जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2015

बहुत शर्मिंदा हूँ...

        लगता है आपने वापस कर ही दिया –  पड़ोसी ने अचानक दस्तक दी । हाँ जी, अखबार तो कब का वापस कर दिया । मैंने तपाक से जवाब दिया ।
    अरे भई, मैंने अखबार की बात कब की...मैं तो सम्मान वापसी की बात कर रहा था ।
    अच्छा, आप सम्मान की बात कर रहे हैं । मगर उसे कैसे वापस करूँ ? वह तो मेरे वश में ही नहीं है ।
    क्या मतलब...मैं कुछ समझा नहीं ? पड़ोसी ने अज्ञानता के भाव दर्शाए - आप के पास रखी चीज आप ही के वश में नहीं है ।
    वो क्या है कि...मैंने समझाने की कोशिश की – पिछले महीने बेटे की शादी की थी । कुछ आम लोगों को ही बुलाया था उसमें । मेरी इस हरकत पर सारे खास लोग जल-भुन गये और उन्होंने मुझे परंपरागत गालियों से सम्मानित कर डाला । अब आप ही बताइए...
    पड़ोसी बीच में ही टपक पड़े – मैं उस सम्मान की बात नहीं कर रहा । सम्मान मतलब...जो आपने पढ़ाई, कमाई, लिखाई के दौरान जुगाड़ के दम पर लपका हो । आजकल सम्मान वापसी नामक एक यज्ञ का आयोजन किया गया है, जिसमें सभी बुद्धिजीवियों को अपनी-अपनी आहुतियाँ डालनी हैं ।
    समझ गया...आप क्या कहना चाहते हैं । पढ़ाई के दौरान स्कूल में प्रथम आने पर एक सम्मान पत्र मिला था, पर उस पर चना-चबेना खाकर मेरे बच्चों ने कब की सम्मान की ऐसी-तैसी कर डाली थी । कमाई के दौरान एक बार जबर्दस्त छक्का मारा था । दरअसल इसके पहले इक्की-दुग्गी ही मारा करता था । इस शानदार प्रदर्शन से बॉस इतने खुश हुए कि मुझे अपने घर पर ही बुला डाला । उन्होंने मुझे समझाया कि एक स्कवायर कट पर ही नीचे वाले का हक बनता है...बाकी तो सब माया ऊपर वाले की है । बिना व्यवधान उनका ज्ञान हजम कर लेने पर अगले दिन भरे दफ्तर में प्रशस्ति पत्र दिया गया । कार्य के प्रति निष्ठा का इनाम अवश्य मिलता है ।
    अब रही बात लिखाई की, तो लिखे जा रहा हूँ । नक्कारखाना में ज्यों तूती, होती मुझे वही अनुभूति । इतना सुनते ही उन्होंने मुझ पर लानत की निगाह डाली और चले गये ।
    सत्य है...सम्मान वापसी के इस यज्ञ में अपनी तरफ से आहुति डालने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है । अपनी अकिंचनता और बेचारगी पर शर्मसार हूँ मैं ।  

