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वैसे शत्रु का मानना है कि वह अकेला ही काफी है । पार्टीरहित होकर भी यदि
वह मैदान में डट जाए, तो किसी को भी परास्त कर सकता है । मैदान में विपक्ष के रूप
में मित्र खड़ा हो या शत्रु-हारना दोनों का नसीब होगा । तुरही तोड़कर मैदान में
उतरना और डटे रहना वीरता का सबूत है । हो सकता है कि उसके द्वारा छोड़े गए
शब्द-बाण के मुखाग्र पर सत्य का तेज अवलेपित हो । सत्य में ही दृढ़ता के साथ खड़े
होने की ताकत होती है । यह सत्य मानने की इच्छा तो होती है, किन्तु असत्य की
वास्तविकता सामने आ खड़ी होती है । नेता तो नेता, तथाकथित बुद्धिजीवियों की एक
बड़ी जमात असत्य की उद्घोषक है । असत्य तेजी से नैतिक होता जा रहा है ।
शत्रु का यह भी दावा है कि हर तरफ उसके लिए निमंत्रण पत्र छपवाए जा रहे हैं
। साधो, ऐसा भी क्या भाव ! स्वीकार कर ही लो किसी का निमंत्रण । मगर वह ऐसा नहीं करेगा । ऐसा
करके वह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मार सकता । खुद पार्टी से निकलने पर गद्दार
की गद्दी नसीब होगी । पार्टी निकाल दे, तो शहीद का दर्जा ! शहीद होने के अपने ही फायदे हैं ।
राजनीतिक शहादत में शख्स जीवित भी रहता है और शहीद होने के मजे भी लूटता है ।
उधर पार्टी शत्रु को नहीं निकालती, तो विपक्ष आरोप लगा सकता है कि जो
पार्टी अपने भीतर के शत्रु से नहीं निपट सकती, वह देश-बाहर के शत्रु से क्या खाक
निपटेगी । यदि वह निकाल देती है, तो विपक्ष बढ़ती असहिष्णुता का नगाड़ा बजाने
लगेगा । आखिर वह करे, तो करे क्या ? असमंजस यही है ।
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