जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

बाढ़...फिर आना इस देश

                   
   साधो, वर्षा ऋतु आते ही हमारे यहाँ धर्म-कर्म कुछ ज्यादा ही बढ़ जाते हैं । आम जन-किसान पूजा-पाठ-हवन और यज्ञादि करने लगते हैं । प्रयोजन ऊपर वाले को रुष्ट होने से रोकना होता है, ताकि वह नीचे वालों की इच्छाओं को पुष्ट एवं संतुष्ट करता रहे । वर्षा की इतनी आपूर्ति वह अवश्य कर दे कि ‘भूखे भजन न होंहि गोपाला’ कहने की नौबत न आए । पेट भी भर जाए और भजन भी चलता रहे । उधर बड़े-बड़े अफसर और नेतागण बड़े-बड़े पंडितों के माध्यम से बड़े-बड़े यज्ञों के आयोजन करवाते हैं । उनका प्रयोजन कुछ हटके होता है । वर्षा हो तो इतनी हो कि चारों तरफ बाढ़ आ जाए और नहीं तो एकदम सूखा पड़ जाए । सूखे का सुख तो सूखा आने पर ही मिलता है । बाढ़ में जैसे पानी का बढ़ाव होता है, वैसे ही खुशनसीबों के घर में लक्ष्मी का पड़ाव होता है ।
   खुशनसीबी देखिए कि वर्षा ऋतु इस तरह आई है कि आमजन बाढ़ से बेहाल हैं और बहुत से जिम्मेदार लोग उनका हाल लेने के लिए बेहाल हैं । जहाँ दादुर मेघ-मल्हार की टर्र-पों में उलझे हुए हैं, वहाँ खुशनसीब मानव मन बाथ-रूम में सुलझे रूप में गा उठा है-आया सावन झूम के...भादो भी आना चूम के ।
   वैसे धुँआधार बारिश और बाढ़ के अनेकों फायदे हैं । बाढ़ जीव-जन्तुओं को यह सुनहरा मौका देती है कि वे अपने जीवन की एकरसता को छोड़कर कुछ दिन बहुरसता में व्यतीत कर सकें । कहाँ वे टेढ़े-मेढ़े बिल और घुटती साँसें और कहाँ पेड़ों-झाड़ियों का विराट विस्तार ! कुछ नसीब वाले जीव-जंतुओं को तो मानव घरों में भी प्रवेश करने का मौका मिल जाता है । पिकनिक का ऐसा महा-आयोजन वे भला किस हस्ती के बल पर कर सकते थे ! यह बाढ़ ही है, जो पेड़ों-झाड़ियों पर लटकाती, सावन-भादो के झूले झुलाती तथा मानव-घरों को बारीकी से निरखने का सुख प्रदान करती है ।
   आम जन बाढ़ के बड़प्पन को देख अपनी क्षुद्रता का अहसास नहीं करता । चारों तरफ जल प्रलय उसे उसकी निःसारता का बोध कराता है । भूख-प्यास की अनुभूति उसकी सहनशीलता को चट्टानी रूप प्रदान करती है । वह खुद को उन ऋषि-महर्षियों के समकक्ष पाता है, जो भूख-प्यास की पीड़ा को तज तपस्या में तल्लीन रहते हैं । आसमान से संभावित टपकने वाले खाने के पैकेटों के लिए टकटकी क्या किसी साधना से कम है? राहत के लिए जिम्मेदार लोगों के कोरे आश्वासन यही बयाँ करते हैं कि पूरा यह संसार असत्य है, तथा सत्य केवल ऊपर जाना है ।
   बाढ़ सबसे ज्यादा लाभ अपने को इज्जत से बुलाने वालों को देती है । निरीह आम जनों के हाथों में खाने के पैकेट के साथ सेल्फी का मौका खुशनसीब बन्दे को ही मिलता है । पूरा सोशल मीडिया उनकी महानता और उपकार के चर्चों से ऐंठने लगता है । कागजों पर राहत के घोड़े रेस लगाते हैं और धरातल पर आम जन भूख को फेस करते हैं । यह सत्य जितना बड़ा होता है, खुशनसीबों के मन की राहत भी उतनी ही बड़ी होती है । दीपावली के बहुत पहले ही लक्ष्मी घर में आ बिराजती हैं । वैसे भी लक्ष्मी पहले ही घर में चली आएं, तभी दिवाली की पूजा सार्थक बनती है । बाढ़ में दिवाली...यह चमत्कार हमारे यहाँ ही सम्भव है । इस चमत्कार को प्रणाम करते हुए किसी भी अन्य का यह अधिकार नहीं बनता कि वह बाढ़ या खुशनसीब लोगों को गालियाँ दे, चोर और भ्रष्ट कहे ।

