साधो, बचपन से यही पढ़ा और सुना है कि लालच
नहीं करनी चाहिए, क्योंकि लालच एक बुरी बला है । लालच की प्यास मिट जाए, ऐसे उपाय
सदा करते रहना चाहिए । पर इधर एक कंपनी का विज्ञापन धमाल मचाए हुए है । कंपनी अपना
शरबत बेचने के लिए चाहती है कि लोग लालच की अपनी प्यास को बुझने न दें । वैसे
चिलचिलाती धूप की धमकी और धक्का खाए कितने आम इंसान ऐसे होंगे, पता नहीं, जो प्यास
को बुझने न देने की हिम्मत रख पाते होंगे । वे तो प्यास के उफान मारते ही सामने
ब्लैक एंड व्हाइट या कलर जो भी मिले, गटक लेते हैं । गटकने की एक बड़ी वजह उसका
सस्ता होना भी होता है । कंपनी के शरबत तक लालच की प्यास को थर्मामीटर के पारे की
तरह चढ़ाने के लिए उनके पास न तो समय होता है और न ही आर्थिक ऊर्जा । कंपनी के
शरबत के लिए जेब में अच्छी और टिकाऊ ऊर्जा का होना अनिवार्य शर्त है ।
वैसे लालच की प्यास बुझ गई होती, तो परम
विद्वान रावण न तो सीताजी का अपहरण करता और न ही खुद सहित अपने सम्पूर्ण वंश के
विनाश का कारण बनता । लालच उसके लिए बुरी बला साबित हुई । महाभारत की लड़ाई को कोई
जानता तक नहीं, अगर दुर्योधन ने लालच की अपनी प्यास बढ़ाई न होती । उसने लालच की
प्यास को इतना बढ़ाया कि सुई की नोंक के बराबर भी जमीन देना असहनीय हो गया । लालच
की उसकी प्यास उसे मृत्यु तक घसीट कर ले गई ।
पर आज के समय में लालच एक कला अवश्य बन गई है
। राजनीति कभी समाज की सेवा का साधन शायद रही हो, पर आज वह पैसा बनाने और देश को
दुहने की एक कला है । लालच की कला इतनी प्रभावी है कि उसने राजनीति को भी एक कला
में बदल दिया । चारा घोटाले में भैंसों को स्कूटर से ढोया जाना क्या कला की अनुपम
प्रस्तुति नहीं थी । लालच की प्यास बुझ गई होती, तो यह महान कलाकारी देखने को कैसे
मिलती ? अपना देश महान घोटालों से वंचित बना रहता और वह दुनिया की
नजरों में नहीं आ पाता, यदि लालच की प्यास न होती । घोटालों के वृहद स्वरूप ने यही
साबित किया कि लालच की प्यास आदमी को न केवल कलाकार बनाती है, बल्कि
लोमड़ी-चातुर्य का दान देकर प्रतिभावान भी बनाती है ।
सुना है कि नेताओं को यह विज्ञापन खूब भा रहा है
। उन्होंने तो शरबत पीना भी शुरू कर दिया है, ताकि लालच की
प्यास और भड़के । लकीर का फकीर होने से विकास नहीं होता । लालच अब बला नहीं, एक कला है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें