जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

मंगलवार, 19 मई 2020

आप आए, बहार आई


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   साधो, उन सारी शक्तियों का साधुवाद कीजिए, जिनके सामूहिक प्रयासों के बदौलत मधुशाला की ओर जाते मार्ग प्रशस्त हो गए । खुल गए वे सारे मार्ग, जो मधुशाला की ओर बढ़ते थे । राह में पड़े सारे कंकड़-पत्थर, कंटक आदि साफ हो गए । कल तक जो पुलिसिया अवरोध यदा-कदा दिख जाता था, वह भी अब नहीं है । लगता है, कलयुग के अच्छे दिन आ गए हैं । पुलिस मधुशाला की ओर बढ़ते कदमों की अगवानी में खड़ी है । मधु की एक बूँद को तरसते और एक-दूसरे के कंधों पर चढ़ने को आतुर लोगों के धीरज का सम्मान होना ही चाहिए । अतः वह लोगों को सम्मानजनक दूरियों पर खड़ा कर प्रतीक्षा का पापड़ बाँट रही है । कुछ विद्वान मुग्ध-भाव से इसको सोशल-डिस्टैन्सिंग कह रहे हैं ।

   शक्तियाँ यूँ ही चलायमान नहीं होतीं । उनके लिए पापड़ बेलते जाना पड़ता है । इस पापड़ बेलने को ही सभ्य लोग प्रयास कहते हैं । जब प्रयास एक सीमा से आगे बढ़ता है, तो वह तपस्या का रूप ले लेता है । मधु की एक झलक के लिए न जाने कितने लोग तपस्या में लीन थे । इन सामूहिक तपस्याओं की अग्नि-ज्वाला में उन सभी शक्तियों का मन पिघल गया, जो क्रुद्ध होकर मधु की एक बूँद के लिए तरसा भी सकती हैं और खुश होने पर उनकी वर्षा भी कर सकती हैं । मगर कुछ लोग इस तपस्या वाली बात को नहीं मानते । उनका कहना है कि मधु के आकांक्षी लोग घरों के कोनों में बैठे जरुर थे, पर किसी भी तरह की तपस्या में लीन नहीं थे ।

   अब ऐसे लोगों का क्या किया जाए, जिन लोगों को यह तक नहीं पता कि मधु के बिना जीना किसी तपस्या से कम नहीं है । एक दिन में हालत जल बिन किसी मीन-सी हो जाती है । जब एक दिन का यह हाल है, तो महीनों को झेलना, तड़पना और अपने प्राणों को बचाए रखना कठोर तपस्या ही है ।

   खैर, तपस्या से मधु-देवता प्रसन्न हैं और उन्होंने वरदान-स्वरुप मधु की वर्षा का फैसला किया है, किन्तु अल्प-वृष्टि ही होगी । मधु के बादल अभी पूरी तरह से भरे हुए नहीं हैं । दो बूँद कंठ के नीचे जाएगी, तो और हाहाकार मचेगा । हाहाकार ही किसी भी हद तक ले जाता है । वह चाहे कठोर तपस्या की हद हो या पैसों की ।

   ऐसे में न केवल मधु की एक-एक बूँद कीमती है, वरन वे लोग भी कीमती हैं, जो फटेहाली में भी लाइन में खड़े हैं । जिसे फटेहाली स्वीकार हो, पर मधु के लिए कोई भी कीमत नामंजूर न हो, वह कीमती ही होता है । वैसे इस लाइन में कच्छा-बनियान है, तो सूट-बूट भी है । पैदल वाला है, तो कार-वाला भी है । मजदूर है, तो मालिक भी है ।

   आपने सुना-पढ़ा होगा कि कोई महान काम करने पर देवता लोग फूलों की वर्षा किया करते थे । इस कतार में लगे लोगों पर भी फूलों की वर्षा की जा रही है । मतलब साफ है । इन सभी लोगों का कर्म इतना ऊँचा है कि फूलों की वर्षा करनी पड़ रही है । ये वे कर्मवीर हैं जो अपने को गिराकर भी अर्थव्यवस्था को उठा रहे हैं । गिरकर ही ये महानता के चरण चूम रहे हैं ।  ऐसे लोगों का सम्मान न किया जाए, तो किनका किया जाए ?