   ढेर सारे लाभों को देखते हुए देश-हित में हमें बाढ़ की भयावहता को बढ़ाने के प्रयास में जुट जाना चाहिए, क्योंकि बाढ़ जितनी विकराल होगी, उससे मिलने वाले सुख उतने ही कमाल के होंगे । आइए, देश के सिर पर सवार बाढ़ से हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हैं ।

मंगलवार, 23 अगस्त 2016

किस-किस को खुश करूँ रब्बा

               
   हमारे एक पड़ोसी की फितरत अजीब है । जिस काम का विरोध होता है, वही काम करने में उन्हें मजा आता है । लोगों ने उनके मोहल्ला विकास दल का सदस्य बनने का विरोध किया, वह बन गए । फिर उन्होंने उस दल का मुख्यमंत्री बनना चाहा । विरोध हुआ । कहा गया कि सबको साथ लेकर चलना उनके वश की बात नहीं । वह अड़ गए । विरोध उत्पन्न हुआ, तो सहानुभूति भी पैदा हुई । वह अच्छे मतों से मोहल्ला विकास दल का नेता अर्थात मुख्यमंत्री बन गए । उन्होंने बड़प्पन का परिचय दिया और सबको साथ लेकर चलने की घोषणा कर दी । अब सबका ध्यान होगा, सभी की इच्छाओं का सम्मान होगा ।
   लोगों ने कहा कि नया पद है, नया काम है, अतः शुरुआत प्रभु के स्मरण से होनी चाहिए । उनकी इच्छा का मान रखते हुए रामायण-पाठ का आयोजन कर दिया गया । उन्होंने स्वयं मोर्चा सम्भाला । वह यह काम किसी और पर नहीं छोड़ना चाहते थे । प्रभु का स्मरण हो और वह भी किसी और से करवाया जाए ! इस काम में काम का हस्तांतरण अर्थात आउटसोर्सिंग के पक्ष में वह कभी नहीं रहे । खुद ही पाठ कहना शुरू किया...हर संभव शुद्धि एवं शांति के साथ । दिन बीता, रात बीती । पाठ-समापन के साथ प्रसाद के वितरण की बेला, मगर लोगों का नहीं लगा मेला । एकाध को छोड़ कोई प्रसाद लेने नहीं आया ।
   ‘काहे भइया, प्रसाद लेने नहीं आए । कुछ गलत-वलत हो गया क्या?’ कोमल स्वर में पूछा था उन्होंने एक पड़ोसी से ।
   ‘जंगल में मोर नाचा, किसने देखा । बिना ध्वनि विस्तारक यंत्र के मंगल-गान हुआ, किसने सुना । जब कोई सुने, तब न आए प्रसाद लेने । किसी को लगा ही नहीं कि आपके यहाँ कुछ हुआ है ।’ यह सिर्फ पड़ोसी की बात नहीं थी, बल्कि पूरे मोहल्ले का प्रतिनिधि कथन था । प्रसाद तो पहुँच गया सभी के हाथों में, पर मन की बात नहीं पहुँची किसी के मन तक ।
