‘आप पत्रकार लोग भी तिल का ताड़ बनाने के
उस्ताद होते हैं ।’ उन्होंने मुझे देखते ही ताना मारा ।
‘पर आतंकवाद को आप तिल कदापि नहीं कह सकते ।
वह तो कब का ताड़ बन चुका है ।’ मैंने प्रतिवाद करने की कोशिश करते हुए कहा ।
दरअसल इस वक्त मैं एक बुद्धिजीवी के सामने खड़ा था । उनके बारे में केवल मैं ही
नहीं, पूरा समाज जानता है कि वह बुद्धिजीवी हैं, क्योंकि उलट-खोपड़ी रखने वाला
व्यक्ति बुद्धिजीवी ही होता है । उन्हें बुद्धिजीवी न मानने वाले विरोधी भी मानते
हैं कि वह बुद्धिजीवी हैं, क्योंकि जुगाड़ भिड़ाकर अब तक तकरीबन आधे दर्जन
पुरस्कारों को अपने ड्राइंग-रूम के शीशे की आलमारी में कैद कर चुके हैं । अपने
स्वार्थ के बाधित होने पर चिल्लाना और सामाजिक हित के मुद्दे पर आपराधिक चुप्पी
साध लेना उन्हें बुद्धिजीवी ही साबित करते हैं ।
‘ताड़ तो आप लोगों ने बनाया है आतंक-आतंक
चिल्लाकर ।’ उन्होंने मेरी आँखों में आँखें गाड़ दीं और आक्रोश भरे स्वर में बोले,
‘कभी जानने की कोशिश की है आतंक के पीछे की मजबूरी? क्या आपने कभी सोचा है कि आतंक
के पीछे मासूमियत का एक कोमल चेहरा तैर रहा होता है?’
‘मैं समझा नहीं आप कहना क्या चाहते हैं? निपट
मूर्ख की तरह मुँह बनाते हुए मैंने पूछा, ‘क्या आतंक का मासूम चेहरा भी होता है?’
‘आतंक के पीछे मासूमियत-ही-मासूमियत है ।
मुद्दा आतंकवाद नहीं है । मुद्दा तो यह है कि मासूम और निर्दोष लोग आतंकवादी क्यों
बनते हैं । सरकार मनमानी न करे, तो कोई समस्या ही नहीं होगी । यह तो सरकार ही है,
जो आतंकवाद फैला रही है । मुद्दा वास्तव में सरकारी आतंकवाद का है ।’
‘पर मार-काट को आप मासूमियत से भरा कैसे कह सकते
हैं?’
‘अपने मानवाधिकार की रक्षा के लिए शस्त्र
उठाना ही पड़ता है । सरकार हर जगह मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रही है । ऐसे में जो
मानव होगा, वह अवश्य उठ खड़ा होगा ।’ कहते-कहते उनके चेहरे पर आक्रोश के भाव उभर
आए थे ।
‘मगर अपने मानवाधिकारों की रक्षा के लिए किसी
को भी मार डालना मानव का नहीं, दानव का काम है ।’ मैं भी तनिक तैश में आ गया था यह
कहते-कहते ।
‘मैंने कहा न कि मानवाधिकार की रक्षा मानव का
धर्म है और धर्म-रक्षार्थ शस्त्र उठाना पूर्णतः न्यायसंगत है । इस धर्म-कार्य में
यह नहीं देखा जाता कि अपना मर रहा है या पराया ।’
‘आप आतंकवाद को मानवाधिकार से बाहर भी कहीं
देखते हैं? क्या आपको नहीं लगता कि आजकल आतंकवादी कुछ ज्यादा ही मानवाधिकारों की
रक्षा में रेल-पेल हुए जा रहे हैं?’
‘हाँ, कुछ लोग जरूर पथ से भटक गए हैं, पर
उन्हें मारकर सही रास्ते पर नहीं लाया जा सकता । समझाना-बुझाना ही सर्वोत्तम नीति
है ।’
‘जो मानने को तैयार न हो और दहशत फैलाना ही
जिसका लक्ष्य व धर्म हो...’
‘उसे भी समझाना ही चाहिए । आपको याद रखना होगा
कि अधिकांश ऐसे लोग नौजवान हैं । नौजवानों को कोई सरकार कैसे मार सकती है?’
‘आतंकवादी तो आतंकवादी है..क्या बूढ़ा, क्या
नौजवान ! उसे मार डालना ही उचित है, बनिस्बत कि उसे तंदूरी चिकेन और बिरयानी
खिलाया जाए ।’
‘आप सरकार और मूर्ख की भाषा बोल रहे हैं । मृत
व्यक्ति जीवित से ज्यादा खतरनाक होता है । आदमी भूत से मुकाबला नहीं कर सकता ।’
इतना कहकर वह चुप हो गए । तभी स्टूडियो से निर्देश आने लगा था । शहर में आतंकवादी
हमला हुआ था और मुझे तत्काल वहाँ पहुँचना था । मुझे यह भी जानकारी दी गई कि इस
बुद्धिजीवी का पुत्र भी हमले में बुरी तरह घायल है और उसे अस्पताल ले जाया गया है
।
यह खबर पाते ही उनका आश्वस्ति-भाव तिरोहित हो
गया अचानक और वह किसी ज्वालामुखी की तरह फट पड़े । चीखते हुए बोले, ‘आखिर सरकार कर
क्या रही है... इन्हें देखते ही मार क्यों नहीं डालती?’ और वह अस्पताल की तरफ
भागने लगे थे...बेतहाशा ।
मैं भी पीछे-पीछे दौड़ा । मैं उनसे कहना चाहता
था कि जब अपने पर बीतती है, तब असलियत समझ में आती है, अन्यथा बुद्धि की कैंची
चलाना कितना आसान होता है । मगर ऐसा कुछ कहने का यह वक्त नहीं था, क्योंकि कुछ और
होने से पहले मैं एक मनुष्य था ।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 'भटकाव के दौर में परंपराओं से नाता - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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