   मधु की एक बूँद के लिए सड़क पर उतरे इन कर्मवीरों एवं देश के भाग्य-विधाताओं को देखकर चहुँओर खुशी का माहौल है । उदासी जो तालाबंदी-सह-हालाबंदी के साथ शुरु हो गई थी, वह अब तेजी से छँटने लगी है । धरा खुशी के चादर ओढ़कर बैठ गई है, क्योंकि उसकी गोद बहुत दिनों से सूनी-सूनी सी थी । अब मधु के मतवाले और मधु से मतवाले लोग उसकी गोद में आ-आकर गिरने लगे हैं । वह एक बार फिर धन्य होने लगी है अपने सपूतों को धूल में पड़ा देखकर ।

   उधर गली का श्वान भी प्रसन्न हो उठा है । यह दुख एवं पीड़ा के क्षणों के साथी को देखकर है । जब भी उसकी पीड़ा ने जोर मारा, कोई खुला मुँह ही उसकी राहत के काम आया । खुला मुँह मधु से मतवालों के सिवा और किसका हो सकता है । इधर पीड़ा चरम पर पहुँची, उधर एक टाँग उठा और पीड़ा का सारा निचोड़-रस आसमान की ओर उन्मुख गुफा का एहसास कराते मुख में । किसी की पीड़ा को सम्भाल लेना, वह भी बिना प्रतिक्रिया दिए, क्या सुखकर नहीं है ?

   छोटा बच्चा भी खुश है, खासकर वह एक्सपेरिमेन्टल बच्चा, जो तड़ित चालक के प्रभाव पर एक्सपेरिमेन्ट कर रहा है । मधु से लोट-पोट व्यक्ति ही उसके लिए सर्वोत्तम साधन है । वह उसके कान के पास पटाखों के विस्फोट की झड़ी लगाकर वह सब कुछ एक ही दिन में प्राप्त कर लेना चाहता है, जिसके लिए वैज्ञानिक लम्बा, अनिश्चित समय निकाल देते हैं ।

   बेलन भी खुशी के सातवें आसमान पर है । केवल रोटी पर लोट-पोट होकर वह बोर हो रही थी । अब फिर वीरता भरे प्रदर्शन की उम्मीद जाग उठी है । इस उम्मीद का आधार वो महिलाएँ हैं, जिन्होंने मधुशाला खुलने से पहले ही मोर्चा सम्भाल लिया है । बेलन ही उनका मुख्य शस्त्रास्त्र है ।


   कुल मिलाकर अभिप्राय यही है कि एक वह क्या आ गए, बहार आ गई है । चलिए, हम भी किसी कोने में खड़े होकर बहार का आनन्द लूटें ।

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

संकट काल परमार्थ का



सेठ मालवाले प्रसन्न हैं, गद्गद् हैं । उनका दिल खुशी के अतिरेक में बल्लियों उछल रहा है, क्योंकि देश पर संकट आन पड़ा है । लोग घरों में दुबके हुए हैं, मगर पेट दुबकने को तैयार नहीं । हर तरफ लॉकडाउन है, पर पेट पर ताला लगाए नहीं लगता । कुछ ही समय में ताला टूट-टूट जाता है । वह रोटी-रोटी चिल्लाता है, दाल के नारे लगाता है । चावल के लिए हठयोग पर बैठता है, तो कभी सब्जी के लिए मायूस होता है ।

   इधर लॉकडाउन है, तो उधर सेठ ने भी अपने बड़े-बड़े गुप्त गोदामों पर दो-चार ताले और लगा दिए हैं । गुप्तचरों का कठोर, किंतु अदृश्य पहरा अलग से बिठा रखा है । मनुष्यों का क्या भरोसा ! खाली पेटों के साथ टूट पड़े, तो ? खाली पेट क्या-क्या नहीं करवाता । बस टूटना है और लूटना है । सेठ मालवाले को यही डर है कि जनता कहीं लूट न ले...भीड़ की शक्ल में आकर । भीड़ को किसी नियम-कानून का पालन करते हुए देखा है कभी आपने ? वैसे सेठ को अपने देश के नियमों-कानूनों पर भरोसा है, उसके रखवालों पर भरोसा है । संकट की इस घड़ी में भी उनका सहयोग हमेशा उपस्थित है ।