   दो दिनों के बाद खूब धूम-धड़ाके के साथ फिर शुरू हुआ रामायण का पाठ । ढेर सारे ध्वनि विस्तारक यंत्रों ने ऐसा समाँ बाँधा कि कुछ लोग वाह-वाह, तो कुछ लोग आह-आह कर उठे । दिन को मजा, रात को सजा । रोगी-बुजुर्ग तो क्या, ढीठ नौजवान तक सो नहीं पाए । उधर रामायण में तीर सनन-सनन चल रहे थे और वीर कट-कट के गिर रहे थे, इधर अपने घरों में दुबकी ऑडियंस नींद-रक्षा के लिए त्राहि-त्राहि के विगुल बजाए जा रही थी । उधर कितने वीरों ने क्या किया, पता नहीं, पर इधर के कई वीर सुबह होने के पहले ही समर्पण कर चुके थे ।
   इधर सूरज फूटा, उधर लोगों का गुस्सा । ‘धर्म हो रहा है या अधर्म । कान में धर्म की बातें डाली जा रही हैं या खौलता शीशा । हद हो गई । जबर्दस्ती शरबत पिलाए जा रहे है । आपको धर्म-कर्म करना है, कीजिए, पर दूसरों का श्राद्ध-कर्म क्यों किए जाते हैं ।’ इस आतंक के बीच कुछेक मोहल्ले के वीर अभी भी डटे हुए थे । रात की गगन-भेदी आवाजें असफल रही थीं उनके मर्म को बेधने में । मुकाबले में मजा आया था । काश ! ऐसी चिंग्घाड़ू चीजें अक्सर होतीं, पर एक बात की शिकायत उनके पास भी थी । केवल पीली धोती धारण कर लेने से बंदा धर्मात्मा नहीं हो जाता । धर्म के लिए दिल खोलना पड़ता है ।
   ‘मैं समझा नहीं कि दिल को कैसे खोला जाता है ।’ उन्होंने पूछ ही लिया था आखिर एक मोहल्ला-वीर से ।
   ‘भई, आप जैसे कंजूस-मक्खीचूस यह बात नहीं समझ सकते ।’ उसने ताना मारते हुए कहा था, ‘धर्म-कर्म क्या अकेले करने की चीज है । पाठ वाचक दल को बुला लिया होता । शानदार ढंग से धर्म-कर्म होता । उन्हें रोजगार मिलता, वह भी तो धर्म ही होता । धर्म एक, रास्ते हजार ।’
   पड़ोसी ने सोचा कि हमें तो वही करना है, जो लोगों को अच्छा लगे । चलो, यह भी करके देखते हैं । अगला ही हफ्ता महा-आयोजन का गवाह बना । झाँझ-मजीरा और ढोलक की थाप पर वाचक दल ने सभी मोर्चे सम्भाल लिए । सोमरस और भांग के संयुक्त प्रभाव ने कहर बरपाना शुरु कर दिया । पूरा मोहल्ला साँसें रोके देख-सुन रहा था और इधर धर्म कुलांचे भरता हुआ आकाश के चरण चूम रहा था । पड़ोसी को प्रसन्नता थी कि यह आयोजन अवश्य ही सभी लोगों को आह्लादित करेगा ।
   पर अफसोस, बोलने वाले फिर निकल आए अगली भोर के साथ । ‘क्या ऐसे भी होता है प्रभु का स्मरण ...मानो प्रभु पर ही धावा बोल दिया हो । प्रभु को मंजूर हो तो करो, पर हमें तो जिंदा छोड़ दो ।’
   किसी और ने कहा, ‘राम-राम, कितना धिक्पुरुष है यह । प्रभु को भी पैसे का अहंकार दिखा रहा है । भाड़े की सेना से प्रभु को खरीदने चला है ।’

