जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

समाजवाद की रामलीला

                   
    महाराज सियार बात से बलशाली हैं । हर जगह वे पूरी निडरता से कहते फिरते हैं कि अगले चुनाव में सरकार उनकी ही बनेगी, पर उनकी आत्मा सहमी-सहमी सी है । अंदर चिंता का वाइरस चित्त को खाए जा रहा है । वे राजसिंहासन पर पहलू बदलते हैं । तभी प्रधानमंत्री हाथी का प्रवेश होता है । झुकते हुए,महाराज का इकबाल बुलंद हो । आपने जो जिम्मेदारी सौंपी थी, उसे कर दिया गया है
   मतलब...रामलीला के मंच पर चीयर लीडर्स का आगमन हो गया ?’ महाराज की बाँछें खिल उठती हैं ।
   ‘हाँ महाराज, बहुत समय से आरोप था कि हम लोग समाजवाद से दूर हटते जा रहे हैं । भक्ति संगीत से पक्षपाती ढंग से चिपके हुए हैं और चीयर लीडर्स के साथ अन्याय कर रहे हैं  
   समाजवाद की नजर में सब बराबर हैं । क्या झूमते भक्त और क्या नाचती बालाएं !’ महाराज झूमते हुए कहते हैं कि तभी खबरी खरगोश दरबार में प्रवेश करता है ।हुजूर की जय हो, घुटनों तक झुकता है और आगे कहता है, महाराज, गजब हो गया । रामलीला में रावण की लीला शुरु हो गई है । वह अब किसी की नहीं सुन रहा...
   खबरी, तुम्हारी यही बात हमें पसन्द नहीं महाराज झल्ला उठते हैं, तुम पहेलियाँ बहुत बुझाते हो
   पहेली नहीं महाराज, सच्ची कह रहा हूँ । रामलीला के मंच पर कुछ ऐसा ही दृश्य उभर आया है उसके अनुसार पहला दृश्य इस तरह है—रावण सीता का अपहरण करने पहुँचा हुआ है कि तभी उसकी नजर मंच के किनारे खड़ी चीयर लीडर्स पर पड़ती है । वह आव देखता है न ताव, एक चीयर लीडर को कंधे पर लादकर भागने लगता है । सीता चिल्लाती हैं, खबरदार जो उसे लेकर भागा । अपहृत होने के लिए मैं आरक्षित हूँ । मेरा हक यह चीयर लीडर नहीं छीन सकती । रावण उनकी एक नहीं सुनता और उसे लेकर निकल जाता है ।
   महाराज की उत्सुकता बढ़ती है । वे आगे सुनाने को कहते हैं । खबरी खरगोश अगला दृश्य कुछ यूँ उपस्थित करता है—राम और रावण का युद्ध चल रहा है । इकत्तीस बाण लग चुके हैं और बत्तीसवें पर उसे धराशायी होना है । तभी उसकी नजर युद्ध-भूमि से फिसलती हुई एक सुंदर चीयर लीडर के चेहरे पर जा गिरती है । वह मरने से इंकार कर देता है । डंके की चोट पर ऐलान करता है कि अब रावण नहीं मरेगा । हर बार जिंदा करके लोगों ने उसका मजाक बना दिया है । अब तो थक-हार कर राम को ही मरना होगा ।

   रामलीला के मंच पर उपस्थित समाजवादी प्रश्नों को महाराज सियार कैसे हल करते हैं, यह देखने वाली बात होगी ।      

मंगलवार, 24 नवंबर 2015

बाबा पर यूँ शक ना लाओ

    
                     
