हमारे पड़ोसी आँधी की तरह आए और हमें उड़ाते
हुए तूफान की तरह ले गए । इज्जत से बोले तो हमें लगभग घसीटते हुए ले गए । खली की
तरह उनका शरीर और मैं सिंकिया पहलवान । असहमति जताने या किसी किस्म का प्रतिरोध
करने की तनिक भी गुंजाइश नहीं थी । ऊपर से आजादी के जश्न का मौसम । वह आजाद-खयाली
से उसी तरह लबालब दीख रहे थे, जिस तरह मूसलाधार बारिश से हमारे आज के शहर । लबालब
होने के लिए हमारे शहरों के पास आजादी-ही-आजादी है ।
‘अरे, बताइए तो सही कि हमें कहाँ उड़ाए लिए जा
रहे हैं?’ उनकी पकड़ से थोड़ा आजाद होते हुए हमने पूछा ।
‘लो कर लो बात ।’ वह तनिक आश्चर्य से बोले, ‘जनाब
को इतना भी नहीं पता कि हम आजादी के जश्न में शरीक होने जा रहे हैं ।’
‘क्या आजादी भी रहती है इस मुल्क में, हमें
क्यों नहीं दिखाई देती?’ हमने अपनी ओर इशारा करते हुए कहा ।
‘अरे हाँ, लगता है कि मैंने आपको पकड़ रखा है
।’ उनके इतना कहते ही शायद मेरी आजादी मेरे पास लौट आई थी । इधर हमने दो-चार
लम्बी-लम्बी साँसें खींची, उधर वह आवाज को और ऊँचा करते हुए बोले, ‘इस देश में
अन्न-जल तो दुर्लभ हो सकते हैं, पर जो एक चीज इफरात में है, उसे आजादी ही कहते हैं
। आजादी यहाँ हमेशा सरप्लस में है ।’
‘चलिए, मान लेते हैं आपकी बात ।’ हमने थोड़ा
मुँह बिचकाते हुए बोला, ‘पर उसका कोई रूप-स्वरूप तो होगा...वह दिखती किस तरह है?’
‘है न । उसके रूपों की क्या कमी है ! उसे
देखने के लिए ज्ञान-चक्षु की जरूरत होती है । बंद आँखों से आप दुनिया को नहीं देख
सकते ।’
मेरी आँखें भी तो खुली हैं । फिर बंद आँखों की
बात...हमें उनकी बात अच्छी नहीं लगी, पर हमने अपने मुँह पर विराम लगाए रखा ।
उन्होंने बोलना जारी रखा, ‘प्राण-रक्षा के लिए खाना बहुत जरूरी है और हमारे देश
में खाने की आजादी-ही-आजादी है । संतरी से लेकर मंत्री तक, चपरासी से लेकर अधिकारी
तक, छोटे बाबू से लेकर बड़े बाबू तक, ठेकेदार से लेकर कोटेदार तक, सेवादार से लेकर
मेवादार तक, समाजसेवी से लेकर देशसेवी तक, चोर से लेकर पुलिस तक-सभी खा रहे हैं ।
चारा से लेकर अलकतरा तक, टूजी से लेकर कोयला तक, हेलीकॉप्टर से लेकर तोप तक, साबुत
चीजों से लेकर ताबूत तक- खाने की आजादी के चंद नमूने हैं ।’
‘सभी कहाँ खा रहे हैं?...पर सबके लिए आजादी
दिख जरूर रही है ।’ मैंने बीच में बोलते हुए कहा, ‘भूखे पेट को भूखा रहने की आजादी
है और भरे पेट को खाने की ।’
‘खाने के साथ पीना भी मूलभूत आवश्यकता है ।’
हमारी बात ने उनमें और जोश डाल दिया । वह हामी भरते हुए बोले, ‘बिल्कुल ठीक फरमाया
आपने । खाना अटक न जाए, इसके लिए कुछ गटकना जरूरी होता है । सादा पानी प्रभाव में
नगण्य होता है, इसीलिए रंगीन पानी की हर तरफ आजादी है । निषेध मजबूरी हो सकती है,
पर छिपा कर पीने की पूरी आजादी है । सत्तानवीस इज्जत पी गए, नौकरशाह मर्यादा । हर
तरफ ‘पानी’ की कमी पीने की आजादी का साक्षात प्रतिफल है ।’
‘ठीक कहा आपने । सादा पानी भले नसीब न हो, पर
कोका-कोला गटकने की जबर्दस्त आजादी है ।’ हमने एक बार फिर अपनी बात को टैग करते
हुए कहा ।
‘खाने-पीने के बाद जो ऊर्जा उत्पन्न होती है,
उसके सुरक्षित निर्मुक्ति के लिए बोलने की आजादी एक निरापद युक्ति है । बोलने की
आजादी के लिए सर्वश्रेष्ठ पवित्र स्थान संसद है । वहाँ जितने हंगामें होते हैं,
बोलने की आजादी उतनी ही मजबूत होती है । गाली-गलौज, असहिष्णुता-असहिष्णुता,
गाय-गाय, दलित-दलित-बोलने की आजादी के नवीनतम उदाहरण हैं । भारत तेरे टुकड़े
होंगे...इंशाअल्लाह-इंशाअल्लाह-बोलने की आजादी का नायाब नमूना है ।’ वह तनिक रुककर
फिर बोले, ‘इतनी आजादियाँ हैं, फिर भी आपको आजादी दिखाई नहीं देती ।’
‘वह तो ठीक है, पर आजादी...’
‘आजादी इतने पर ही आकर नहीं रुक जाती । मनुष्य
को रहने के लिए मकान चाहिए और मकान के लिए जमीन । प्राण-रक्षा की आजादी का तभी कोई
मतलब है, जब मकान और जमीन पर कब्जे की आजादी हो । आज हर तरफ कब्जा हो रहा है ।
आदर्श सोसायटी, बुलंदशहर ही नहीं, असंख्य इलाके इसी आजादी से सराबोर हैं । इस
आजादी की कीमत नेता तो नेता, टुटपूँजिए कार्यकर्त्ता तक समझ गए लगते हैं । आजादी
के इतने सालों में उन्होंने बहुत कुछ के साथ यह भी सीख लिया है ।’
‘कोई और आजादी, जो आप...’
‘आजादी-ही-आजादी है ।’ वह बीच में ही टपकते
हुए बोले, ‘खाने-पीने-बोलने-सोने की आजादी क्या कम आजादी है, जो आप कोई और...’
‘पर हमें क्यों लगता है कि आजादी की कुछ कमी
है । आप ‘संचित’ की बात कर रहे हैं, पर ‘वंचित’ तो आजादी तलाश रहा है । यहाँ जीने
की आजादी पर सैकड़ों रोक-टोक हैं, पर मरने की पूरी आजादी है ।’
इतना सुनते ही वह रुके, एक पल को सोचा । अगले
ही पल वह हमें छोड़कर अपने घर की ओर बढ़ रहे थे ।
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