ अति-वृष्टि हो रही थी, तो अड़ोसी-पड़ोसी काफी हैरान-परेशान थे । उधर की बाढ़ अतिक्रमण करते हुए इधर आ जाती थी । सामान्य-जन से लेकर सरकार तक, पैसे से लेकर प्रतिष्ठा तक डूबने-उतराने लगते थे । बाढ़ के साथ गाद भी आती थी, जो इधर की लहलहाने की हसरत सँजोते फसलों को दबाकर मार डालती थी । पर इतने के अलावा अनगिनत प्रमुदित जन भी थे, जिनका गला मानो तरावट का तालाब बन जाया करता था । एक से बढ़कर एक तरावट के तराने-खजाने । गले को तर तो तब करने की तरकीब लगानी पड़ती है, जब सूखे की सवारी सीना ठोंककर निकल पड़ती है ।

   अब उधर अनावृष्टि का सामना है । अ़ड़ोसियों-पड़ोसियों के यहाँ खुशी के कई द्वीप पनपने लगे हैं । इधर का गुणवत्ताहीन और त्याज्य जल भी उनके लिए तपते रेगिस्तान में टपकते अमृत-बूँदों के समान है । वे गला तर करना चाहते हैं । उनका सूखा इनके सुख में बदल रहा है । वैसे सूखा हर किसी के लिए नुकसानदेह नहीं होता । सूखे में भी बहुत से लोगों को बरसात का ही फील होता है ।

मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

वे हमें, हम उन्हें पीटते हैं

                  
   रेत की तरह समय के हाथ से निकल जाने के बावजूद महाराज सियार आज विशेष प्रसन्न हैं । पूरे राज्य से मंत्रियों के माध्यम से आह्लादकारी और जोश भरने वाली खबरें आ रही हैं । समाजवाद ने हर जगह अपने खूँटे गाड़ दिए हैं और बाकी सभी वादों की खटिया खड़ी हो गई है । जहाँ देखिए समाजवाद की घनी छाया, जहाँ देखिए समाजवादी फल । विधवा पेंशन सधवा पा रही है, विधवा भी । वृद्धावस्था पेंशन मृतक पा रहे हैं और इनकी कृपा से जीवित वृद्ध भी । कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थी मंत्री और उनके परिजन बनते हैं तथा सामान्य जन भी । अन्त्योदय तथा गरीबी रेखा से नीचे का लाभ पैसे वालों को मिलता है और ठनठन गोपालों को भी । राशन की राहत बड़े अफसरों को मिलती है और खाली पेट वालों को भी । इनमें पहले आने वालों के लिए लाभों की गारन्टी है, बाद में आने वालों के लिए वैकल्पिक ।
   महाराज के सामने खबरों की खीर अभी परोसी ही जा रही है कि तभी खबरी खरगोश का आगमन होता है । ‘महाराज की जय हो’, कहते हुए वह घुटनों तक झुकता है और अपनी बात आगे बढ़ाता है-हुजूर, खबरें अच्छी नहीं हैं । जान की अमान पाऊँ, तो बयान करूँ ।
   बेधड़क कहो खबरी । हम कुछ भी सुनने को तैयार बैठे हैं ।
      हर तरफ अपराध-ही-अपराध है । अपराधियों के लगाम पूरी तरह टूट चुके हैं । उनको सख्ती से लगाम...
   वह तो ठीक है खरगोश, पर हम ऐसा कैसे कर सकते हैं । आखिर अपराधी भी तो हमारे ही राज्य के नागरिक हैं ।
   महाराज, आपको ऐसा करना होगा । क्या आपको पता है कि पिछले कुछ समय से क्या हो रहा है ।
   पहेलियाँ न बुझाओ खबरी । साफ-साफ बताओ कि क्या देखकर आए हो । महाराज भौंहें तनिक टेढ़ी करते हैं ।
   पुलिस पिट रही है हुजूर । अपराधी अब उनकी नियमित धुलाई करने लगे हैं ।
   क्या सचमुच, महाराज उछल पड़ते हैं । खबरी, इस खबर में तनिक भी असत्य तो नहीं । महाराज की आवाज में उत्तेजना के साथ खुशी की मिश्री घुलने लगती है ।
   सौ टंच सही बात है हुजूर, पहले आपके नेता-मंत्री सीख दिया करते थे, अब अपराधी ऐसा करने लगे हैं ।
   महाराज अपनी अंगूठी उसकी तरफ उछाल देते हैं । ये लो मेरी तरफ से । तुम नहीं जानते कि तुमने कितनी बड़ी खबर दी है । अंतत: समाजवाद पूरी तरह सफल रहा । पुलिस पीटती है, तो अपराधी को भी हक है उन्हें पीटने का । हमारा समाजवाद सबको एक नजर से देखता है ।

   खबरी खरगोश अपना सा मुँह लेकर खड़ा रह जाता है । महाराज सियार आँखों को बंद करते प्रतीत होते हैं ।