   वे कोई ऐरे-गैरे बाबा नहीं हैं, हमारे-आपके घरों के बाबाओं की तरह । वे देश के बाबा हैं, इसीलिए खास हैं । मामूली घरों के बाबा भी प्यार-दुलार तो खींच ही लेते हैं । खिलौनों से खेलना और जी भर जाए, तो उसे तोड़ देना उनका हक बनता है । तो क्या बाबा का हक नहीं बनता कि वे भी खेल खेलें । उनके लिए तो पूरा देश ही खिलौना है ।
    हमें आभार मानना चाहिए उन साहेबान का, जिन्होंने देशवासियों को बताया कि अपनी माँ के अतिरिक्त देश की भी एक माता होती है । उन्हीं की बदौलत देशवासी देश की माता को जान-समझ पाए, अन्यथा वे तो विस्मृति और अज्ञानता के गर्त में डूबे हुए थे । देश के बाबा होंगे, तो क्या देश की माता का अस्तित्व नहीं होगा ?
    पार्टी या देश का सर्वोच्च पद तब तक अपने को धन्य नहीं मान सकता, जब तक बाबा उस पर सुशोभित न हों । सोचने वाली बात ये है कि उस पद के लिए ऐसे कौन से गुण हैं,  जो बाबा में नहीं हैं । बाबा तो सर्वगुणसम्पन्न हैं । सबसे पहले तो वे उस परिवार से आते हैं, जिसकी सेवा यह देश पिछले साठ सालों से लेता आया है । सेवा के मेवा पर उन्हीं का हक है । वे झूठ बोलने में उस्तादी ग्रहण करने के निकट हैं । झूठ बोलना राजनीति का खास स्तम्भ है । उनकी दृढ़ता कमाल की है । एक बार मुँह से सूट-बूट निकल गया, तो उस पर युगों तक अटल बने रहेंगे । अज्ञातवास में जाने की उन्हें महारत हासिल है । वे अक्सर अपने लोगों को बीच मझधार में छोड़ विदेशी अज्ञातवास में चले जाते हैं, शारीरिक और मानसिक शक्ति संग्रहित करने । यहाँ यह आरोप प्रथम-दृष्टया सही नजर आने लगता है कि बाबा को ब्रिटेन की नागरिकता हासिल है ।
    बाबा पर उनकी नेतृत्व क्षमता को लेकर उनकी अपनी ही पार्टी के लोगों को शक है ।  नेतृत्व सृजन के लिए भी होता है और विध्वंस के लिए भी; किसी को आगे बढ़ाने के लिए भी होता है और किसी की टांग खींचने के लिए भी । ध्यान से देखा जाए, तो उन्होंने प्रधानमंत्री की टांग को मजबूती से पकड़ रखा है और उसे अनवरत खींचने के उपक्रम में लगे हुए हैं । क्या यह उनकी नेतृत्व क्षमता का सुबूत नहीं है ?

    बाबा पर शक करना देश पर शक करना है और देश पर शक नहीं किया जाता ।

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

ये कहाँ आ गये हम

               
    महल में बुद्ध का मन बहुत बेचैन है । तमाम बंदिशों को दरकिनार कर वे बाहर निकल पड़ते हैं । साथ में उनका सारथी चन्ना भी है । रथ को हाँकता हुआ चन्ना उन्हें बहुत दूर ले जाता है । सड़क मार्ग से होते हुए वे एक विशाल मैदान में आ पहुँचते हैं । अचानक उनकी नजर एक विचित्र प्राणी पर पड़ती है । वह हरी-हरी मखमली घासों पर लोटपोट हो रहा है । वह कभी गधे की तरह रेंकता है, कभी घोड़े की तरह हिनहिनाता है और कभी भालू का अवतार नजर आता है ।
    सारथी, क्या दुख है इसको, जो यह इस कदर बेचैन है ? बुद्ध का मुँह सारथी की ओर घूमता है ।
    दुख नहीं राजकुमार, सुख की आमद ने इसे इतना बेचैन कर दिया है कि यह लोटपोट हुआ जा रहा है । बहुत समय के बाद इसे हरियाली दिखाई दी है । आइए, इसी से जानते हैं । चन्ना के साथ वह उस प्राणी के निकट पहुँचते हैं । उन्हें देखते ही उसकी खुशी फूट पड़ती हैआओ, आओ भइया, एकाध गाल अपने घोड़े को भी मार लेने दो इन घासों पर । चारा ही चारा है चारों तरफ । इतना कहते हुए वह फिर लोटपोट होने लगता है ।
    रथ आगे बढ़ जाता है । काफी चलने के बाद एक अजीब सा महल दिखाई देता है । वहाँ दो रक्षक खड़े हैं । एक महल को पीछे से विध्वंस कर रहा है । अगला रक्षक उनकी नजरों में छिपे प्रश्न को ताड़ लेता है और जवाब देता है—यह महल कोई साधारण महल नहीं है...यह विकास का महल है ।...मैं ही इसका वास्तुकार हूँ ।
    किन्तु यह विध्वंस ? राजकुमार की तरफ से चन्ना पूछता है ।
    रक्षक हँसता है—विध्वंस होगा, तभी तो सृजन होगा । लगातार यह होगा, तभी तो विकास का महल सदा-सर्वदा नूतन दिखाई देगा ।
    बुद्ध का असमंजस और बढ़ जाता है । चन्ना रथ को आगे बढ़ाता है । कुछ दूर चलने पर ही उन्हें एक जंग लगा रथ खड़ा दिखाई देता है । रथ पर एक गधा जुता हुआ है और उसपर एक महिला सवार है । पीछे से पच्चीस लोग उसे धक्का मार रहे हैं । गधा इतना अड़ियल है कि टस से मस नहीं हो रहा है । पूछने पर महिला बताती है कि बहुत समय से रथ हमारा अँटका हुआ है । ये पच्चीस लोग आ गये हैं...उम्मीद है, अब ये आगे बढ़ेगा ।