    दुकान पर अफरा-तफरी है । लोगों का हुजूम है । लंबा रेला है यहां से वहां तक । मगर यह सब दिखाई नहीं देता नंगी आंखों से । जैसे किसी जादूगर ने अपने जादू से गायब कर रखा हो पूरी भीड़ को, जबकि समूची भीड़ वास्तव में वहीं मौजूद है । पूरी भीड़ फोन में छिपकर दुकान पर दबाव बनाए हुए है । जितना अधिक दबाव होता है अंदर, ज्वालामुखी का विस्फोट भी होता है उतना भयंकर । इधर जितना दबाव बढ़ता है, उधर उतना ही मूल्य का लावा तेजी से धधकते हुए बाहर निकलता है और लोगों की ठंडी पड़ती जा रही कमाई पर जा गिरता है ।

    सेठ इस वक्त अपनी दुकान में बैठे हुए हैं और मैं उनके सामने माइक लेकर मौजूद हूँ । माइक उनके मुंह के पास करते हुए, 'संकट की इस घड़ी में आप कैसा महसूस कर रहे हैं ?' पूछता हूँ ।

    'बहुत ही अच्छा ।' वह जवाब देते हैं और चेहरे पर एक गंभीर मुस्कान उभर जाती है । थोड़ी देर रुककर, 'संकट भी एक अवसर है...एकता बनाने के लिए, नई चीजों को खोजने के लिए, और त्याग करने के लिए ।'

    'त्याग का समय है, तो रोटी की कीमत क्यों बढ़ गई है ? यह तो दो तरफा मार है जनता पर । एक तरफ वायरस की मार, दूसरी तरफ रोटी की मार ।'

    'एक अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता । पूरी जनता को मिलकर त्याग करना होगा । संकट सामूहिक त्याग की मांग करता है ।'

    'मतलब की जनता पैसे का त्याग करे ।' मैं पूछता हूँ, 'पर आप का त्याग किधर है ?'

    'समूची जनता घरों में दुबकी हुई है वायरस के डर से और हम अपनी जान को दांव पर लगाकर परमार्थ के लिए डटे हुए हैं । आपको हमारा त्याग क्यों नहीं दिखता ?'

    सेठ ने बड़ी चतुराई से परमार्थ की दीवार खड़ी कर दी थी । उसे भेदने का अभिलाषी नहीं था मैं, अत: वहां से रुखसत होकर उन तक आ पहुंचता हूँ, जिन पर व्यवस्था को अमल में लाने की जिम्मेदारी है । सेठ की शिकायत उनके सामने प्रस्तुत करता हूं ।

    शिकायत सुनकर वह खुश नहीं होते । 'क्या कहते हैं आप ?'  वह चौंकते हुए पूछते हैं, 'सेठ जी तो बड़े धर्मात्मा व्यक्ति हैं । वह तो सब का कल्याण करते हैं ।'

    'आपका भी ?' इस प्रतिप्रश्न से वह अचानक ही सतर्क हो उठते हैं और प्रशासन का संकट मोचक वाक्य प्रस्तुत करते हैं आवेश के साथ, 'किसी को मनमानी करने की छूट नहीं दी जाएगी, चाहे वह कोई भी हो ।'

    मैं इस जवाब का आकांक्षी नहीं था, अत: उन तक जा पहुंचता हूँ, जिनके कंधों पर व्यवस्था को बनाने की जिम्मेदारी है । वह जागरूक हैं, इसलिए सतर्क भी । वह हमारे चैनल के माध्यम से अपील जारी करते हैं आम जनता के कल्याणार्थ । 'संकट का यह समय शिकायत करने का समय नहीं है । सभी एक दूसरे का ख्याल रखें । सभी के अधिकारों की रक्षा हो ।'

    फिर वह मुझसे कहते हैं, 'चिंता की कोई बात नहीं है । सेठ हमारे आपदा कोषों में दान भी तो करते हैं । दो-चार पैसों का शोर मचाकर परमार्थ को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता ।'

    मैं पुन: सेठ की दुकान पर हूँ । मालवाले की हंसी पर एक फर्क अवश्य पड़ता है कि वह बढ़ जाती है । यह उनका तरीका है संकट का मुकाबला करने का । आपको भी करना है । अत: यह फैसला आपके ऊपर है कि रोटी के नाम पर आप स्वार्थ को तरजीह देते हैं या फिर सेठ के परमार्थ को ।