   पड़ोसी बेचारा मायूस था । लोगों ने जो कहा, उसने किया । इसके बावजूद आरोप, शिकायत, ताना-तंज...आखिर कैसे खुश किया जाए लोगों को अचानक उसे ऐसा आभास होने लगा, जैसे वह देश का ‘वर्तमान’ प्रधानमंत्री बन गया हो ।

शुक्रवार, 19 अगस्त 2016

एक नॉन-वीआईपी कुत्ते का खोना

                
   ‘क्या हुआ कुत्ते का, मिला कि नहीं अभी तक? कंपनी बाग में टकराते ही एक नव-निर्मित मित्र ने पूछा । सुबह-सुबह की सैर में एक-दूसरे की खैर पूछते-पूछते हम वाकिंग फ्रेंड बन गए थे । उनका इशारा हमारे उस कुत्ते की तरफ था, जो तीन-चार रोज पहले हमसे बिछड़ गया था । सुबह का लगभग यही समय था । अपनी दीर्घ पीड़ा मिटाने के लिए उधर घनी झाड़ियों की ओर गया था । अपनी पीड़ा मिटाते-मिटाते हमें पीड़ा दे गया । राह देखने का कोई प्रतिफल न मिला । संगी-साथियों ने बताया कि जरूर किसी ने उसे तड़ी पार कर दिया होगा । कुत्ते के लिए फिरौती मांगना तो अभी फैशन में नहीं है, अतः ज्यादा गुंजाइश है कि उसे बेच दिया जाए । यह आपके किसी दुश्मन की चाल भी हो सकती है ।
   ‘कहाँ मिला ।’ मैंने मायूसी भरे स्वर में जवाब दिया, ‘अभी तो कल जाके पुलिस ने रपट दर्ज किया है । दौड़ाते-दौड़ाते थका मारा । मुठ्ठी गर्म हुई, तब रपट दर्ज हुई ।’
   ‘कहना तो नहीं चाहता, पर कहे बिना रहा भी नहीं जाता ।’ मित्र अपना चेहरा लटकाते हुए बोले, ‘मुझे नहीं लगता कि आपका कुत्ता अब मिल पाएगा । उसे सदा के लिए भूल जाना ही आपके लिए अच्छा रहेगा ।’
   ‘पर मुझे उम्मीद है कि मेरा कुत्ता अवश्य मिल जाएगा ।’ उनके कहने के बावजूद मैंने आशा की डोर को छोड़ना उचित नहीं समझा ।
   ‘किस बूते आप इतनी उम्मीद रखते हैं? क्या आपका कुत्ता वीआईपी कोटे में आता है?’ यह कहकर उन्होंने मुझे झटका दिया ।
   ‘अजी, आप भी मजाक करने लगे । हम आम लोग ठहरे । हमारा कुत्ता वीआईपी कैसे हो गया !’ हमने अपनी स्थिति को कबूल करते हुए कहा ।
   ‘वही तो हम भी कहना चाहते हैं । उधर एक भूतपूर्व मंत्री का कुत्ता खोया हुआ है । उनकी पत्नी ने चुनौती भी दी है पुलिस को ढूँढने की, पर वह अभी तक नहीं मिला है । ऐसे में सोचिए कि आपके कुत्ते का क्या होगा ।’
   ‘बात तो ठीक है आपकी, किन्तु पुलिस तो सबकी रक्षा के लिए है ।’ मैंने प्रतिवाद करने की कोशिश की ।
   ‘लगता है आपने संविधान और कानून को ठीक से जानने का प्रयास कभी नहीं किया । पुलिस वीआईपी चीजों की रक्षा के लिए है । अगर समय बचे, तो आम लोगों पर एहसान किया जा सकता है ।’
   ‘आपका यह कहना भी ठीक है ।’ हमने उनकी बात को स्वीकार करते हुए कहा, ‘पर क्या वीआईपियों के लफड़े इतने बढ़ गए हैं कि...
   ‘बात इतनी भी नहीं है । सारे वीआईपियों की बात तो आप छोड़ ही दीजिए । पुलिस अब केवल सरकार की जागीर है । उसका काम सरकारी वीआईपी को जूते पहनाना तथा विपक्षी वीआईपी को जूते मारना हो गया है ।’
   ‘वह तो ठीक है, पर हमारा कुत्ता...’
   ‘फिर कुत्ता-रटन्त,’ वह तनिक चिढ़ते हुए बोले, ‘भूतपूर्व मंत्री को भी एहसास हो गया है कि कुत्ता उन्हें मिलने से रहा और इधर आप हैं कि कुत्ता-रटन्त किए जा रहे हैं ।’ उनके स्वर में झल्लाहट थी ।
   ‘कैसे भूल जाऊँ? कुत्ता अपना है । सरकार अपनी है । पुलिस अपनी है । सब कुछ तो अपना है ।’
   ‘भ्रम भी अपना है ।’ वह मेरे कंधे पर हाथ रखकर सांत्वना देने वाले स्वर में बोले, ‘भ्रम से बाहर निकलिए । पीड़ा से छुटकारा मिलेगा ।’
   ‘कैसे बाहर निकलूँ? पुलिस जब भैंस को ढूँढ सकती है, तो उसे कुत्ते को ढूँढने में क्या समस्या है?’
   ‘आप समस्या की बात करते हैं? समस्या एक हो, तो बताऊँ । सबसे पहले, पुलिस का काम भैंस ढूँढना ही है । दूसरे, वह भैंस ढूँढने के लिए ही प्रशिक्षित है । तीसरे, भैंस ढूँढने का उसके पास अपार अनुभव भी है । वह अपनी कुशलता, तेजी और कर्त्तव्य-निष्ठा का परिचय कई मौकों पर दे चुकी है ।’
   ‘पर मेरे कुत्ते के लिए उसकी तेजी...’
   ‘अब तो एक ही रास्ता है । पुलिस कुत्ते को खोजे, इसके लिए जरूरी है कि वह वीआईपी ही न हो, बल्कि सरकारी भी हो । आप तत्काल जुगाड़ के घोड़े दौड़ाना शुरु कर दीजिए ।’

   इतना कहकर वह अपनी राह हो लिए । मैं मूर्ख की तरह उनके पैरों से उड़ती धूल को देखता रह गया ।