    कितना दुख है इस संसार में । बेचारी महिला...। बुद्ध गृह-त्याग का मन बनाते हैं और चन्ना को वापस विदा करते हैं ।

शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

फकीरा नाचे बीच बाजार

                          
      मुफ्त का चंदन, घिस मेरे नंदन । चंदन भले न लगाते हों, किन्तु मुफ्त का मिले, तो घिसने में क्या बुराई है । यह हमारे समाज का एक खास दर्शन है और इसके दर्शन-लाभ के लिए हम सदा लालायित रहते हैं । हमारे यहाँ एक कहावत भी प्रचलित है कि मुफ्त का जूता भी आगे बढ़कर अंगीकार कर लेना चाहिए । एक तो इससे सहनशीलता की परीक्षा हो जाती है । दूसरा, कुछ अनुभव भी मिल जाता है । जब बन्दा लगातार इस राह पर चलने लगता है, तो फोकटगिरी के उच्च प्रतिमान खुद-ब-खुद उसके चरणों को चूमने लगते हैं ।
    किसी और समाज में मुफ्त पर लट्टू होना भले ही कमजोर चरित्र की निशानी हो, पर हमारे सामाजिक चरित्र को इससे मजबूती मिलती है । हमारी इसी मजबूती को आज का बाजार अपना आधार बनाता है । वह उन सारी चीजों को सुगमतापूर्वक बेच देता है, जिनकी उपयोगिता हमारे लिए न के बराबर होती है । वह उन चीजों को भी डंके की चोट पर बेच देता है, जो हमारे स्वास्थ्य से खुल्लम-खुल्ला खिलवाड़ करती हैं ।
    बन्दा हाथ-पैर तोड़कर टीवी देख रहा होता है कि तभी एक गाड़ी का विज्ञापन आता है । इस त्यौहार खूब कीजिए सैर-सपाटा । आधी रात तक मौज-मस्ती कीजिए । अपने लिए, अपनों के लिए ढेर सारी खरीदारी कीजिए । खुली हवा में जमकर घूमिए और जीवन का पूरा लुत्फ उठाइए । तभी एक दूसरा विज्ञापन नमूदार होता है । ई-शॉपिंग का है जमाना, आपको कहीं नहीं है जाना । कहीं जाने के नाम पर नहीं खोना आपा, समझ गये न बिट्टू के पापा । बेचारा दर्शक, एक उसे आगे खींच रहा है, तो दूसरा उसके पैरों में लंगड़ी मार रहा है । जाएं तो जाएं कहाँ...
    अभी इसी उधेड़बुन में डूबा है कि एक और धमाका होता है । शानदार ऑफर !...ऐसा मौका फिर कहाँ मिलेगा...एक आईफोन पर एक आईफोन बिल्कुल मुफ्त । आईफोन बन्दा अफोर्ड नहीं कर सकता, पर मुफ्त वाला झटका भी तो चार सौ चालीस वोल्ट का है । वह अड़ोसियों-पड़ोसियों नाते-रिश्तेदारों की चौखट पर नाक रगड़ता है और मुफ्त को अपना बना लेता है ।

    अनगिनत चीजें हैं, जिनको मुफ्त में पाने की ख्वाहिश उसे बीच बाजार में खड़ा कर देती है । बजट स्वाहा होने से कई अनिवार्य जरूरतें भी स्वाहा हो जाती हैं । बन्दा फोकटगिरी के चक्कर में नाच रहा है...फकीर होकर नाचना भी उसे मंजूर है । 

