दोपहर हो आई थी, अतः काम बंद हो गया था । भीषण
गर्मी में दो-तीन घंटे का ब्रेक स्वाभाविक ही था । उसके बाद देर शाम तक काम । आठ
घंटे पूरे जो करने होते थे । काम लेने वाला इतना दयालु नहीं होता कि आधे काम के
पूरे पैसे दे दे । इस ब्रेक में खाने-पीने के बाद सुस्ताने को पर्याप्त समय मिल
जाता था । उसने अपनी पोटली खोल ली थी । मोटी-मोटी लिटि्टयों के साथ प्याज भी संगत
देने को तैयार था । लिट्टी और प्याज की जुगलबंदी हमेशा से मधुर राग छेड़ती रही है
गरीब के आँगन में, पर इधर प्याज बहुत भाव खाने लगा है । वह रह-रहकर जुगलबंदी को
तोड़ दे रहा है । इस साल उसे ऐसी पटकनी मिली है कि अभी तक मुँह के बल गिरा धूल
फाँक रहा है । लिट्टी ने बिना कोई शिकायत किए उसे अपने साथ रख लिया है ।
हथेलियों में प्याज को दबाकर उसका छिलका उतार
ही रहा था कि मंगनू इधर ही आता दिखाई दिया । पास आते ही बोला,ʻआज अकेले ही अकेले...यारी भी और होशियारी भी ! वाह, अँचार की खुश्बू तो
गजब ढा रही है...खाए बिना रहना अब तो नामुमकिन है ।ʼ
ʻखाने से तुझे रोका ही
किसने है ? आजा मेरे
यार...मिलकर खाने का मजा लेते हैं ।ʼ वह भी चहक उठा था । मंगनू उसका लंगोटिया यार था । बड़े
होने पर साथ ही काम करते, साथ ही खाते । दो साल पहले वह दिल्ली चला गया था अपने
किसी रिश्तेदार के साथ । तब से यह याराना लगभग टूटा हुआ ही था ।
मंगनू दुखी होते हुए,ʻयार तुझे देखकर
अच्छा नहीं लगा । तू आज भी वही प्याज-लिट्टी...ʼ बोला,ʻमेरी मान, तू शहर चला चल । वहाँ दुगुनी-तिगुनी मजदूरी मिलती है यहाँ से ।
देखते-ही-देखते कायापलट हो जाएगी ।ʼ
ʻपर यहाँ का छोड़कर
जाना...? ठीक ही मिल जाता है यहाँ भी ।ʼ इसके बाद दोनों में अच्छी-खासी बहस हुई थी ।
सपने किसे अच्छे नहीं लगते ! अंततः वह यहाँ का छोड़कर जाने को तैयार हो गया था ।
दिल्ली पहुँचते ही उसे हल्का झटका
लगा था । इस वक्त वह एक दड़बे में बैठा हुआ था । कमरा कहना ज्यादती होगी । कमरा
अत्यन्त छोटा था और रहने वाले थे बीस । हरेक के हिस्से में बस अपने शरीर के बराबर
सोने की जगह । घर छोड़ने पर इतना कष्ट तो उठाना ही पड़ता है, यह सोचकर उसने अपने
मन को सांत्वना देने की कोशिश की ।
अगली सुबह तड़के ही वे एक चौराहे पर
आ गए । इतनी सुबह क्यों? उसने पूछा भी था, पर मंगनू मुस्कुराकर रह गया था । चौराहे
पर पहले ही अच्छी-खासी भीड़ इकट्ठा हो चुकी थी । किसी की नजर आसमान में कुछ ढूँढ
रही थी, तो कोई आती-जाती गाड़ियों को निहार रहा था । सभी ने अपने हाथों में
दफ्तियाँ ले रखी थीं । उन पर कुछ लिखा हुआ था । ʻक्या कोई जुलूस निकलने वाला है?ʼ मैंने पूछा ।
ʻअरे नहीं यार । इन्होंने अपने रेट लिख रखे हैं इन दफ्तियों पर ।ʼ
ʻमगर रेट किसलिए? यहाँ की मजदूरी तो पहले ही से निर्धारित होगी ।ʼ ʻतू समझा नहीं । यहाँ वैसे नहीं चलता । दफ्ती पर इन लोगों ने
अपनी बेस-प्राइस लिख रखी है । बोली लगाने वाले उतने से शुरुआत करेंगे । आगे जितने