मंगलवार, 27 अक्टूबर 2015

चलो दिलदार चलो, चाँद के पार चलो

    मंगल और चाँद से मंगलकारी खबरें आ रही हैं । धरती पर अमंगल मचाने वाले लोग पूरे जोश में हैं । वहाँ पर बसने के मैराथनी दौड़ में जबर्दस्त प्रतियोगिता और टांग-खिचाई जारी है ।
    इस दौड़ में सबसे आगे वेलेंटाइन प्रेमी हैं । धरती पर उनका वेलेंटाइनी प्रेम खतरे में है । खुल्लम-खुल्ला प्रेम और बीच सड़क पर प्रेम का इजहार न किया, तो भला प्रेम कैसा ! मर्यादित तरीके से प्रेम कर लिया, तो यह किस बात का वेलेंटाइन प्रेम ! ये प्रेमी अपनी आजादी में किसी किस्म का खलल नहीं चाहते, पर हमेशा बाधा उत्पन्न हो जाती है ।
    दौड़ में इन प्रेमियों के पीछे शिव सैनिक चिपके हुए हैं । मर्यादा की प्रारम्भिक जिम्मेदारी इन्हीं सैनिकों की है । वेलेंटाइन प्रेमियों की कुटाई के बिना इनकी बहादुरी अधूरी है । मतलब जहाँ वेलेंटाइन प्रेमी, वहाँ शिव सैनिक । इन सैनिकों की कई बटालियनें वहाँ पहुँचने की फिराक में हैं ।
    सैनिकों के पीछे कांग्रेसी खड़े हैं । अब इस धरती से उनका दाना-पानी उठने को है । कांग्रेस आजादी की फसल काटने की उस्ताद है । मंगल और चाँद पर आजादी के लिए संघर्ष करने की जरूरत नहीं है, किन्तु फसल काटने के लिए तो कोई होना चाहिए । इस लिहाज से कांग्रेस के वहाँ बसने का हक बनता है । उसके हक का सम्मान होना ही चाहिए ।
    इन ग्रहों पर अभी इतिहास की शुरुआत करनी है । इतिहास की शुरुआत होगी, तो उसको कलमबंद करने वाले भी चाहिए होंगे । इस काम के लिए वहाँ ठेका निकालना पड़ेगा । धरती पर तो इतिहास को लिखने का ठेका कम्युनिस्टों के पास रहा है । वहाँ भी इतिहास पर सर्वप्रथम अधिकार इन्हीं का बनता है । अतः बसने की दौड़ में ये भी आगे बने हुए हैं ।
    घोटालेबाज और भ्रष्टाचारी भी बहुत पीछे नहीं हैं इस दौड़ में । वहाँ इनके बसने के अधिकार पर बहुत लोगों को आपत्ति हो सकती है । पर इनका वहाँ जाना अत्यन्त आवश्यक है । धरती पर घोटाले और भ्रष्टाचार देखने के लोग इतने आदी हैं कि वहाँ ये सब चीजें न होने पर बेचैनी का अहसास होगा । इस काम के लिए नेता और बाबू पर्याप्त होंगे ।

    धरती से खिन्न हो चुके लोग तो बेसब्री से इंतजार में हैं कि कब सुनने को मिले...चलो दिलदार चलो...  

गुरुवार, 22 अक्टूबर 2015

बाबुओं पर दोहरी मार

                       
    एक खबर आई है कि सरकार को अब बाबुओं पर भरोसा नहीं रहा । महंगाई के मामले में सरकार उन पर यकीन करना नहीं चाहती । इस खबर ने बाबुओं को किसानों की श्रेणी में ला खड़ा किया है । किसान दोहरी मार की गिरफ्त में रहता है । एक प्रकृति की, दूसरा शासन की । बाबुओं पर भी दोहरी मार आन पड़ी है । दोनों मार शासन की तरफ से है । सरकार की इच्छा है कि बाबू रिश्वत कतई न लें ओर महंगाई रोकने में भी अपनी भूमिका निभाएँ ।
    जी हाँ, बाबुओं की महंगाई रोकने में बहुत बड़ी भूमिका है । अपने देश में महंगाई पर लगाम कसने के तीन प्रमुख उस्ताद हैं । सरकार, रिजर्व बैंक और बाबू । सरकार और रिजर्व बैंक कभी-कभार अपनी उस्तादी दिखाते हैं, पर बाबू महंगाई को रोकने के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहता है । उसकी निगाह लोगों की जेब पर एक जेबकतरे से भी अघिक ढिठाई के साथ टँगी रहती है । वह लोगों से रिश्वत लेकर उनकी जेब में पैसे कम कर देता है । जेब में पैसे कम होते हैं, तो बाजार में भी कम पैसे आते हैं । कम पैसे की वजह से माँग कम होती है और जब माँग कम होती है, तो महंगाई काबू में आने लगती है । बहुत ही सीधा सा फंडा है बाबुओं का, महंगाई को लगाम लगाने का ।
   अब सवाल है कि बाबू रिश्वत क्यों न ले ? रिश्वत लेना उसका स्वभाव नहीं है । परहित की कामना से वह ऐसा करता है । देश की भलाई के लिए वह रिश्वत का विष अपने गले में धारण करता है और न्यून महंगाई का अमृत समाज में उड़ेल देता है । जहाँ किसान महंगाई का मारा होता है, वहाँ यह महंगाई को ही मार देता है ।
     वैसे  मुझे बाबुओं की प्रतिभा पर पूरा यकीन है । सरकार लाख प्रयत्न करे, बाबू कोई न कोई जुगाड़ निकाल ही लेंगे । जिस तरह एक जादूगर की जान तोते में होती है, उसी तरह एक बाबू की जान रिश्वत के पैसों में होती है । रिश्वत नहीं, तो बाबू नहीं ।
    किसान दोहरी मार की गिरफ्त से निकले, न निकले, पर बाबू अवश्य निकल जाएगा । वह बाबू यूँ ही नहीं बना है । कोई तो बात है उसमें !  

     
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