जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

मंगलवार, 9 अगस्त 2016

मुफ्त की मौत से मधु की मौत भली

           
   सुबह-सुबह जब पड़ोसी दरवाजे पर दस्तक देता है, तो मस्तक में अजीब-अजीब से झटके गुलाटियाँ मारने लगते हैं । अब कौन-सा लफड़ा मोल लेने आया है मुझसे? मगर मैंने तो उसे उकसाने के कोई जतन नहीं किए पिछले दिनों । जरूर किसी तीसरे पड़ोसी ने पंगा लिया होगा, प्रत्यक्ष या परोक्ष । मुँह से बोलकर पंगा लिया तो क्या लिया, लेने वाले तो बिना बोले ही पंगा ले लेते हैं-अपने हस्त-व्यवहार से, नजरों की कटार से, हँसी की तलवार से, मौन की मार से, बे-बात जश्न के वार से ।
   दरवाजा खुलते ही उन्होंने मुझे ठेलते हुए एक तरफ हटाया और लपककर सोफे पर पसर गए । सच्चा पड़ोसी अंदर आने की अनुमति नहीं मांगता । यह तो पड़ोसी-शास्त्र द्वारा प्रदत्त उसका मौलिक अधिकार होता है । एक अच्छे पड़ोसी की तरह मुझे भी बैठने का इशारा करते हुए बोले, ‘जी सुना आपने, अपने उस पड़ोसी के तो खूब मौज-मजे हैं आजकल । पक खूब रहा है घर में पुलाव-खयाली, दिन में है होली तो रात दीवाली ।’ कहते-कहते दुख के पतनाले खुलने लगे थे चेहरे की दरो-दीवार में ।
   ‘यह तो अच्छी खबर है । हमें भी उनके साथ जश्न में शरीक होना चाहिए ।’ मैंने चहकते हुए कहा ।
   ‘बेशक शरीक होइए, मगर यह तो जान लीजिए कि जश्न की बुनियाद क्या है ।’ मेरी आँखों में आँखें गाड़ते हुए कहा था उन्होंने ।
   ‘जी कुछ सुना जरूर है । शायद सरकार आई थी उनके घर ।’ अपने ललाट को खुजलाते हुए मैं इतना ही बता सका ।
   ‘खैर, उस बात को आप पेंडिंग में डालिए कुछ समय के लिए । आप तो बस इतना बतलाइए कि कभी पार्टी-शार्टी का मजा लिया है जीवन में ।’ उनकी आवाज में अचानक एक रहस्य घुसपैठ कर गई थी ।
   ‘हाँ जी, कई बार किया है । अभी पिछले ही दिनों पप्पू के हैप्पी बर्थ डे में...’
   ‘अरे वो वाली नहीं ।’ उन्होंने बीच में ही मुझे बाधित करते हुए कहा, ‘वो भी कोई पार्टी है भला, जहाँ म से मधु न हो और झ से झूमना न हो ।’
   ‘तौबा-तौबा, आप भी कहाँ की-कैसी बात लेकर बैठ गए ।’ अचानक उछल पड़ा था मैं । नासिका अंगुलियों के द्वारा बंद होते चले गए थे ।
   वह कुछ देर तक मेरे हाव-भाव को घूरते रहे । फिर गंभीर स्वर में बोले, ‘जीवन तो लगता है कि निरर्थक बीत ही गया आपका । अब अपनी मौत को भी निरर्थक बनाना चाहते हैं । हटाइए हाथ अपने नाक से ।’
   ‘मैं कुछ समझा नहीं ।’
   ‘अपना वो पड़ोसी मधु-सेवन करते-करते मर गया । खूब सियापा मचा । बात सरकार के कानों तक पहुँची । सुनते ही सरकार इतनी खुश हुई कि उसे पाँच लाख का ईनाम दे दिया ।’
   ‘मैं अब भी कुछ समझा नहीं ।’ कहते हुए मैंने मूर्ख-सा मुखड़ा बनाया अपना ।
   ‘खैर, मैं बतलाता हूँ । सरकार एक तीर दो निशाने लगाना चाहती है । मधु का उत्पादन होगा, तो रोजगार बढ़ेगा । सरकार की कमाई होगी । पुलिस की उगाही होगी । जनता की भी भलाई होगी । दूसरी तरफ, मधु से मौत का दरवाजा खुलेगा । बढ़ती आबादी पर लगाम लगेगा । सरकार के पैसे से प्रोत्साहन मिलेगा । मुफ्त की मौत से मधु की मौत भली ।’
   ‘वाह, क्या सोचा है आपने ।’ मेरे मुँह से बेसाख्ता निकल पड़ा । हालांकि मैं यह नहीं समझ पाया कि उनकी प्रशंसा कर रहा हूँ या व्यंग्य के बोल छोड़ रहा हूँ ।
   वह अपनी रौ में बोलते चले गए, ‘मुझे तो भविष्य का वह दृश्य भी दिखाई दे रहा है । सनातन-धर्मी पिता शय्या पर अंतिम साँसें गिन रहा है । कंठ में गंगा-जल और तुलसी-पत्र डालने की बजाय मुद्रा-धर्मी सन्तान मधु की मधुरता उड़ेल रही है । मुख में मधु होगा, तभी सरकार को यकीन होगा । जाने वाले को तो जाना ही है, थोड़ी जल्दी सरक लेगा, तो क्या जाएगा उसका । कम-से-कम पीछे छूट जाने वालों के लिए तो मधु की मलाई की गारंटी हो जाएगी ।’

   सुनते ही यह मेरी आँखें चौड़ी होती चली गई थीं और मुख एक बार खुला, तो खुला ही रह गया । पड़ोसी धर्म का निर्वाह करते हुए मुझे इसी अवस्था में छोड़ वह सरक लिए थे ।

1 टिप्पणी:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

लोकप्रिय पोस्ट