एक खबर आई है कि सरकार को अब बाबुओं पर भरोसा
नहीं रहा । महंगाई के मामले में सरकार उन पर यकीन करना नहीं चाहती । इस खबर ने
बाबुओं को किसानों की श्रेणी में ला खड़ा किया है । किसान दोहरी मार की गिरफ्त में
रहता है । एक प्रकृति की, दूसरा शासन की । बाबुओं पर भी दोहरी मार आन पड़ी है ।
दोनों मार शासन की तरफ से है । सरकार की इच्छा है कि बाबू रिश्वत कतई न लें ओर
महंगाई रोकने में भी अपनी भूमिका निभाएँ ।
जी हाँ, बाबुओं की महंगाई रोकने में बहुत
बड़ी भूमिका है । अपने देश में महंगाई पर लगाम कसने के तीन प्रमुख उस्ताद हैं ।
सरकार, रिजर्व बैंक और बाबू । सरकार और रिजर्व बैंक कभी-कभार अपनी उस्तादी दिखाते
हैं, पर बाबू महंगाई को रोकने के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहता है । उसकी निगाह लोगों
की जेब पर एक जेबकतरे से भी अघिक ढिठाई के साथ टँगी रहती है । वह लोगों से रिश्वत
लेकर उनकी जेब में पैसे कम कर देता है । जेब में पैसे कम होते हैं, तो बाजार में
भी कम पैसे आते हैं । कम पैसे की वजह से माँग कम होती है और जब माँग कम होती है,
तो महंगाई काबू में आने लगती है । बहुत ही सीधा सा फंडा है बाबुओं का, महंगाई को
लगाम लगाने का ।
अब
सवाल है कि बाबू रिश्वत क्यों न ले ? रिश्वत लेना उसका स्वभाव
नहीं है । परहित की कामना से वह ऐसा करता है । देश की भलाई के लिए वह रिश्वत का
विष अपने गले में धारण करता है और न्यून महंगाई का अमृत समाज में उड़ेल देता है ।
जहाँ किसान महंगाई का मारा होता है, वहाँ यह महंगाई को ही मार देता है ।
वैसे मुझे बाबुओं की प्रतिभा पर पूरा यकीन है । सरकार लाख
प्रयत्न करे, बाबू कोई न कोई जुगाड़ निकाल ही लेंगे । जिस तरह एक जादूगर की जान
तोते में होती है, उसी तरह एक बाबू की जान रिश्वत के पैसों में होती है । रिश्वत
नहीं, तो बाबू नहीं ।
किसान दोहरी मार की गिरफ्त से
निकले, न निकले, पर बाबू अवश्य निकल जाएगा । वह बाबू यूँ ही नहीं बना है । कोई तो
बात है उसमें !
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