
साधो, कंस की
नगरी जल रही है । कंस के किसी वंशज के अत्याचार से, पुलिस की शुतुरमुर्गी व्यवहार
से । यह जल रही है प्रशासन की अमिट लापरवाही से, राजसत्ता की अहंकारी अकर्मण्यता
से । जब कंस का शासन था, तब भी यह जल रही थी उसकी अमरता की इच्छाओं से, अनंत
आकाक्षांओं से । जनता के दहकते तन-मन पर किसी तपते रेगिस्तान में वर्षा की शीतल
बूँद बन उतरी थी श्रीकृष्ण की बंसी । उनकी बंसी बजती गई थी और अनाचार के अंगार
अपने अस्तित्व की अंगीठी से ओझल होते गए थे । उनकी बंसी तब तक बजती रही, जब तक
नगरी ने पूर्ण शीतलता का अनुभव न कर लिया ।
उधर जब रोम जल
रहा था, तो नीरो बंसी बजा रहा था...चैन की बंसी । कुछ लोग समझते हैं कि
गैर-जिम्मेदारी और अकर्मण्यता के चलते वह वैसा कर रहा था । पर यह भी तो हो सकता है
कि वह रोम के जलने से दुखी हो और जनता के मन की दाहकता को दूर करने के लिए बंसी
बजाने लगा हो । तन तो जल ही रहा है, कम-से-कम मन को तो कुछ राहत दे दी जाए । राज्य
के प्रति उसकी उस असंदिग्ध निष्ठा को नजर-अंदाज करने के लिए ऐसे लोगों को कतई माफ
नहीं किया जा सकता ।
नीरो तो नहीं
रहा, पर उसके वंशज हर जगह मौजूद हैं । कंस की नगरी पर शासन का ठेका नीरो के एक वंशज के ही हाथों में
है । वह पिछले काफी समय से चैन की बंसी बजा रहा है । श्रीकृष्ण ने तो कुछ किया-धरा
था, तब जाके चैन की बंसी बज पाई थी । पर इसके बंसी बजाने के पीछे गहरी सोच है ।
बंसी बजा-बजाकर जनता को इतना मदहोश कर दिया जाए कि वह किए-धरे का हिसाब ही भूल जाए
। नीरो के पास बंसी बजाने का एक ही तर्क था...आग ! ‘तुम चैन की बंसी
क्यों बजा रहे हो?’ ‘क्योंकि रोम इत्मीनान से जल रहा है ।’ पर आज के नीरो के
पास तर्क की टकसाल है । अराजकता, अत्याचार, अनाचार, अपराध रुपी आग कभी इधर-कभी उधर
न लगती रहे, तो बोरियत का बोध होता है । तब भी बंसी बजाना बनता है, जब उसे लगे कि
उसने इतना काम कर दिया है कि किसी के लिए कुछ बचा ही नहीं । उसकी दूर-दृष्टि के
दोष के कारण जब मैदान में कोई शत्रु दिखाई नहीं देता, तो वह बंसी बजाता है । बंसी
बजाने के लिए आत्म-मुग्धता का एक तर्क और है । आत्म-मुग्ध व्यक्ति चैन की बंसी ही
बजाता है ।
कंस की
नगरी की आग क्या यह समझने के लिए पर्याप्त नहीं कि आज का नीरो बंसी बजाने में
मशगूल है?