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

अवसरवाद का स्वर्णकाल

                    
    साधो, अवसरवाद उस वाद को कहते हैं, जिसमें बन्दा सही अवसर को ताड़कर अपना उल्लू सीधा कर ले । इसमें अवसर का उतना ही महत्व है, जितना बन्दे की उस प्रतिभा का, जो अवसर को झट पहचान ले ।...मतलब अवसरवादी इस अर्थ में अवश्य प्रतिभावान होना चाहिए । अवसरवाद हर देश-काल में रहा है । अवसरवादी ने कहाँ और कब लाभ नहीं उठाया है ? हानि उठाने वाला अवसरवादी नहीं हो सकता ।
    पहले अवसरवाद शर्म का विषय हुआ करता था । अत: अवसरवादी लोगों की आँखें बचाकर इस वाद को अमलीजामा पहनाया करता था । मगर अब यह शर्म की चीज नहीं रही । हमें शुक्रगुजार होना चाहिए उन लोगों का, जिन्होंने इसे गर्व की चीज में तब्दील कर दिया है । आप बेधड़क अवसरवादिता दिखाइए और गर्व के एवरेस्ट पर चढ़कर फख्र महसूस कीजिए ।
    अवसरवाद एक उच्च कोटि का विज्ञान है । इसमें एक व्यवस्थित योजना पर काम किया जाता है । सतत एवं व्यापक निगरानी की जाती है । लाभ के बिन्दुओं को एकत्रित किया जाता है और हानि पहुँचाने वाले तत्वों को डस्टबिन में डाल दिया जाता है, ताकि हानि की गुंजाइश न रहे । सारे लाभ के तत्वों से बना यह यौगिक ही अवसरवाद होता है । यह एटम बम की तरह धमाका भी कर सकता है, पर अपने साधक को यह तनिक भी नुकसान नहीं पहुँचाता ।
    विद्वान लोग इसे कला भी मानते हैं । कला में सृजन का तत्व निहित होता है, इसमें भी है । जिस तरह एक कलाकार पत्थर का विध्वंस करके प्रतिमा का सृजन कर देता है, उसी तरह अवसरवादी भी स्वहित की प्रतिमा का सृजन करता है । अब यह अलग बात है कि काट-छाँट के रूप में यदि समाज व देशहित भी निकालना पड़े, तो उसे संकोच नहीं होता । 
    इस वाद को साधना इतना आसान भी नहीं है । साधक में बौद्धिकता के कीटाणु मौजूद होने चाहिएं तथा टाइमिंग में उसे महारत हासिल हो । टाइमिंग बहुत बड़ी चीज होती है । सटीक समय को जानने वाला ही सच्चा अवसरवादी होता है ।
    अवसरवाद कभी बड़े पैमाने पर संगठित नहीं हुआ । उसके पीछे किसी संगठन का हाथ नहीं रहा, पर आज वह संगठित है । उसके पीछे कई संगठनों का हाथ स्पष्ट दिखाई दे रहा है । एक अवसरवादी दूसरे अवसरवादी को फूटी आँखों नहीं सुहाता, किन्तु आज ये गलबहियाँ किए खड़े हैं । इनकी एकजुटता अभूतपूर्व है । ये सारी चीजें इस बात का सबूत हैं कि अवसरवाद का स्वर्णकाल या तो आ चुका है या सन्निकट है ।     


शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

आप जानते हैं इनका मुकद्दर

                           
    जब दानों के सौगात की बात होती है, तो किसान भी जेहन में आते हैं । जहाँ दाना है, वहाँ किसान है और जहाँ किसान है, वहाँ दाना है । दोनों का अस्तित्व एक दूसरे से है । हमारे देश में किसान ही किसान हैं । सौभाग्य से अनाज के दाने भी भरपूर मात्रा में होते हैं । इसीलिए हमारे देश में न तो किसानों की इज्जत है और न अनाज के दानों की । आदमी की फितरत होती है कि जो उसके पास है और भरपूर है उसकी चिंता या इज्जत वह नहीं करता । इसके उलट वह उन चीजों की चिंता करता है और उनके पीछे दौड़ता है, जो उसके पास नहीं है ।
    किसानों की आत्महत्या पर लोग बिना सोचे-समझे सरकार को कोसने लगते हैं, जबकि सरकार सोची-समझी रणनीति के तहत किसानों को मरने देती है । किसान तेजी से मरेंगे, तभी उनकी संख्या कम होगी । इस देश की सरकार किसानों की संख्या के अभाव के लिए लालायित है, ताकि वह उनकी इज्जत कर सके ।
    अनाज के दानों और किसानों के बीच दलाल हैं, नौकरशाह हैं और सरकार भी है । किसानों की तुलना में इनकी संख्या नगण्य है, इसीलिए मामूली शरीर हिलाकर सारी मलाई खाने के हकदार हैं ये । इसे बहुमत पर अल्पमत के लाभ का सिद्धान्त कहते हैं । इस देश का लोकतंत्र इसी खास सिद्धान्त से संचालित है ।
    पिछले सालों की तरह इस बार भी अनाज के दाने सड़ रहे हैं, उन्हे कीड़े खा रहे हैं । ये चीजें सरकार की दयालुता और बुद्धिमत्ता को ही प्रदर्शित करती हैं । आदमी का क्या है ! वह सक्षम प्राणी है, विवेकशील है, अपने खाने का जुगाड़ किसी भी तरह कर सकता है । कचरे में रोटी का टुकड़ा ढूँढ सकता है, गोबर में दाने खोज सकता है, नालियों के पानी से पके अन्न के दाने निकाल सकता है, किसी के हाथ से छीन सकता है, भीख मांग सकता है, चोरी कर सकता है । ढेरों विकल्प हैं उसके पास । पर बेचारे कीड़े-मकोड़े अक्षम जीव हैं । उनके लिए तो सरकार उसी तरह है जैसे किसी भक्त के लिए मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई । ऐसे में सरकार उनकी चिंता क्यों न करे ? सरकार को दयालु होना चाहिए । क्रूरता सरकार का धर्म नहीं है ।