शुक्रवार, 13 मार्च 2020

अंग्रेजी बोलने वाली बहू

   ‘मम्मी जी, मैं जानती हूँ कि यह पत्र यानि लेटर आपको पसन्द नहीं आएगा । अंग्रेजी में यह आपके हेड पर एटम बम की तरह एक्सप्लोड होगा । रियली आई डोंन्ट नो, आपका हेड हिरोशिमा या नागासाकी बनेगा कि नहीं । बट लेटर का अटैक होते ही आपके फेस पर सुनामी नॉक करने लगेगा । ब्रेस्ट फुटबॉल की तरह किक-किक करेगा और आईज से फ्लड व मड गारन्टीड फ्लो करेगा । दिस पार्टीकुलर टाइम पेन और इमोशन का स्टॉर्म आपके बॉडी को हिट करेगा ।

   बहुत हो गई आपकी मनमानी । अब मैं अपने पर आती हूँ । आज मुझे बहुत कुछ कहना है आपसे । जो कुछ हुआ, आपकी वजह से हुआ । मैं क्या थी और क्या हो गई । आपकी जिद ने मुझे कठपुतली बना दिया । एक ऐसी कठपुतली, जिसकी अपनी जबान नहीं होती । एक ऐसी काठ की गुड़िया, जिसकी अपनी पहचान उसे बनाने वाले पर निर्भर करती है ।
   बात जब समझ में आए, तो उसे करना ही उचित है । हालांकि मुझे शुरु से ही एहसास था कि मैं कुछ ठीक नहीं कर रही । इसके बावजूद मैंने वह सब किया, जो आपकी जिद की वजह से उत्पन्न हुआ था । जिद से ही जबर्दस्ती होती है, पर आप काफी चालाक थीं । अपनी मूर्खतापूर्ण जिद के ऊपर मक्खन लगा दिया...वर्षों से पैदा हुई मन की इच्छा और शौक के नाम पर । घर वाले कुर्बान हो गए । आप ने एक ही तो इच्छा की थी बहू को लेकर । न पैसा चाहिए, न गाड़ी, न फ्लैट । बस बहू पढ़ी-लिखी होनी चाहिए । इतनी पढ़ी-लिखी कि फर्राटेदार अंग्रेजी झाड़ सके । घर के लोगों से भी और हर आते-जाते मेहमान से भी ।
   शुरु में ही यह बात मुझे अजीब लगी थी । जब हर कोई हिन्दी में बोल रहा हो, तो किसी एक का अंग्रेजी झाड़ना कितना बेवकूफी भरा है । विदेशी भाषा का ज्ञान होना अच्छी बात है, लेकिन अपने घर में, अपने लोगों के बीच अपनी ही भाषा अच्छी लगती है । मुझे तब बहुत अजीब लगता था, जब सभी हिन्दी में बात करते थे और मैं अंग्रेजी बोलती थी । मुझे इसके नुकसानों से भी गुजरना पड़ा । न और लोगों का मेरे लिए एकात्म-भाव बढ़ा, न मेरा और लोगों के लिए । एक भाषा सचमुच एक कर देती है ।
   इसी बीच कब मेरे मन में अलग होने की भावना जाग गई, मैं नहीं जान पाई । वैसे कुछ ही दिनों के बाद मैं पराई महसूस करने लगी थी । घर के लोग भी मुझे पराए लगने लगे । अब पराए लोगों के साथ रिश्ता ही कितने दिनों का होता है । पर रिश्ता तोड़ा नहीं जाता । मैंने भी रिश्ता नहीं तोड़ा है । हम कभी-कभार मिल सकते हैं, पराए लोगों की तरह...झूठी शान व नकली इज्जत को बघारते हुए ।
   आप ने अपनी झूठी शान के लिए मुझे मोहरा बनाया था, पर मैंने किसी को अपनी इज्जत का मोहरा नहीं बनाया । रितेश पूरे होशो-हवास में अपनी इच्छा से आए हैं । उन्हें भी घर में नकली-नकली सा दिखाई देने लगा था । अब हम यहीं रहेंगे...उस घर से दूर, उस घर से अलग । यह अलगाव भी कितना सुकून भरा है, क्योंकि अब मैं अपने स्वाभाविक रूप में हूँ । सरलता और गंभीरता भी कोई चीज होती है मम्मी जी । शेष फिर कभी । आपकी अंग्रेजी बोलने वाली बहू...’
