केश तुम्हारे उड़े हुए हैं
जैसे बदली छिटके अम्बर में,
किस नीर को दौड़े जाते हो
इस भरे हुए
सागर में ।
कंचन काया
कहाँ गई वह
सूखी काया
लेकर बढ़ते,
जीवन में यह
कैसी होनी
अनहोनी को लेकर
चलते ।
कभी नयनों से आग टपकती
कभी इनसे है
सावन झरता,
आग-पानी का कैसा चक्कर
जीवन में यह क्या है घुलता ।
क्या मृत्यु
को देख लिया है
क्यों भय से सिमटे
लगते हो,
पीछे कोई
व्याघ्र पड़ा है
मृग जैसे भागे
लगते हो ।
जारी...
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