जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

गुरुवार, 22 अक्टूबर 2015

बाबुओं पर दोहरी मार

                       
    एक खबर आई है कि सरकार को अब बाबुओं पर भरोसा नहीं रहा । महंगाई के मामले में सरकार उन पर यकीन करना नहीं चाहती । इस खबर ने बाबुओं को किसानों की श्रेणी में ला खड़ा किया है । किसान दोहरी मार की गिरफ्त में रहता है । एक प्रकृति की, दूसरा शासन की । बाबुओं पर भी दोहरी मार आन पड़ी है । दोनों मार शासन की तरफ से है । सरकार की इच्छा है कि बाबू रिश्वत कतई न लें ओर महंगाई रोकने में भी अपनी भूमिका निभाएँ ।
    जी हाँ, बाबुओं की महंगाई रोकने में बहुत बड़ी भूमिका है । अपने देश में महंगाई पर लगाम कसने के तीन प्रमुख उस्ताद हैं । सरकार, रिजर्व बैंक और बाबू । सरकार और रिजर्व बैंक कभी-कभार अपनी उस्तादी दिखाते हैं, पर बाबू महंगाई को रोकने के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहता है । उसकी निगाह लोगों की जेब पर एक जेबकतरे से भी अघिक ढिठाई के साथ टँगी रहती है । वह लोगों से रिश्वत लेकर उनकी जेब में पैसे कम कर देता है । जेब में पैसे कम होते हैं, तो बाजार में भी कम पैसे आते हैं । कम पैसे की वजह से माँग कम होती है और जब माँग कम होती है, तो महंगाई काबू में आने लगती है । बहुत ही सीधा सा फंडा है बाबुओं का, महंगाई को लगाम लगाने का ।
   अब सवाल है कि बाबू रिश्वत क्यों न ले ? रिश्वत लेना उसका स्वभाव नहीं है । परहित की कामना से वह ऐसा करता है । देश की भलाई के लिए वह रिश्वत का विष अपने गले में धारण करता है और न्यून महंगाई का अमृत समाज में उड़ेल देता है । जहाँ किसान महंगाई का मारा होता है, वहाँ यह महंगाई को ही मार देता है ।
     वैसे  मुझे बाबुओं की प्रतिभा पर पूरा यकीन है । सरकार लाख प्रयत्न करे, बाबू कोई न कोई जुगाड़ निकाल ही लेंगे । जिस तरह एक जादूगर की जान तोते में होती है, उसी तरह एक बाबू की जान रिश्वत के पैसों में होती है । रिश्वत नहीं, तो बाबू नहीं ।
    किसान दोहरी मार की गिरफ्त से निकले, न निकले, पर बाबू अवश्य निकल जाएगा । वह बाबू यूँ ही नहीं बना है । कोई तो बात है उसमें !  

     

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