जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

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मंगलवार, 10 जनवरी 2017

नेता तो सेफ हैं...

                
    चाय की अड़ी पर इस समय भी तीन लोग अड़े हुए थे । सामने की सड़क लगभग वीरान हो चुकी थी । कभी-कभार इक्के-दुक्के लोग ही आते-जाते दिख जाते थे । कोयले की अतिरिक्त खुराक न मिलने के कारण अंगीठी अब ठंडी हो चली थी, पर शीशे के गिलासों में उड़ेली गई चाय पूरी तरह गरम थी । जो बात बटेसर के पेट में पिछले कई दिनों से खदबदा रही थी, गरम चाय पड़ते ही वह भाप बन गई और मुँह से उसके निकलने लगी, इ जउन नोटबंदी का फइसला रहा, उ एकदम्मे फुस्स साबित हुआ कउनो फुसफुसिया पटाखा के माफिक ।...है कि ना?’
    ‘इ बटेसरा तो हरदम्मे फुसफुसाय रहता है ।’ लुटई पहलवान से रहा न गया । चाय का एक घूँट भरते हुए वह बोले, ‘एकरा कान पर बम्मो फटे, तो फुस्से सुनाई देता है । अरे उ कश्मीर में पत्थर चलना बंद हो गया और इधर नक्सली भाई लोग गोली चलाना छोड़कर नोट चलाने में लग गए । इ कउनो कम धमाका है कि इन लोगन की बोलतिए बंद हो गया ।’
    ‘एक और बात हुई है ।’ पंडित तोताराम भी उछल पड़े बहस में । चाय का आखिरी घूँट सुड़कते हुए बोले, ‘दाग धुल गया है नेताओं का ।’
    ‘का बात बोले पंडिज्जी...नोटबंदी कउनो बैतरणी रही कि पाप धुल गया ।’ इस बार दुकान स्वामी चनेसर की आवाज आई । वह सामान को समेटने में लगा हुआ था ।’
    ‘नोटबंदी का इतना बड़ा झमेला हुआ, कोई नेता पकड़ा गया क्या? जो भी पकड़े गए, वे नेता नहीं थे । तुम्हीं बताओ बटेसर, इसका क्या मतलब निकलता है?’
    ‘मतलब तो जरूरे कछु निकलना चाहिए ।’ बटेसर अपना कान खुजाते हुए बोला, ‘आप ही काहे नाहीं बताय देते पंडिज्जी ।’
    ‘मतलब तो एकदम साफ है । नेताओं के पास दो नंबर की कोई कमाई नहीं । होती तो पकड़े नहीं जाते? लोगों ने नाहक ही उन्हें दागदार मान रखा है ।’
    ‘ना-ना, इ बात तो कउनो मूरख भी नहीं मानेगा ।’ लुटई पहलवान खम ठोंकते हुए बोले, ‘नेता लोग बहुते पहुँचे हुए जीव हैं । बटेसरा के इ बात तो माननी पड़ेगी कि इन लोगन ने नोटबंदी को एकदम्मे फुस्स कर दिया ।’
    ‘पहलवान की बात को मानना मेरे लिए संभव नहीं है, क्योंकि नेताओं की बिरादरी कितनी भी चतुर क्यों न हो, सौ-पचास नेता तो जरूर लपेटे में आ जाते । का कहते हो बटेसर?’ पंडित जी ने अपने पक्ष को मजबूत करने के लिए बटेसर को निहारा ।
    ‘बटेसरा से का पूछते हैं? हम जवाब देते हैं आपको ।’ लुटई पहलवान लगभग तैयार बैठे थे जवाब देने के लिए । वह बोले, ‘आमे आदमी पकड़ में आता है । जउन पकड़ में ना आए, नेता वही होता है । आपने इन्हें आम आदमी मानने की गलती कर दी ।’
    ‘फिर भी क्या आप लोगों को अजीब नहीं लगता, जो लुटई पहलवान कहे जा रहे हैं? अगर नेता काला-काला कर रहे होते, तो इस धुलाई अभियान में कोई-न-कोई दाग तो अवश्य छोड़ जाते । मगर ऐसा हुआ क्या? इसलिए मैं नहीं मानता कि जहाँ नेता होता है, वहाँ दाग भी होता है । कम से कम नोटबंदी ने इस झूठे आरोप को सदा के लिए नकार दिया है । अब निश्चिंत होकर कहा जा सकता है कि यह देश नेताओं के हाथ में सुरक्षित है ।’
    पंडित जी के चेहरे को देखकर लुटई पहलवान को ऐसा लगा, जैसे वे अपने ही तर्क पर मुग्ध हो उठे हों । वह भी कुछ कम न थे । नहले पर दहला मारते हुए बोले, ‘हमारी समझ से तो नोटबंदी का सबक ये है कि देश और उसकी व्यवस्था नेताओं के हाथों सुरक्षित हो या न हो, किन्तु नेता देश और उसकी व्यवस्था के हाथों अवश्य सुरक्षित हैं ।’
    ‘का बात कहा पहलवान ! आपने तो पंडिज्जी का मुँहे बंद कर दिया ।’ इतना कहते ही चनेसर अपनी दुकान को बंद करने लगा था ।