   पत्र पढ़ते ही वह सन्न रह गई थीं । ऐसा कुछ होगा, इसका अंदेशा उन्हें नहीं था । घर में इस वक्त कोई नहीं था । धम्म से कुर्सी पर बैठते ही उनकी नजर आकाश पर जा टँगी थी । ध्यान सहेली के घर में जाकर रुका था । अच्छे-खासे लोग जुटे हुए थे बहू-भोज के अवसर पर । महिलाएं एक बड़े कमरे में मोर्चा संभाले बैठी हुई थीं । बहू अंदर आने वाली थी । जैसे ही वह शर्बत का ट्रे लेकर अंदर दाखिल हुई, सभी ने अपनी नजरों की मिसाइलों को उसकी ओर मोड़ दिया । बहू एक-एक कर सबके पाँव छूने लगी थी ।
‘बहू तो बहुत संस्कारी है ।’ किसी एक महिला की आवाज आई थी ।
‘पैर छूना तो अब ओल्ड फैशन...यू नो ! दूसरी महिला ने हस्तक्षेप किया था । वह मुँह बनाते हुए बोली, ‘पिछड़ी सोच वाले इसके पीछे मतवाले हैं । उन्हें क्या पता मॉडर्न क्या होता है । नया टाइम है, तो काम भी कुछ नया होना चाहिए । ये क्या बात हुई कि वही घिसी-पिटी चीजें, वही पुराने संस्कार...।’ इसके साथ ही कानाफूसियों का सिलसिला शुरु हो गया था ।
   पर सहेली ने इन सब बातों पर ध्यान नहीं दिया था । वह मुस्कुराते हुए बोली थी, ‘बहू, तुम बैठो इन लोगों के पास । इनके लिए नाश्ता लेकर मैं अभी आती हूँ ।’
‘नहीं माँ जी । यह शोभा नहीं देता ।’ बहू ने उसे बैठाते हुए कहा था और वह कमरे से बाहर निकल गई थी । उन दोनों को भले ही बुरा नहीं लगा था, पर मंगला को अच्छा नहीं लगा था। एक भय भी घुस आया था मन में । कहीं ऐसी ही अपनी भी बहू मिल गई तो?
   कुछ ही दिनों के बाद उस दूसरी महिला के घर जाना हुआ था । बहू के आगमन पर पार्टी दी गई थी सबको । आज देखती हूँ इसकी बहू को । उस दिन तो बड़ी झाड़ रही थी । मंगला ने सोचा था ।
   तभी बहू हाथ लहराते हुए अंदर आई थी । ‘हाय, कैसी हैं आप सब?’ और यह कहकर वह सबसे हाथ मिलाने लगी थी ।
‘आँखें खोल-खोल के देखिए आप लोग ।’ उस महिला ने छाती अकड़ाते हुए कहा था, ‘हमारी बहू साक्षात वाई-फाई है ।’
‘हाई-फाई होता है चाची ।’ किसी ने संशोधन करते हुए कहा था । कुछ महिलाएं हँस पड़ी थीं । ‘हाँ-हाँ हाई-फाई ।’ हँसते हुए उस महिला ने कहा था । फिर वह बहू की ओर मुड़ते हुए बोली थी, ‘बहू, तुम बैठो इन लोगों के पास । मैं इन सब के लिए नाश्ता ले आती हूँ ।’
‘मेरे लिए भी लाइएगा मॉम, बहुत जोरों की भूख लगी है ।’ और वह आराम से ईजी चेयर पर पसर गई थी ।
   मंगला को उस महिला का इतराते हुए कमरे से बाहर जाना अच्छा नहीं लगा था । एक भय और आ समाया था मन में । कहीं ऐसी मेरी बहू न हुई तो? वह मन ही मन किसी निश्चय की ओर बढ़ने लगी थी ।
   उस दिन मंगला का अहंकार सातवें आसमान पर था । अंग्रेजी ही अंग्रेजी में बोलने वाली बहू के सामने सभी महिलाओं के छक्के छूट गए थे ।वे सब पस्त मुद्रा में बैठी हुई थीं ।
   दरवाजे पर दस्तक के साथ ही वह वर्तमान में लौट आई थी । उठने की हिम्मत नहीं हुई थी कुर्सी से । वह उसी तरह पस्त मुद्रा में बैठी रही ।
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