अधिक पर बोली लग जाए ।ʼ
ʻमतलब ये लोग अपने को बेचने वाले हैं?ʼ उसकी आँखें फैलती चली गईं । मुँह
खुला-का-खुला रह गया ।
ʻसिर्फ दिन भर के लिए ।ʼ मंगनू ने इत्मीनान से जवाब दिया । उसकी नजर वहाँ आए एक
खरीदार पर रेंगती चली गई थी ।
ʻएक दिन के लिए भी बेचना...यह तो सरासर गलत है ।ʼ कोई जर्जर नैतिकता उसके होठों
के कोनों तक घिसटती हुई चली आई थी ।
ʻबिकना फख्र की बात है आजकल ।ʼ नजरों को उसकी तरफ खींचते हुए कहा मंगनू ने,ʻतूने आईपीएल नहीं सुना । जमकर बोली लगती है वहाँ पर । बिकने
वाला ही आज बड़ा कहलाता है । चुपचाप अपनी दफ्ती उठा ले और बिकने को...ʼ अपनी बात
अधूरी छोड़ वह एक खरीदार की ओर बढ़ गया था ।
उसे भी एक कार वाली खरीदकर अपने घर
ले आई थी । अभी रंगरोगन समाप्त ही हुआ था उस घर में और सारे सामान घर के सम्पूर्ण
अराजक मुद्रा में दिखाई दे रहे थे । उन्हें व्यवस्थित व नियमबद्ध करने के लिए ही
उसे लाया गया था । वह तुरंत काम पर लग गया था । दो घंटे तक कोई बाधा उत्पन्न नहीं
हुई । इस बीच एक प्याली चाय भी गटकने को मिल गई । यहाँ तो सचमुच ही मजा है
भाई-सोचते हुए उसके चेहरे पर मुस्कान-सी पसर गई । मगर यह खुशी क्षणिक ही साबित हुई
। गृहस्वामिनी की सखियां आई हुई थीं घर पर और जमकर दावत उड़ाने के बाद वे अब विदा
ले रही थीं । तभी उसे सबको सैंडल पहनाने का फरमान जारी हुआ था । एक पल को वह
हिचका, फिर इसमें ʻऐसी-वैसी कौन सी बात हैʼ सोचते हुए सैंडल पहनाने लगा । उनके
जाने के बाद दावत के सारे जूठे बर्तन उस पर एक साथ पिल पड़े । चलो, घर का ही काम
है...मजदूरी तो खरी-खरी बन जाएगी न !
वह फिर सामानों को व्यवस्थित करने
में जुट गया था । दोपहर हो आई थी और उसे भूख भी लग रही थी । दावत की बची
भोजन-सामग्री के बारे में सोचते ही मुँह में दरिया-सी बहने लगी । वह कनखियों से
देखता, मगर कोई उसे पूछने नहीं आया । आई, तो गृहस्वामिनी की जवान बेटी आई । नुक्कड़
वाले बड़ी-सी दुकान से विदेशी ब्रांड की चॉकलेट लानी थी...तुरंत ।
चॉकलेट देखते ही उसका गुस्सा सातवें
आसमान पर पहुँच गया । उसने ʻईडियट कहीं काʼ कहते
हुए जोरदार तमाचा रसीद कर दिया । दरअसल वह कोई दूसरी चॉकलेट उठा लाया था ।
गृहस्वामिनी बीच में न पड़ती, तो वह और पिट गया होता । क्षतिपूर्ति के लिए वह
तुरंत चिप्स और पापड़ के कुछ टुकड़े एक प्लेट में रखकर ले आई थी । उसने एक टुकड़ा
भी मुँह में नहीं डाला । अपमान ने पेट की भूख को पिघला दिया था ।
शाम होते-होते फिर एक फरमान जारी
हुआ था । उसे डॉगी को नाले के पास ले जाना था । उसे बड़े जोर की बैड फीलिंग हो रही
थी । यह सुनते ही वह चकराया । आदमी तो आदमी, अब कुत्ते की भी चाकरी?
रात में वह सोच रहा था । पैसा अधिक
है, तो खर्च और अपमान भी अधिक हैं यहाँ । आधी छोड़कर आया था, अब...?
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