मंगलवार, 16 अगस्त 2016

तलाश अभी भी है आजादी की

                   
   हमारे पड़ोसी आँधी की तरह आए और हमें उड़ाते हुए तूफान की तरह ले गए । इज्जत से बोले तो हमें लगभग घसीटते हुए ले गए । खली की तरह उनका शरीर और मैं सिंकिया पहलवान । असहमति जताने या किसी किस्म का प्रतिरोध करने की तनिक भी गुंजाइश नहीं थी । ऊपर से आजादी के जश्न का मौसम । वह आजाद-खयाली से उसी तरह लबालब दीख रहे थे, जिस तरह मूसलाधार बारिश से हमारे आज के शहर । लबालब होने के लिए हमारे शहरों के पास आजादी-ही-आजादी है ।
   ‘अरे, बताइए तो सही कि हमें कहाँ उड़ाए लिए जा रहे हैं?’ उनकी पकड़ से थोड़ा आजाद होते हुए हमने पूछा ।
   ‘लो कर लो बात ।’ वह तनिक आश्चर्य से बोले, ‘जनाब को इतना भी नहीं पता कि हम आजादी के जश्न में शरीक होने जा रहे हैं ।’
   ‘क्या आजादी भी रहती है इस मुल्क में, हमें क्यों नहीं दिखाई देती?’ हमने अपनी ओर इशारा करते हुए कहा ।
   ‘अरे हाँ, लगता है कि मैंने आपको पकड़ रखा है ।’ उनके इतना कहते ही शायद मेरी आजादी मेरे पास लौट आई थी । इधर हमने दो-चार लम्बी-लम्बी साँसें खींची, उधर वह आवाज को और ऊँचा करते हुए बोले, ‘इस देश में अन्न-जल तो दुर्लभ हो सकते हैं, पर जो एक चीज इफरात में है, उसे आजादी ही कहते हैं । आजादी यहाँ हमेशा सरप्लस में है ।’
   ‘चलिए, मान लेते हैं आपकी बात ।’ हमने थोड़ा मुँह बिचकाते हुए बोला, ‘पर उसका कोई रूप-स्वरूप तो होगा...वह दिखती किस तरह है?’
   ‘है न । उसके रूपों की क्या कमी है ! उसे देखने के लिए ज्ञान-चक्षु की जरूरत होती है । बंद आँखों से आप दुनिया को नहीं देख सकते ।’
   मेरी आँखें भी तो खुली हैं । फिर बंद आँखों की बात...हमें उनकी बात अच्छी नहीं लगी, पर हमने अपने मुँह पर विराम लगाए रखा । उन्होंने बोलना जारी रखा, ‘प्राण-रक्षा के लिए खाना बहुत जरूरी है और हमारे देश में खाने की आजादी-ही-आजादी है । संतरी से लेकर मंत्री तक, चपरासी से लेकर अधिकारी तक, छोटे बाबू से लेकर बड़े बाबू तक, ठेकेदार से लेकर कोटेदार तक, सेवादार से लेकर मेवादार तक, समाजसेवी से लेकर देशसेवी तक, चोर से लेकर पुलिस तक-सभी खा रहे हैं । चारा से लेकर अलकतरा तक, टूजी से लेकर कोयला तक, हेलीकॉप्टर से लेकर तोप तक, साबुत चीजों से लेकर ताबूत तक- खाने की आजादी के चंद नमूने हैं ।’