    अत: किसानों का मरना और दानों का सड़ना अबाध गति से चलते रहना चाहिए । किसानों की भलाई इसी में है और देश-धर्म की भी ।

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

देश है पस्त, दाल है मस्त


  
                        
    दाल ने गलने से मना कर दिया है...पता नहीं कहाँ से उठा लाते हो । पत्नी की तड़तड़ाती आवाज आई और मेरा दिल धक्क से रह गया । जब से दाल पाताल-उन्मुखी हुई है, तभी से मेरी पत्नी भी ज्वालामुखी हो गई है । अक्सर उसके मुँह से निकलते लावों का सामना करना पड़ता है मुझे । कुकर की सीटी मंद पड़ गई थी, पर उसकी आवाज बुलंद हो गई थी । पानी पीटते रह गये जीवन भर...मगर कोई ढंग का काम नहीं कर सके । किया होता, तो दाल की यूँ किल्लत न होती । यहाँ एक बात स्पष्ट कर दूँ । आज पूरे पन्द्रह दिन के बाद हमारे घर में दाल बन रही है ।
    खबरें आ रही हैं कि लोगों को शादी-ब्याह में उपहार के रूप में दालों के पैकेट मिल रहे हैं । काश, अपने यहाँ भी किसी की शादी होती और दाल का उपहार मिलता । मैंने तो वैसे भी सोच लिया है किसी भी तरह एक पैकेट दाल लाऊँगा और उसे डाइंग रूम में शो-केस में सजा दूँगा, ताकि हर आने-जाने वाले को भ्रमित कर सकूँ कि हमारे पास भी दाल का अतिरिक्त स्टॉक है ।
    उधर बाबा रामदेव ने बताया है कि लोगों को दाल का सेवन कम करना चाहिए, ताकि वात रोग न हो । राहत की बात है कि लोगों ने उनकी चेतावनी के पहले ही योगासन शुरू कर दिया है । आजकल लोगों में दाल वृत्त-आसन खूब लोकप्रिय हो रहा है । इस आसन में एक मुठ्ठी दाल रखकर उसके चारों ओर घेरा बना दिया जाता है । एक चक्कर लगाने के बाद साँस रोककर दाल पर नजर डाली जाती है । पाँच सेकेंड बाद साँस छोड़ते हुए नजर हटा ली जाती है । चक्करों की संख्या करने वाले की सामर्थ्य पर निर्भर करती है । एक सावधानी अत्यन्त आवश्यक है । दाल पर नजर डालते समय अगर लालच का भाव आ गया, तो यह आसन निष्प्रभावी हो जाता है ।
    दाल की उपस्थिति की जानकारी भी आवश्यक है । वह काला बाजार में है । सफेद बाजार में नींद में खलल के कारण वह चुपके से वहाँ चली गई । उसकी देखादेखी सरकारें भी तन्द्रा में थीं । अब जाकर वे हड़बड़ाई हैं । दाल में कभी काला हुआ करता था; पर अब जहाँ काला है, वहीं दाल है ।
    बन्दे की राय है कि दाल को दाल न कहा जाए । दाल से सर्वहारा की गंध आती है और अब यह सर्वहारा नहीं रही ।


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