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

लालच की प्यास


   साधो, बचपन से यही पढ़ा और सुना है कि लालच नहीं करनी चाहिए, क्योंकि लालच एक बुरी बला है । लालच की प्यास मिट जाए, ऐसे उपाय सदा करते रहना चाहिए । पर इधर एक कंपनी का विज्ञापन धमाल मचाए हुए है । कंपनी अपना शरबत बेचने के लिए चाहती है कि लोग लालच की अपनी प्यास को बुझने न दें । वैसे चिलचिलाती धूप की धमकी और धक्का खाए कितने आम इंसान ऐसे होंगे, पता नहीं, जो प्यास को बुझने न देने की हिम्मत रख पाते होंगे । वे तो प्यास के उफान मारते ही सामने ब्लैक एंड व्हाइट या कलर जो भी मिले, गटक लेते हैं । गटकने की एक बड़ी वजह उसका सस्ता होना भी होता है । कंपनी के शरबत तक लालच की प्यास को थर्मामीटर के पारे की तरह चढ़ाने के लिए उनके पास न तो समय होता है और न ही आर्थिक ऊर्जा । कंपनी के शरबत के लिए जेब में अच्छी और टिकाऊ ऊर्जा का होना अनिवार्य शर्त है ।
   वैसे लालच की प्यास बुझ गई होती, तो परम विद्वान रावण न तो सीताजी का अपहरण करता और न ही खुद सहित अपने सम्पूर्ण वंश के विनाश का कारण बनता । लालच उसके लिए बुरी बला साबित हुई । महाभारत की लड़ाई को कोई जानता तक नहीं, अगर दुर्योधन ने लालच की अपनी प्यास बढ़ाई न होती । उसने लालच की प्यास को इतना बढ़ाया कि सुई की नोंक के बराबर भी जमीन देना असहनीय हो गया । लालच की उसकी प्यास उसे मृत्यु तक घसीट कर ले गई ।
   पर आज के समय में लालच एक कला अवश्य बन गई है । राजनीति कभी समाज की सेवा का साधन शायद रही हो, पर आज वह पैसा बनाने और देश को दुहने की एक कला है । लालच की कला इतनी प्रभावी है कि उसने राजनीति को भी एक कला में बदल दिया । चारा घोटाले में भैंसों को स्कूटर से ढोया जाना क्या कला की अनुपम प्रस्तुति नहीं थी । लालच की प्यास बुझ गई होती, तो यह महान कलाकारी देखने को कैसे मिलती ? अपना देश महान घोटालों से वंचित बना रहता और वह दुनिया की नजरों में नहीं आ पाता, यदि लालच की प्यास न होती । घोटालों के वृहद स्वरूप ने यही साबित किया कि लालच की प्यास आदमी को न केवल कलाकार बनाती है, बल्कि लोमड़ी-चातुर्य का दान देकर प्रतिभावान भी बनाती है ।
   सुना है कि नेताओं को यह विज्ञापन खूब भा रहा है । उन्होंने तो शरबत पीना भी शुरू कर दिया है, ताकि लालच की प्यास और भड़के । लकीर का फकीर होने से विकास नहीं होता । लालच अब बला नहीं, एक कला है ।


मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

उधर अच्छे दिन , इधर बुरे दिन

          
      काम करने वाला बाबू नहीं हो सकता । बाबू तो उसे कहते हैं जो काम नहीं करता । आप पूछ सकते हैं कि काम नहीं करता, तो खाता कैसे है । यही तो इस जीव की खूबी है जनाब कि काम नहीं करता तो ही खाता है । खिलाने वाले इसे काम न करने पर ही खिलाते हैं । बहरहाल बाबू की इन सच्चाईयों के बीच एक सच्चाई यह भी आ रही है कि दिल्ली वाले बाबू काम करना चाहते हैं । उनमें काम करने के लिए होड़ लगी हुई है ।
   यह सच्चाई हमारे दफ्तर तक आ पहुँची है । बाबू हताशा–निराशा के भँवर में डूब–उतरा रहे हैं । बड़े बाबू का तो हाल ही बेहाल है । उन्हें लगने लगा है कि खतरा एकदम सिर पर आन बैठा है । नतीजे दिखाई भी देने लगे हैं । पहले फाइल जितनी भारी होती थी, काम उतनी ही तेजी से सरकता था, पर अब हल्की ही सरकानी पड़ रही है । फाइल स्वामी बाद में भारी करने की मौन स्वीकृतियां देने लगे हैं । मौन स्वीकृति का क्या, भला इसकी गवाही देने कोई आया है आज तक !
    आज दोपहर हो आई है और बड़े बाबू का गला सूखा हुआ है । इस समय तक तो मिनरल वाटर और स्प्राइट से कितनी बार गला तर हो जाया करता  था । मगही पान के बड़े–बड़े बीड़े मुँह में ठसाठस रहते थे अलग से । उनकी दशा देख चपरासी दफ्तर का ही पानी रख गया है गिलास में । शाम का समय अभी से उनके दिमाग में उतरने लगा है । कैसे कर पाएंगे सामना घर में बीवी का । उसकी आवाज में मिर्ची की गन्ध घुलने लगी है ।
    उधर एक और सच्चाई झाँकने लगी है । ज्योतिषियों की चाँदी हो आई है । उनके यहाँ बाबुओं की ये लम्बी कतारें लगी हुई हैं । ग्रह–दोष निवारण के लिए सभी पण्डित जी के शरणागत हैं । ग्रह–नक्षत्र बोलने लगे हैं । शनि अत्यन्त वक्री होकर अमंगल भाव के साथ बाबुओं के मंगल स्थान में आ बैठा है । पाँच साल तक उसके हिलने–डुलने की कोई संभावना नहीं है । जातकों को सलाह है कि सवा ग्यारह रत्ती का कठोर काम का पत्थर लोहे की अंगूठी में जड़कर धारण करें । माया की तरफ कदापि नजर न डालें । ऐसा करना उनके लिए भयंकर अमंगलकारी होगा ।
   आने वाले अच्छे दिनों में बाबुओं की ऐसी दुरावस्था ! कोई इस सच्चाई पर भी तो दया–दृष्टि डाले ।