शुक्रवार, 10 जून 2016

गोली जो खनकी...बागों में

               
                
   वह अचानक बेंच से उठे और तेजी से बाग के एक्जिट की ओर कदम बढ़ाने लगे । मुझे आश्चर्य हुआ । हम दोनों घंटों बैठते थे बाग में...इधर-उधर की बातें करते, एक-दूसरे का सुख-दुख साझा करते, राजनीतिक मुद्दों पर बतियाते और कभी-कभी पड़ोसी धर्म का मान रखते हुए पड़ोसियों की बुराइयां खुर्दबीन से ढूँढते ।
   उनके पीछे दौड़ते हुए मैंने पूछा,'अरे-अरे, कहाँ चल दिए बुलेट ट्रेन से?’
   मुझे नहीं सैर करना अब बागों में । खैर होगा, तभी सैर होगा । मैं कोई और ठिकाना ढूँढ लूँगा । मैं तो कहता हूँ...आप भी निकल ही जाइए ।’ कहते हुए गति को उन्होंने और बढ़ा दिया ।
   मगर यहाँ क्या बुराई है?...ताजी हवा है, हरे-भरे पेड़ हैं, मखमली घास है, आते-जाते-चहचहाते पक्षी हैं, लोग-बाग हैं, और क्या चाहिए आपको?’
   मगर यहाँ सुरक्षा नहीं है । बाग अब महफूज नहीं रहे किसी के लिए ।’ तेज चलने से उनकी साँस फूलने लगी थी ।
   क्यों?...बाग में बाघ घुस आया है क्या, जो यह सुरक्षित नहीं रहा?’
   बाघ होता, तब भी गनीमत थी, क्योंकि बाघ बाग पर कब्जा नहीं करते । यह तो मनुष्य की पाशविकता है
   अच्छा...अब समझा । आप जवाहरबाग की बात कर रहे हैं ’ मैंने बात को अच्छी तरह समझने की कोशिश करते हुए कहा ।
   पर मुझे लगा कि उनका ध्यान मेरी तरफ नहीं है, क्योंकि वह अपनी ही बोलते चले गए । गति में कमी किए बिना वह बोले,‘वह तो भला हो सरकार का कि उसने कोई रोक-टोक नहीं लगाई । अपनों पर भी कोई रोक-टोक लगाता है भला ! अपना-पराया भी तो कोई चीज होती है कि नहीं
   पर सरकार ही तो...मैं नहीं मानता । सारा दोष अदालत का है । उसे क्या जरूरत थी शांत पानी में पत्थर फेंकने की?’
   कब्जा हुआ था वहाँ मैं भी तो वही कह रहा हूँ । तीन साल से कब्जा...माने सरकार का कब्जा, सरकार के आदमियों का कब्जा । कोई आम आदमी इतना लम्बा कब्जा किस बाप के दम पर करेगा !’
   मैं चुप रहा, ताकि उनकी गति में कोई बाधा न पड़े । एक पल रुककर वह फिर बोले,‘आम आदमी भी समझता है इस बात को और अदालत है कि हुक्म-उदूली नहीं चाहिए । जब आप सरकार को सरकार के खिलाफ खड़ा करेंगे, तो कोई कांड ही जन्म लेगा ।’
   ‘मैं समझा नहीं आपके कहने का अभिप्राय ।’ मैंने अपनी आँखों को उनके चेहरे पर गाड़ते हुए पूछा ।
   ‘इसमें न समझने वाली क्या बात है । सरकार का कब्जा था, तो छोड़ देना चाहिए था । अब सरकार है, तो उसको इतना हक तो होना ही चाहिए । वैसे भी कब्जों और लफ्जों के अलावा सरकार के पास काम ही कितना होता है ! या तो वह कहीं-न-कहीं कब्जा करती है, या फिर लफ्जों में आम-आदमी को उसी तरह फँसाती है जैसे गाढ़ी चाशनी में मक्खी ।’
   वाह, क्या बात कही आपने । मेरे मुँह से बेसाख्ता निकल पड़ा ।
   इस पर वह तनिक रुके और लम्बी साँस खींचते हुए बोले,‘मेरे एक फिल्म-निर्माता दोस्त कल आने वाले थे यहाँ । एक गाने का दृश्य फिल्माना था- चूड़ी जो खनकी...बागों में । मैंने मना कर दिया और समझाया कि चूड़ी अब बाग में नहीं खनक सकती, क्योंकि वहाँ तो गोलियां खनकने लगी हैं । दृश्य इस तरह हो लिया है- गोली जो खनकी...बागों में, याद पिया की (भगवान की) आने लगी...हाय काली-काली रातों में ।’
   उनसे सहमत होकर मैं भी उनके पीछे-पीछे चलने लगा था । 
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