जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

मंगलवार, 12 जनवरी 2016

मुस्कुराइए कि आप विकसित हो गए

              
   अहा, ग्राम-जीवन भी क्या है !-लिखने वाले कवि की याद स्मृतियों के मुंडेर पर आ बैठी । मन में एक हलचल-सी हुई, जैसे स्थिर तालाब में कोई पत्थर जा गिरा हो । शहरी जीवन की रोज की लगभग एक-सी आपाधापी में एक अजीब-सी स्थिरता आ गई है । नदी-सा बहता ग्राम्य-जीवन की तलाश में मैं निकल पड़ा । तलाश इसलिए कि कुछ लोगों ने बताया कि नदी-सा बहता ग्राम्य-जीवन अब कहाँ है । वहाँ तो जीवन के अस्तित्व पर ही संकट आन पड़ा है ।
   सिर मुंडाते ही ओले पड़े । यहाँ तो घर से निकलते ही जाम के संग्राम में फँस गया । लगा, जैसे शहर मुझे नहीं छोड़ना चाहता । तभी मेरी नजर आज के अखबार पर पड़ी । छ: पृष्ठों का सरकारी विज्ञापन तैनात था । वह बड़ी मुस्तैदी व गर्व से विकास की गाथा बयान कर रहा था । ये चौड़े-चमचमाते-शानदार राजपथ...गाड़ियाँ बस भागती चली जा रहीं हैं । दस घंटे का सफर बस तीन घंटे में । सुखद ! मुझे तीन घंटे का सफर पूरा करने में दस घंटे लग गए । पर उस अखबारी विज्ञापन की सत्यता...
   गाँव पहुँचते-पहुँचते रात के ग्यारह बज गए । नेताओं की तरह रथयात्रा तो नसीब नहीं हुई, पर पगयात्रा का सुख जरूर नसीब हुआ । यहाँ यह बता दें कि यह नेताओं वाली पगयात्रा भी नहीं थी, क्योंकि उसमें उनके चमचे साथ होते हैं । आश्चर्य ! मेरे भी आगे-पीछे अचानक चार-पाँच लोग चलने लगे । गर्व के वशीभूत होकर मैं अभी कुछ बोलता कि उन लोगों ने मेरी बोलती बंद कर दी । भुशुण्डगुटिका के सहारे मेरे सारे सामान अपने बना लिए । उनके जाते-जाते मैंने पूछा-पराया माल अपना करने वाले भाईसाहबों, सरकार इतना रोजगार बाँट रही है, फिर भी आप रात को कष्ट उठाते हैं ? जवाब तो कुछ न मिला, किन्तु उनकी फिस्स-सी हँसी बहुत कुछ कह गई । विज्ञापनों के दावे और रात का यह सच...   
   देश के बाबा यदा-कदा किसानों के घर धमक जाते हैं, ताकि उनके घर रोटियाँ खाकर देश का भला कर सकें । मैं भी उनका अनुसरण करता अपने किसान मित्र के यहाँ पहुँचा । अपना जानकर रोटी की जगह खरी-खोटी सुना दी उसने । उसके हाथों में सूखा राहत का तीस रूपये का चेक था । इधर अखबार में बड़े सरकारी दावे का केक था । किसी तरह दो रोटी खाकर लेट गया । अखबार में गाँवों में सोलह घंटे बिजली की चकाचौंध फैली हुई थी, पर यहाँ सोलह घंटे से गायब थी । मच्छर मुझ पर टूट पड़े । मुझ आयातित चीज के खून का स्वाद लेने के लिए उनमें जबर्दस्त मारामारी थी ।

   रात्रि-जागरण के बाद मैं वापस अपनी राह पर था । शहर का जाम तैयार बैठा था मेरी अगवानी को । मेरे हाथ में वह अखबार अब भी मौजूद था । मुझे लगा, विकास दो तरीके से होता है । एक धरातल पर और दूसरा अखबार में । अखबार में विकास पसरा पड़ा है । नासमझ मैं ही हूँ कि उसे धरातल पर खोज रहा हूँ । मुझे मुस्कुराना चाहिए कि अखबार में विकास की रफ्तार बढ़ गई है ।

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