                                                 

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

लोकतंत्र से खिलवाड़ का हक किसे है

              
       
   महाराज सियार दरबार-ए-खास में खास चर्चा का चरखा चलाने-चलवाने में मशगूल हैं । उनके सामने कई विभागों के मंत्री अपनी-अपनी कुर्सियों पर चिपके हुए हैं । बड़बड़ विभाग के मंत्री बड़बोला खान और नगाड़ा विभाग के मंत्री खास तौर से उपस्थित हैं । संभव है कि लोक इन विभागों के बारे में अनभिज्ञ हो । अत: इनके बड़प्पन की बड़ाई निहायत ही जरूरी है ।
   बड़बड़ विभाग का काम ऊल-जलूल बकते रहना है । इस काम में बड़बोला खान ने ऐसी लकीर खींच दी है, जिसके पार जाना किसी भी अन्य के लिए लगभग असंभव है । बड़बड़ करने का फायदा यह होता है कि लोक का ध्यान सदा विपक्षी की गिरेबां में अँटका रहता है और अपने पास मनमानी करने का मौका-ही-मौका होता है । नगाड़ा विभाग का काम सदा नगाड़ा बजाते रहना है, सरकार के हर उस काम के लिए, जो उसने कभी किया ही नहीं । अगर गलती से कोई काम हो गया हो, तो उसके लिए इतना नगाड़ा बजाना है कि लोक झेलते-झेलते बहरा हो जाए ।
   खैर, चर्चा का विषय राजभवन है । बड़बोला खान के अनुसार राजभवन का मुखिया लोकतंत्र से खिलवाड़ नहीं कर सकता । ऐसा करने के लिए राजभवन को किसी भी खेत से मूली सप्लाई नहीं होती । खिलवाड़ करने का एकमात्र अधिकार राजमहल को है । वोट के लिए राजा को लोक के दर पर नाक रगड़ने पड़ते हैं । अत: उसे नाकों चने चबवाने का हक सिर्फ राजा को है । इसके अलावा लोकतंत्र से खिलवाड़ करने के लिए कुछ संसाधन अत्यन्त आवश्यक होते हैं । लोक को धमकाने के लिए कर्मठ समाजसेवियों की पूरी फौज चाहिए होती है और महाराज के लकड़बग्घे इस काम के लिए सदा तैयार बैठे रहते हैं । मुर्गे की दावत हो, देशी-विदेशी की टकराहट हो, पैसे की खनक हो, अनाजों-कपड़ों-सामानों का लालच हो-इन सभी के लिए दो-नंबरी कमाई की जरूरत होती है ।
   ठीक फरमाया आपने-नगाड़ा मंत्री बात को आगे बढ़ाते हैं, अपने महाराज एक नंबर पर डटे हुए हैं, क्योंकि उनके पास दो नंबर की कमाई है । राजमहल का मुकाबला राजभवन कदापि नहीं कर सकता । मसूर की दाल खाने वाला मुँह महाराज से गलजोरी करने चला है, यह तो हद ही हो गई हुजूर !
   एक चीज और है-इस बार महाराज की वाणी गूँजती है,परंपरा भी हमारे ही साथ है । हमारे पूर्वज भी लोकतंत्र से खिलवाड़ किया करते थे । अत: यह साबित होता है कि लोकतंत्र से खिलवाड़ का विशेष  अधिकार हमारे पास है ।

   वाह हुजूर, वाह, क्या कह दिया आपने! सभी महाराज की प्रशंसा में कसीदे पढ़ते हैं और चर्चा यहीं समाप्त होती है ।
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