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एक समय था, जब हल और हाथ के सहकार की जरूरत थी । किसान हल चलाता था और
निराई-गुड़ाई-कटाई के लिए मजदूर की जरूरत पड़ती थी । हल की जगह ट्रैक्टर आ गये और
किसानों की बेरोजगारी की नींव पड़ गई । अब खेत में केवल मजदूर का काम था । इस तरह
किसान आधा मजदूर बन गया । हाथ...मतलब मजदूर के दिन फिर गये । डिमांड इतनी बढ़ी कि
ये कई राज्यों को निर्यात होने लगे । हाथ का आयात करने वाले किसान उद्योगपति की
भूमिका में आ गये । उद्योग की अच्छाई तो न आई, किन्तु बुराई सरपट दौड़ती आई । हल
हाथ का शोषक बन गया ।
हाथ पर एक और बिजली गिरी । मनरेगा तड़ित बनकर उतरा । हाथ को काम देने के
लिए आया, किन्तु ग्राम-प्रधानों के हाथ का हथियार बनकर हाथ का शिकार कर डाला । वे
हाथ जो हल से अलग काम कर रहे थे, राज्यों की राजनीतिक पाटों के बीच पिसने के लिए
अभिशप्त होते चले गये । उद्योग तो पहले से ही उन्हें पीस रहा था ।
ऐसे में बाबा की हुंकार बहुत मायने रखती है । वे खेतों में किसानों के बीच
जा रहे हैं । हल और हाथ की पुकार होने लगी है । हल के साथ समस्या यह है कि
ट्रैक्टर वाले ही आ रहे हैं । हाथ की कमी नहीं है । ये सारे हाथ तो थे ही, अब
कांग्रेसी-हाथ भी आ जुड़े हैं । बाबा हल और हाथ के साथ शेक-हैंड करना चाहते हैं ।
सभी बेरोजगारों, अर्ध-बेरोजगारों का महामिलन होगा, तभी कोई गुल खिलेगा । आँसू
बहाना नहीं...उस राज्य में गठबंधन का गुल खिलाना याद है...
लोग कहते हैं कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती, पर उस राज्य में तो चढ़ी
ही चढ़ी है । गरीबी का एक बार फिर धंधा कर कांग्रेसी बेरोजगारी दूर करने की बाबा
की कोशिश एकदम सही दिशा में है ।
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