   ‘सभी कहाँ खा रहे हैं?...पर सबके लिए आजादी दिख जरूर रही है ।’ मैंने बीच में बोलते हुए कहा, ‘भूखे पेट को भूखा रहने की आजादी है और भरे पेट को खाने की ।’
   ‘खाने के साथ पीना भी मूलभूत आवश्यकता है ।’ हमारी बात ने उनमें और जोश डाल दिया । वह हामी भरते हुए बोले, ‘बिल्कुल ठीक फरमाया आपने । खाना अटक न जाए, इसके लिए कुछ गटकना जरूरी होता है । सादा पानी प्रभाव में नगण्य होता है, इसीलिए रंगीन पानी की हर तरफ आजादी है । निषेध मजबूरी हो सकती है, पर छिपा कर पीने की पूरी आजादी है । सत्तानवीस इज्जत पी गए, नौकरशाह मर्यादा । हर तरफ ‘पानी’ की कमी पीने की आजादी का साक्षात प्रतिफल है ।’
   ‘ठीक कहा आपने । सादा पानी भले नसीब न हो, पर कोका-कोला गटकने की जबर्दस्त आजादी है ।’ हमने एक बार फिर अपनी बात को टैग करते हुए कहा ।
   ‘खाने-पीने के बाद जो ऊर्जा उत्पन्न होती है, उसके सुरक्षित निर्मुक्ति के लिए बोलने की आजादी एक निरापद युक्ति है । बोलने की आजादी के लिए सर्वश्रेष्ठ पवित्र स्थान संसद है । वहाँ जितने हंगामें होते हैं, बोलने की आजादी उतनी ही मजबूत होती है । गाली-गलौज, असहिष्णुता-असहिष्णुता, गाय-गाय, दलित-दलित-बोलने की आजादी के नवीनतम उदाहरण हैं । भारत तेरे टुकड़े होंगे...इंशाअल्लाह-इंशाअल्लाह-बोलने की आजादी का नायाब नमूना है ।’ वह तनिक रुककर फिर बोले, ‘इतनी आजादियाँ हैं, फिर भी आपको आजादी दिखाई नहीं देती ।’
   ‘वह तो ठीक है, पर आजादी...’
   ‘आजादी इतने पर ही आकर नहीं रुक जाती । मनुष्य को रहने के लिए मकान चाहिए और मकान के लिए जमीन । प्राण-रक्षा की आजादी का तभी कोई मतलब है, जब मकान और जमीन पर कब्जे की आजादी हो । आज हर तरफ कब्जा हो रहा है । आदर्श सोसायटी, बुलंदशहर ही नहीं, असंख्य इलाके इसी आजादी से सराबोर हैं । इस आजादी की कीमत नेता तो नेता, टुटपूँजिए कार्यकर्त्ता तक समझ गए लगते हैं । आजादी के इतने सालों में उन्होंने बहुत कुछ के साथ यह भी सीख लिया है ।’
   ‘कोई और आजादी, जो आप...’
   ‘आजादी-ही-आजादी है ।’ वह बीच में ही टपकते हुए बोले, ‘खाने-पीने-बोलने-सोने की आजादी क्या कम आजादी है, जो आप कोई और...’
   ‘पर हमें क्यों लगता है कि आजादी की कुछ कमी है । आप ‘संचित’ की बात कर रहे हैं, पर ‘वंचित’ तो आजादी तलाश रहा है । यहाँ जीने की आजादी पर सैकड़ों रोक-टोक हैं, पर मरने की पूरी आजादी है ।’

