जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

शुक्रवार, 24 जून 2016

भैंस नहीं...अबकी बार, गुम है सरकार

  सरकार चीख-चीखकर बता रही है कि वह गाँव तक पहुँच चुकी है उसका चीखना लाजिमी है, क्योंकि जनता अमूमन बहरी होती है धीरे की बात सुन लेती, तो नगाड़ा बजाने की जरूरत ही नहीं पड़ती खैर, वह आई तो आई कैसे? न एअरोप्लेन दिखाई दिया, न रेलगाड़ी आई, न चमचमाती लग्जरी गाड़ियां, न ही फौजी हेलीकॉप्टर । न इक्का-तांगा आया, न कोई बैलगाड़ी आई, न कोई टेम्पू आया, न ही रिक्शे की सवारी आई । न कोई साइकिल दिखाई दी, न कोई हाथी मतवाली चाल से चलती हुई आई । न पालकी को ढोने वाले कहार दिखाई दिए, न कोई पैदल चप्पल घसीटता हुआ आया । हवा भी आई, तो अपने साथ धूल-अंधड़ ही लाई ।
  फिर भी सरकार आ गई है । जनता काहिल और जाहिल इसीलिए कहलाती है, क्योंकि वह सरकार का आना ताड़ ही नहीं पाती है । ऐसी जनता किस काम की, जो सरकार को ही न देख सके । मैं उसे ढूँढने लगा । सूखे खेतों में देखा, खाली खलिहानों में देखा । फटी धरती-सी रूखे और खुरदरे चेहरे वाले लोग ही दिखाई दिए । यहाँ सरकार हरगिज नहीं हो सकती । हरियाली और सूखे का भला क्या मेल !
   मैंने उसे कुओं में झांका, पोखरों-तालाबों में देखा, नदी-नालों में देखा, हर गहराई में देखा, पर वह दिखाई नहीं दी । रास्तों-पगडंडियों पर देखा, गलियों-चौबारों में देखा, नुक्कड़ पर देखा, नाकों-सरहदों पर देखा । अमीर की हवेली में देखा, गरीब की झोपड़ी में देखा । घरों के कोनों में देखा, भात के दोनों में देखा । चाय की कुल्हड़ और बच्चों की हुल्लड़ में देखा । ताले-तिजोरी में देखा, लोगों की फटी जेबों में देखा । टूटी खटिया व पलंग पर देखा । हतभाग्य, सरकार कहीं नहीं दिखी ।
   राशन की दुकान पर खोजा । वहाँ कुछ दिखाई दिया । एक आदमी दो दिनों से बच्चों के भूखे होने की दुहाई देकर अनाज मांग रहा था और दुकानदार उसकी गर्दन में हाथ लगाकर बाहर धकिया रहा था । कुछ आगे सड़क के एक शानदार गड्ढे में दो-चार लोग गिरे पड़े थे । जरूर वहाँ सरकार होनी चाहिए, तभी तो लोग खुशी-खुशी उसमें...अफसोस ! चौराहे पर मैंने पूछा, ʻसरकार को तुमने देखा है कहीं
  अभी तो आया था,’ लोगों ने जवाब दिया,चुनाव सिर पर है । अतः कमजोरों के वोटर कार्ड जमा करवा रहा है...सुरक्षा के लिए ।’ अब इसमें उनकी सुरक्षा है या नेता की...सरकार ही जाने ! ( दरअसल यह सरकार इलाके के खुर्राट नेता का खास आदमी है ।)

   सचमुच सरकार लापता हो गई है । जो खुद लापता हो, वह अपना पता भला किस तरह बता सकती है । इसके बावजूद वह बता रही है, तो सच ही बता रही होगी । सरकार सच ही बोलती है । सच तो सच होता ही है, उसका झूठ भी सच ही माना जाता है । पर आम जनता के लिए दिक्कत यह है कि वह सरकार को अपनी दुनियावी आँखों से नहीं देख पा रही है । अतः सरकार उसके लिए लापता ही हुई न ! भैंस लापता हुई थी, तो पुलिस और प्रशासन ने उसकी तलाश में रात-दिन एक कर दिया था । तभी नासमझ जनता को यह भी पता चला था कि पुलिस कितनी कर्मठ चीज होती है । पर आज सरकार को ढूँढने के लिए कोई आगे नहीं आया, एकदम शांति छाई हुई है ।...आखिर इतना सन्नाटा क्यों है भाई !

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