जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

रविवार, 11 जून 2017

समाजवाद ने संन्यास ले लिया है

            


साभार - oneindia.com
   जो कभी अभूतपूर्व हुआ करते थे, वे अब भूतपूर्व हो चुके हैं । जिस समाजवादी स्टाइल में वे मोदक-मेवा के मनमोहक रसभोग उड़ाया करते थे, उस पर अब मुसीबतों की मार-ही-मार है । वे भी क्या दिन थे, जब समाजवाद की माला जपकर सब-कुछ को अपना बना लिया जाता था । समाजवाद ने बहुत कुछ दिया उन जैसे नेताओं को । मूँछ को समाजवादी घी लगाकर ऐंठते ही पहचान और मुस्कान के अनगिनत रास्ते खुल जाया करते थे । गुंडे, महागुंडे, परम गुंडे, चरम गुंडे, धरम गुंडे, बेशरम गुंडे, ज्ञानी गुंडे, अभिमानी गुंडे-सभी सम्मोहित होकर समाजवादी सैल्यूट ठोंकने लगते थे । पुलिस कहाँ जाने वाली थी ! उसके सामने बस दो ही विकल्प थे । या तो नेता गुंडों अथवा गुंडे नेताओं को सैल्यूट दो या फिर अपनी कनपटी पर उनके सैल्यूट की मार लो । एक चीज बहुत अच्छी हुआ करती थी । पुलिस के पास आराम था और गुंडों के पास काम । इस सैलूटा-सैलूटी के अलावा पुलिस आजाद थी सुखकारक समाजवादी नींद को उड़ाने के लिए ।
   इधर लालबत्ती की धमक और नेतागिरी की चमक चौंधियाती थी आम जन को, उधर उनके मन में समाजवाद जपना पराया माल अपना की प्यास उन्हें व्याकुल-पथ पर अग्रसर करती थी । लोग पीठ पीछे उन्हें ताने मारा करते थे । आम जन को अपने देश में यही एक मौलिक अधिकार हासिल है । ताने का उल्टा नेता ही होता है, इसीलिए वह तानों का बुरा नहीं मानता । यह ताने ही थे, जिनकी बदौलत वे नेता से घाघ नेता और इस तरह एक महान नेता बन सके ।
   महान नेता बनने के लिए कुछेक बेमिसाल गुणों का होना परम आवश्यक होता है । सबसे पहले तो उनके पास उच्च समाजवादी विचार थे । जिसका कोई नहीं होता, उसके समाजवादी होते हैं । यही समाजवादी विचारधारा उन्हें गुंडों का साथ देने और गुंडई करने के लिए उकसाती थी । पुलिस और गुंडों में समानता देख पाना केवल उनके ही नजरिए से सम्भव था । वैसे भी उच्च विचार ऐसे विभेदों को कहाँ मानता है ! पुलिस की तो कोई माई-बाप है, लेकिन गुंडे तो अनाथ हैं । एक अनाथ की पीठ पर अगर समाजवादी अपना हाथ न रखें, तो आप ही बताइए कि कौन रखेगा ।
   इसके साथ उनके पास चरित्र की महानता थी । कोई भी काम व्यक्तिगत स्वार्थ के अधीन होकर नहीं किया । बलात्कार हो या किसी की हत्या, लूट-खसोट हो या अपहरण-फिरौती-सब कुछ समाजवाद के लिए किया । यहाँ तक कि किन्हीं खास भैंसों को गुम कराना और उन्हें ढूँढने के लिए पुलिस को लगाने के पीछे भी एक समाजवादी मकसद ही था । बेटे को हीरो बनाना और बाप को जीरो बनाना भी समाजवादी हित के लिए किया गया । इस महान ऐतिहासिक घटना के दौरान उन्होंने भी अपने बाप को जमकर लानत-मलामत भेजा । गालियों का एक पूरा कंटेनर ही उस बाप के हवाले कर दिया ।
   लोग कहते हैं कि कानून और पुलिस के हाथ बहुत लम्बे होते हैं । पर समाजवाद का चमत्कार देखिए कि उसके सामने कानून बौना हो जाता है और पुलिस मौनी । ऐसे संकट की स्थिति में समाजवादी नेता आगे आता है और अपने हाथों को लम्बा करता है । इतना लम्बा करता है कि परती जमीन, ऊसर जमीन, उर्वर जमीन, रेल की जमीन, सरकार की जमीन, जलाशयों की जमीन, नदी-नालों की जमीन, बागों की जमीन, इधर की जमीन-उधर की जमीन-सब कुछ उसके हाथ की जद में आ जाते हैं । अपने अभूतपूर्व समय में उन्होंने भी जमकर अपने हाथों को लम्बा बनाया और कानून को हाथ लम्बा करने की अच्छी-खासी नसीहत दी ।
साभार - Puneet Agrawal
   उन दिनों का समय और आज का समय । आज घर में कदम रखते ही तूफान का सामना हो गया । पत्नी क्रोधायमान थी और प्रतिष्ठा की अग्नि में धू-धूकर जल रही थी । तूफान को थामने की गरज से उन्होंने पूछा, ‘अरे क्या हुआ भागवान, क्यों आसमान को हिलाने पर तुली हुई है?’
   ‘आज तो आसमान हिलकर रहेगा ।’ पत्नी ने चीखते हुए जवाब दिया, ‘सुना तुमने, पड़ोसियों की ऐसी मजाल हो गई कि हमारे पप्पू को पीट दिया । अभी निकलो घर से और उन नामुरादों पर ऐसा बान मारो कि...उनकी लात का जवाब अपने लात से दो ।’
   ‘नहीं कर सकता भागवान ।’ उन्होंने समाजवादी दर्द को पीने की कोशिश करते हुए कहा, ‘उस समय लातों की केवल आउटगोइंग हुआ करती थी, पर अब समय बदल गया है । आउटगोइंग भेजा, तो उधर से लातों की इनकमिंग हो जाएगी...वह भी फ्री में ।’ कहने के साथ ही उनका शरीर तो शरीर, रुह तक काँपने लगी थी ।
   ‘और हमारे भाई का क्या,’ पत्नी ने एक और गुस्से को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘अपनी मेहनत को वह यूँ ही सस्ते में छोड़ दे? उन जवाहरबागों की जमीन कोई कैसे वापस ले सकता है? उसकी अब तक रक्षा करने वाली पुलिस कहाँ है आखिर?’
   एक और दर्द जाग उठा जैसे सीने में । बेवफा से क्या उम्मीद की जाए आखिर । बुरे वक्त में तो परछाईं भी साथ छोड़ जाती है । पुलिस काम पर लौट आई है । वह अब हमारी क्यों सुनेगी भला !
   पुलिस के काम पर लौटने का मतलब ही है कि समाजवाद ने संन्यास ले लिया है । अब उसके संन्यास को तोड़ने के लिए उसी आम जन से चिरौरी ही एकमात्र रास्ता है, जिससे उसके नाम पर छल किया गया ।

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