   इतना सुनते ही वह रुके, एक पल को सोचा । अगले ही पल वह हमें छोड़कर अपने घर की ओर बढ़ रहे थे ।

शनिवार, 13 अगस्त 2016

जो डराए, वह आजादी तो नहीं

              
   यकीन नहीं था कि गली के नुक्कड़ पर पहुँचते ही मुझे नुक्कड़-नाटक के दर्शन साक्षात होने लगेंगे । सौभाग्य इतना होगा कि मुझे भी उस नुक्कड़-नाटक में शामिल कर लिया जाएगा । हुआ यह कि नुक्कड़ पर पहुँचते ही मेरी साइकिल को किसी ने ठोंक दिया । ठुँकना अच्छा नहीं लगता, पर वहाँ यह देखकर अच्छा लगा कि चलो, साइकिल या रिक्शा से तो नहीं ठुँके । वो क्या है कि हीनता महसूस होती है । ठुँके भी, तो साइकिल से...रिक्शा से । सामने एक ही बाइक पर चार नौजवान सवार थे । शायद यह कहना अब सही नहीं था, क्योंकि बाइक तो मुँह के बल गिरी जमीन सूँघ रही थी । चारों नौजवान चारों खाने चित्त पड़े हुए थे । मैं उन पर हँसने की स्थिति में नहीं था । जो गति तोरी, सो गति मोरी । पर एक बात जरूर था । मैं धूल झाड़कर उनसे पहले उठ खड़ा हुआ था । मेरा जीवन-अनुभव उस वक्त मेरे काम आया था । ऐसे मौकों पर बिजली की गति से उठ जाना ही फायदेमन्द होता है, वरना आपके ऊपर हँसी के पटाखे फूटते देर नहीं लगती ।
   जिस नुक्कड़-नाटक की भूमिका बँध गई थी, उसका आनन्द लेने के लिए बीसियों लोग इकट्ठा हो गए थे । गम कम, हँसी के ज्यादा छींटे पड़ते ही नौजवान अपने आपे से बाहर हो गए । पर तुरंत ही उन्हें अपनी गलती का अहसास-जैसा हुआ । इस मौके का फायदा उठाते हुए मैंने उन पर हमला बोल दिया । ‘देख कर नहीं चल सकते क्या.. मेरी टांग टूट जाती तो?’
   ‘ओए अंकल, ज्यादा नहीं टर्राने का । अपनी टांग खुद बचाने का । हमें अपने फ्रीडम से समझौता नहीं करने का । समझ गए या समझाने का?’
   मुझे समझते देर नहीं लगी कि उनकी भी आजादी है । मैं अपनी साइकिल को समेटने लगा । अब वह मुझे नहीं, बल्कि मैं उसे खींच रहा था । घर पर आकर अभी घुटनों पर हल्दी-चूने का लेप लगा ही रहा था कि बाहर दरवाजे पर दस्तक होने लगी । बिना लेप के लगाए जाना मुझे अच्छा नहीं लगा । वैसे भी वह दस्तक मेरी आजादी पर सवाल बनकर उत्पन्न हुआ था । मैं अपनी आजादी के गुमान में लेप लगाता रहा । उधर आगन्तुक को भी अपनी आजादी का मुझसे अधिक गुमान था । वह तबले की थाप-सा दस्तक देता रहा । आजादी के बीच कर्त्तव्य का भान मुझे तब हुआ, जब लगा कि अब दरवाजा नहीं बचने वाला । मैंने लपकते हुए दरवाजा खोल दिय़ा । सामने पड़ोसी खड़ा था । उसने मुझे हिंसक निगाहों से घूरा । गोया पूछ रहा हो कि किस कब्र में दफन पड़े थे अब तक । फिर प्रकटतः पूछा, ‘आजादी का जश्न मनाना है शर्मा जी, बोलिए कितना दे रहे हैं?’ मेरे बोलने से पहले ही वह फिर बोला, ‘नहीं-नहीं, चिरकुटई नहीं चलेगी इस बार । पूरे दो हजार ढीले करने होंगे ।’
   मैं दो सौ तक अपनी मर्जी से देने वाला था, किन्तु आजादी के नाम पर नाक-कटाई का दबाव बनाकर दो हजार हड़प ले गया । वह हँसते हुए निकल गया और मैं मन ममोस कर हल्दी-चूने के लेप को खा जाने वाली निगाह से घूरने लगा ।
   अभी आजादी के उधेड़-बुन से ठीक से बाहर भी नहीं निकला था कि पड़ोस में हंगामा मच गया । घर से बाहर आते ही रोंगटे खड़े हो गए । पड़ोसन अपनी आजादी का खुल्लम-खुल्ला प्रदर्शन कर रही थी । वह दौड़ा-दौड़ाकर अपने पति की ठुकाई कर रही थी । पति ने अपनी आजादी के बेजा इस्तेमाल की चेष्टा की थी । वह इस वक्त दौड़-दौड़कर अपनी प्राण-रक्षा के कर्त्तव्य-निर्वहन में संलग्न था । ठीक इसी समय मुझे उन लोगों की याद आई, जो स्त्री की आजादी के लिए अक्सर विलाप करते रहते हैं । यह दृश्य उन्हें निश्चय ही राहत प्रदान करेगा । आजादी अब बहुत दूर की बात नहीं रही ।
   वापस घर में घुसते ही एक और कोहराम का सामना हुआ । कहना गलत न होगा कि एक बार फिर आजादी से मुठभेड़ हुई । दृश्य कुछ यूँ था-पत्नी रोए जा रही थी । पुत्रवधु भुनभुना रही थी और पुत्र मौन की मूर्ति बन खड़ा था । पत्नी आजादी का पूर्ण उपभोग करना चाहती थी । यह तभी सम्भव था, जब पुत्रवधु इसी घर में रहकर चौका-चूल्हा करे । पुत्रवधु आजादी की नई हवा में साँस लेना चाहती थी, जो उसके अनुसार अलग घर में रहकर ही सम्भव था । उधर पुत्र का मौन इन आजादियों से निपटने का रास्ता तलाश रहा था ।

   बिना कुछ बोले मैं अपने कमरे में चला आया । मैं आजादी के साथ विचार करना चाहता था हर उस आजादी पर, जिसका सामना हमें सुबह से लेकर रात तक करना पड़ता है । क्या आजादी के पीछे आतंक की ही अभिव्यक्ति होती है? जब आजादी किसी गली के नुक्कड़ पर खड़ी होकर अट्टहास करने लगे, तो क्या उसे आजादी ही कहेंगे?

