दरबार-ए-आम आज बतकहियों, कहकहों, हँसी-ठहाकों
से गुंजायमान है । हर वर्ग की जनता उपस्थित है । जिसे होना चाहिए, वह तो है ही;
जिसका होना जरूरी नहीं, वह भी मौजूद है । सभी के दिलों में जोश व उत्साह की लहरें
हिलोरें मार रही हैं, वहीं दरबार-ए-आम की हवा में गर्व की खुश्बू फैली हुई है ।
सभी को फख्र है अपने खिलाड़ियों पर...उन खिलाड़ियों पर, जो अभी ताजा-ताजा गोलंपिक
से लौटे हैं । वे खिलाड़ी ही इस वक्त दरबार-ए-आम के मंच पर अपने लिए निर्धारित
सीटों पर बैठे हुए हैं । कोई फर्जीवाड़ा न हो, इसके लिए उन्हीं खिलाड़ियों को मंच
पर चढ़ने दिया गया है, जिनके हाथ में सबूत के तौर पर गोलंपिक के टिकट मौजूद हैं ।
मंच पर इन खिलाड़ियों के अलावा मंत्रीगण, नेता, अधिकारी, खेल-संघों के पदाधिकारी,
प्रशिक्षक और वे सभी लोग उपस्थित हैं, जिनकी बदौलत खिलाड़ियों ने हार को चूमा और
उनकी इस उपलब्धि पर पूरा वन-राज्य झूमा । गौरव के उन क्षणों को पुनः जीना किसी भी
जीवंत राज्य के लिए एक अनिवार्य तत्व होता है । उस क्षण को पुनः महसूस करने तथा
हारे हुए खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने के लिए ही यह आयोजन किया गया है ।
सभी आने के इच्छुक आ चुके हैं तथा आवश्यक
तैयारिय़ां भी मुकम्मल हो चुकी हैं । अब बस महाराज सियार की कमी है । अनगिनत
निगाहें उन्हीं की राह पर लगी हुई हैं । तभी खबरी खरगोश दौड़ते हुए दरबार-ए-आम में
प्रवेश करता है और महाराज के आने की इत्तला देता है । तत्काल सभी सावधान की मुद्रा
में आ जाते हैं । उधर प्रधानमंत्री व अन्य मंत्रीगण अगवानी के लिए विशाल दरवाजे की
तरफ बढ़ते हैं ।
उपस्थित वन समुदाय पर सरसरी निगाह डालकर
महाराज सियार मंच की ओर प्रस्थान करते हैं । बीच-बीच में हाथ हिला-हिलाकर वह
अभिवादन का जवाब भी देते जाते हैं । उपस्थित लोग महाराज की इस अदा पर झूम-झूम उठते
हैं । अगले कुछ सेकेंडों के बाद महाराज मंच पर दिखाई देते हैं । परिचय प्राप्त
करने और हाथ मिलाने के बाद वह अपने सिंहासन पर आसीन हो जाते हैं ।
इधर नगाड़ा मंत्री तुरंत माइक को सम्भालते हुए
कहना शुरु करते हैं, ‘महाराज की आज्ञा हो, तो खेल के लिए आयोजित इस जश्न का आगाज
किया जाए । दीप के प्रज्ज्वलन के लिए हम हुजूर की कृपा के आकांक्षी हैं ।’
महाराज धीरे-धीरे मंच के एक कोने की तरफ बढ़ते
हैं । दीप-प्रज्ज्वलन में विशिष्ट लोग उनका साथ देते हैं । इसके बाद उन्हें दो
शब्द कहने के लिए माइक पर आने की प्रार्थना की जाती है । वह हुंआ-हुंआ के दो शब्द निकालकर
कहना शुरु करते हैं, ‘खुशी का मौका है और हमारे लिए तो यही बड़ी बात है कि हमारे
खिलाड़ी बहादुरीपूर्वक हार गए । जीतो तो ऐसा न लगे कि जीत में कुछ कमी रह गई ।
हारो तो ऐसे हारो कि जीतने वाले को यह न लगे कि हराया, लेकिन मजा नहीं आया । जीतने
वाला चैम्पियन होता है और हमारे लिए फख्र की बात है कि हमारे खिलाड़ी चैम्पियनों
से हारे । आप लोगों की हार ही हमारे लिए जीत है । भगवान करे कि आप लोग यूँ ही
हारते रहें और वन-राज्य का सिर ऊँचा बनाए रखें ।’
महाराज के इतना कहते ही तालियों की गड़गड़ाहट
से दरबार-ए-आम हिलने लगता है । तालियां इस बात पर और ज्यादा बजती हैं कि महाराज की
महानता देखिए कि उन्होंने हार को भी किस खूबसूरती से जीत करार दे दिया । उनकी
खिंची लाइन सभी के लिए एक गाइड लाइन सी बन जाती है । अगले ही क्षण राजपुरोहित को
दो शब्द कहने का मौका मिलता है । राजपुरोहित लंगूर अपनी माला को फेरते हुए
खिखियाते हैं और फिर गम्भीर स्वर में अपनी बात को आगे रखते हैं, ‘हमें खुशी है कि
हमारे खिलाड़ी संतोष के साथ लौटे हैं । पदक-वदक, सोना-चाँदी-सब फीके हैं संतोष के
सामने । सोना-चाँदी तो कभी भी आ जावे है, लेकिन संतोष बड़ी मुश्किल से आवे है ।
आपने सोना-चाँदी के पदक जीतने वालों को छोटा साबित कर दिया है, क्योंकि आप लोगों
के पास सबसे बड़ा पदक है-संतोष का पदक ।’
एक बार फिर दरबार-ए-आम तालियों की गड़गड़ाहट
का गवाह बनता है । अगले ही क्षण खेल मंत्री माइक को पकड़ बोलना शुरु करते हैं, ‘खिलाड़ियों,
आपकी हार से सारा राज्य गौरवान्वित है । हारना और उसे बर्दाश्त करना सबके वश की
बात नहीं होती । यह आपका संयम और संस्कार है । वास्तव में हारने वाला ही सच्चा
चैम्पियन है । जब कोई हारने को तैयार होता है, तभी किसी की जीत पक्की होती है ।
हारना त्याग है । जीत में यह बात कहाँ !’
अब गृहमंत्री की बारी आती है । वह खिलाड़ियों
के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए कहते हैं, ‘आप लोगों ने हारकर अच्छा ही किया ।
अगर जीत जाते, तो खेल-संघ बेवा हो जाते । सभी पदाधिकारी इसी बात के लिए लड़ मरते
कि यह जो पदक आए हैं, यह केवल उन्हीं के परिश्रम के फल हैं ।’
समापन के लिए खेल-संघ के एक पदाधिकारी माइक को
लपकते हैं, ‘सज्जनों, खेल में हार-जीत महत्व नहीं रखता । महत्व रखता है केवल भाग
लेना, इसीलिए हम अनासक्त भाव से भाग लेते हैं । हम भाग लेने के लिए ही वर्षों से
जा रहे हैं । आगे भी पूरे गर्व तथा बहादुरी के साथ जाते रहेंगे ।’
इसके बाद खिलाड़ियों को अपने-अपने हारने की
उच्चता के अनुसार हार-रत्न, हार-भूषण एवं हार-श्री से सम्मानित किया जाता है ।
सम्मानित करने के बाद महाराज के आदेश पर दरबार-ए-आम में जश्न के जाम छलकने लगते
हैं ।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा परसों सोमवार (05-09-2016) को "शिक्षक करें विचार" (चर्चा अंक-2456) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन को नमन।
शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'