नए साहब के आने से पहले ही उनके बारे में
सच्ची और अच्छी खबरें आने लगी थीं । जितनी खुशी थी, उससे अधिक हैरानी थी लोगों के
मन में । कौतूहल चरम पर था कि आज के जमाने में भी ऐसे लोग धरती की शोभा बढ़ाने के
लिए अवतरित हो रहे हैं । साहब कितने न्यायप्रिय हैं, उसकी झलक उनके पदार्पण करते
ही मिल गई थी । जब उन्हें रिसीव करने गया बाबू टैक्सी के पैसे देने लगा, तो
उन्होंने मना कर दिया । वह मुस्कराते हुए उच्च कोमलता के साथ बोले कि एक के साथ
अन्याय वह कदापि नहीं कर सकते । हवाई जहाज, टैक्सी और सफर में जो भी खर्च हुआ है,
वह सब पर बराबर-बराबर वितरित कर दिया जाएगा...प्रसाद की तरह, ताकि किसी को यह न
लगे कि कोई अन्याय-सा हो गया उनके साथ । खबरों से लोग हैरान तो थे ही, पर इस
अवतरण-कथा से हैरानी का कद कुछ और बढ़ गया ।
जल्द ही साहब के संयम का स्वाद भी लोगों को
मिल गया । किसी खुशबूदार व्यंजन की गंध की तरह यह बात फैलने में देर न लगी कि कमाल
का संयम है साहब के पास । क्या मजाल कि वह बाहर कुछ ग्रहण कर लें...मतलब खा-पी लें
। ठेले-खोमचे वालों से तो उन्हें सख्त एलर्जी थी । उनके यहाँ खाने वालों से उससे
भी अधिक । गोलगप्पे, भजिया, चाउमिन वगैरह के पास इतना दम न था कि उन्हें अपनी तरफ
खींच सकें । जब भी गोलगप्पों के नाम पर मुँह में पानी आने लगता, तो उन्हें घर पर
ही मंगा लेते । घर पर खाने से एक एक्स्ट्रा आनंद की प्राप्ति होती थी । बड़े-बड़े
गोलगप्पे लबालब खट्टी-नमकीन पानी के साथ भरपूर मुँह खोलकर खाए जा सकते थे । ऐसी
आजादी का स्वाद ठेले के बगल में खड़े होकर नहीं लिया जा सकता था, क्योंकि ठेला है
तो सड़क की चीज । वह भीड़ को तो बुलाएगा ही ।
सात्विक तो ऐसे थे वह कि प्याज-लहसुन पर नजर
पड़ते ही तीन बार राम-राम बोलते थे, ताकि पाप का प्रायश्चित किया जा सके । इन
चीजों को खरीदना और ग्रहण करना तो नामुमकिन सी बात थी । मांस-मछली तो आज तक भगवान
भी नहीं खरीदवा पाए थे । सूरज की रोशनी में सब कुछ उजागर हो जाता है । अतः वह
कड़ाई से दिन में सात्विकता का लिटमस-टेस्ट देते । लाख मान-मनुहार भी उन्हें टस से
मस नहीं कर पाते । किन्तु आपद काल में मर्यादा कहाँ रहती है ! रात के अँधेरे में
कैंडल लाइट के बीच मुर्गे की टांग और विदेशी की मांग शरीर में जान डाल देते थे ।
शरीर की रक्षा और पोषण भी तो आपद-धर्म ही है न !
साहब कितने बड़े धर्मात्मा हैं, यह बात उस
दिन स्पष्ट हो गई, जब सुबह सूर्य उगने के साथ ही नगर का सबसे बड़ा ठेकेदार रिश्वत
की रकम लेकर पहुँच गया । साहब ने रिश्वत लेने से मना कर दिया । ठेकेदार
हक्का-बक्का...आँखों और कानों को यकीन नहीं हुआ । उसे लेकर आए बाबू की हालत तो और
भी दयनीय थी । बेचारा पसीने से तरबतर । रिश्वत की एसी से ठंडक पहुँचने से पहले ही
मामला गरमा गया था । वह साहब की नजरों में ऊपर चढ़ने आया था, किन्तु तूफान का
संकेत देने वाले बैरोमीटर के पारे की तरह धड़ाम हो गया था । इस वक्त वह न उधर का
था, न इधर का । इधर ठेकेदार उसे भेड़िए की नजर से निहार रहा था ।
‘इतना सन्नाटा क्यों है भाई?’ कोई पूछता,
उससे पहले ही साहब ने सन्नाटा तोड़ दिया । वह यह कहकर चले गए कि नहाने जा रहे हैं
। साथ में यह इशारा भी टांग गए कि कोई वहाँ से टस से मस न हो । नहाने के बाद घंटी
बजा-बजाकर पूजा करने में कब दो घंटे गुजर गए, उन्हें इसका इल्म ही नहीं रहा ।
ध्यान लगाकर पूजा करने पर आदमी के साथ ऐसा ही होता है । वह आए और आते ही उन्होंने
ठेकेदार को निहाल कर दिया । रिश्वत का बैग अब उनके हाथों में शोभायमान था । एक बार
फिर ठेकेदार हक्का-बक्का और बाबू बेचारा पसीने से तर-बतर । वाह, क्या धर्मात्मापना
है ! रिश्वत भी पूजा-पाठ करने के बाद ही लेते हैं । वरना तो इस दुनिया में ऐसे-ऐसे
अधर्मी हैं कि कभी भी रिश्वत पर चोंच मार देते हैं । न सुबह का लिहाज करते हैं, न
शाम का । न शौच का, न स्नान-ध्यान का । रिश्वत को क्या साफ-सफाई के बाद नहीं लिया
जा सकता?
ठेकेदार प्रसन्न । बाबू अति प्रसन्न । ऐसे
सच्चे और अच्छे आदमी...बोले तो साहब की छत्रछाया में सब कुछ अच्छा ही अच्छा होने
वाला है । सत्संग कभी निष्फल जाता है क्या?