मंगलवार, 9 अगस्त 2016

मुफ्त की मौत से मधु की मौत भली

           
   सुबह-सुबह जब पड़ोसी दरवाजे पर दस्तक देता है, तो मस्तक में अजीब-अजीब से झटके गुलाटियाँ मारने लगते हैं । अब कौन-सा लफड़ा मोल लेने आया है मुझसे? मगर मैंने तो उसे उकसाने के कोई जतन नहीं किए पिछले दिनों । जरूर किसी तीसरे पड़ोसी ने पंगा लिया होगा, प्रत्यक्ष या परोक्ष । मुँह से बोलकर पंगा लिया तो क्या लिया, लेने वाले तो बिना बोले ही पंगा ले लेते हैं-अपने हस्त-व्यवहार से, नजरों की कटार से, हँसी की तलवार से, मौन की मार से, बे-बात जश्न के वार से ।
   दरवाजा खुलते ही उन्होंने मुझे ठेलते हुए एक तरफ हटाया और लपककर सोफे पर पसर गए । सच्चा पड़ोसी अंदर आने की अनुमति नहीं मांगता । यह तो पड़ोसी-शास्त्र द्वारा प्रदत्त उसका मौलिक अधिकार होता है । एक अच्छे पड़ोसी की तरह मुझे भी बैठने का इशारा करते हुए बोले, ‘जी सुना आपने, अपने उस पड़ोसी के तो खूब मौज-मजे हैं आजकल । पक खूब रहा है घर में पुलाव-खयाली, दिन में है होली तो रात दीवाली ।’ कहते-कहते दुख के पतनाले खुलने लगे थे चेहरे की दरो-दीवार में ।
   ‘यह तो अच्छी खबर है । हमें भी उनके साथ जश्न में शरीक होना चाहिए ।’ मैंने चहकते हुए कहा ।
   ‘बेशक शरीक होइए, मगर यह तो जान लीजिए कि जश्न की बुनियाद क्या है ।’ मेरी आँखों में आँखें गाड़ते हुए कहा था उन्होंने ।
   ‘जी कुछ सुना जरूर है । शायद सरकार आई थी उनके घर ।’ अपने ललाट को खुजलाते हुए मैं इतना ही बता सका ।
   ‘खैर, उस बात को आप पेंडिंग में डालिए कुछ समय के लिए । आप तो बस इतना बतलाइए कि कभी पार्टी-शार्टी का मजा लिया है जीवन में ।’ उनकी आवाज में अचानक एक रहस्य घुसपैठ कर गई थी ।
   ‘हाँ जी, कई बार किया है । अभी पिछले ही दिनों पप्पू के हैप्पी बर्थ डे में...’
   ‘अरे वो वाली नहीं ।’ उन्होंने बीच में ही मुझे बाधित करते हुए कहा, ‘वो भी कोई पार्टी है भला, जहाँ म से मधु न हो और झ से झूमना न हो ।’
   ‘तौबा-तौबा, आप भी कहाँ की-कैसी बात लेकर बैठ गए ।’ अचानक उछल पड़ा था मैं । नासिका अंगुलियों के द्वारा बंद होते चले गए थे ।
   वह कुछ देर तक मेरे हाव-भाव को घूरते रहे । फिर गंभीर स्वर में बोले, ‘जीवन तो लगता है कि निरर्थक बीत ही गया आपका । अब अपनी मौत को भी निरर्थक बनाना चाहते हैं । हटाइए हाथ अपने नाक से ।’
   ‘मैं कुछ समझा नहीं ।’
   ‘अपना वो पड़ोसी मधु-सेवन करते-करते मर गया । खूब सियापा मचा । बात सरकार के कानों तक पहुँची । सुनते ही सरकार इतनी खुश हुई कि उसे पाँच लाख का ईनाम दे दिया ।’
   ‘मैं अब भी कुछ समझा नहीं ।’ कहते हुए मैंने मूर्ख-सा मुखड़ा बनाया अपना ।
   ‘खैर, मैं बतलाता हूँ । सरकार एक तीर दो निशाने लगाना चाहती है । मधु का उत्पादन होगा, तो रोजगार बढ़ेगा । सरकार की कमाई होगी । पुलिस की उगाही होगी । जनता की भी भलाई होगी । दूसरी तरफ, मधु से मौत का दरवाजा खुलेगा । बढ़ती आबादी पर लगाम लगेगा । सरकार के पैसे से प्रोत्साहन मिलेगा । मुफ्त की मौत से मधु की मौत भली ।’
   ‘वाह, क्या सोचा है आपने ।’ मेरे मुँह से बेसाख्ता निकल पड़ा । हालांकि मैं यह नहीं समझ पाया कि उनकी प्रशंसा कर रहा हूँ या व्यंग्य के बोल छोड़ रहा हूँ ।
   वह अपनी रौ में बोलते चले गए, ‘मुझे तो भविष्य का वह दृश्य भी दिखाई दे रहा है । सनातन-धर्मी पिता शय्या पर अंतिम साँसें गिन रहा है । कंठ में गंगा-जल और तुलसी-पत्र डालने की बजाय मुद्रा-धर्मी सन्तान मधु की मधुरता उड़ेल रही है । मुख में मधु होगा, तभी सरकार को यकीन होगा । जाने वाले को तो जाना ही है, थोड़ी जल्दी सरक लेगा, तो क्या जाएगा उसका । कम-से-कम पीछे छूट जाने वालों के लिए तो मधु की मलाई की गारंटी हो जाएगी ।’

   सुनते ही यह मेरी आँखें चौड़ी होती चली गई थीं और मुख एक बार खुला, तो खुला ही रह गया । पड़ोसी धर्म का निर्वाह करते हुए मुझे इसी अवस्था में छोड़ वह सरक लिए थे ।
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