जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

मंगलवार, 8 मार्च 2016

सीमाएं भी होती हैं

                 

   मैं शर्मा जी के घर के सामने पहुँचा ही था कि वे मुझे दूर से घर की तरफ आते दिखाई दिए । उनके फर्राटा भरते हुए आ रहे स्कूटर से सावधान होने का सवाल ही नहीं था, क्योंकि वे मेरे अच्छे मित्रों में से हैं । उन्हें भी पता था कि मुझे सावधान नहीं करना है, पर स्कूटर नहीं माना और उसने मेरी साइकिल को ठोंक दिया । इसके बाद वह इस तरह खड़ा हो गया, मानो बिना किसी मर्यादा के अपने चलते रहने की आजादी का जश्न मना रहा हो । इधर मेरी साइकिल आँसू के घूँट पी रही थी...उसके जीवन की आजादी का क्या ?
   अब शर्मा जी की तरफ मैंने ध्यान से देखा । उनके होंठ फड़फड़ा रहे थे । दोनों नथुनों से तूफान निकल रहा था । लाल-लाल आँखों से ज्वालामुखी का लावा फूटकर बह निकलने को बेताब था । क्या हुआ शर्मा जी-मेरे इतना पूछने भर की देर थी । वे फट पड़े, हद हो गई । इस देश में अब आदमी अपने मन की बोल भी नहीं सकता । अभिव्यक्ति की आजादी भी कोई चीज है कि नहीं ?’
   पर हुआ क्या, साफ-साफ तो बताइए ।
   हम वहाँ बोलने गए थे उनके समर्थन में, पर लोगों ने हमें बोलने ही नहीं दिया । आप जब बोलेंगे, देश के पक्ष में ही बोलेंगे...यह कैसी आजादी हुई ? कभी भी, कुछ भी बोलने की आजादी है हमें । देश में संविधान है...कोई मजाक नहीं है । हमारे इतना कहते ही वे लोग हम पर भूखे भेड़िये की तरह टूट पड़े और लात-घूँसों से ऐसी धुलाई की...
   आपने अपने विचारों को वाणी से अभिव्यक्त किया, उन्होंने लात-घूँसों से । आजादी दोनों तरफ थी । यह बात कहना चाहता था मैं उनसे, पर अपनी अभिव्यक्ति की आजादी को रोकना ही मुनासिब लगा । मुझे उस भैंसे की कहानी याद आई, जो रोज खेतों में हरी-हरी फसलों को खाया करता था । वह दो बार मुँह मारकर एक खेत से दूसरे खेत में निकल जाता था । इस मर्यादा में रहने पर किसान भी उससे खुश रहा करते थे । चलो उसका भी हक बनता है ।
   एक दिन भैंसे ने सोचा कि चरना उसका अधिकार है । अत: क्यों नहीं जैसे चाहे वैसे, वह उसका उपभोग करे । एक ही खेत में जमकर चराई के बाद वह उसे उजाड़ने लगा और कुछ ही पलों में उस खेत को तहस-नहस कर डाला । अपनी आजादी का पूरा मजा उसने आज ही लूटा था । उधर पता चलते ही किसान आ धमका । खेत की दुर्दशा देखकर वह आपे से बाहर हो गया और अपनी अभिव्यक्ति की आजादी का उपयोग करते हुए उसे तब तक पीटता रहा, जब तक वह अधमरा न हो गया ।
   तुम्हारी बकर-बकर बंद भी होगी कि नहीं ?’ अचानक उनकी पत्नी की आवाज गूँजी, जो दरवाजे पर आ खड़ी हुई थीं । पर शर्मा जी आपकी अभिव्यक्ति की आजादी...?’ मेरे मुँह से निकल गया । हद करते हैं आप भी । क्या आप नहीं जानते कि उसकी भी एक सीमा-रेखा होती है । उन्होंने अपनी पत्नी की ओर देखते हुए कहा ।

   कोई भी आजादी सीमा-विहीन नहीं होती । मैंने उनसे कहना चाहा, किन्तु वे पत्नी संग अंदर जा चुके थे । 

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