महल में बुद्ध
का मन बहुत बेचैन है । तमाम बंदिशों को दरकिनार कर वे बाहर निकल पड़ते हैं । साथ
में उनका सारथी चन्ना भी है । रथ को हाँकता हुआ चन्ना उन्हें बहुत दूर ले जाता है
। सड़क मार्ग से होते हुए वे एक विशाल मैदान में आ पहुँचते हैं । अचानक उनकी नजर
एक विचित्र प्राणी पर पड़ती है । वह हरी-हरी मखमली घासों पर लोटपोट हो रहा है । वह
कभी गधे की तरह रेंकता है, कभी घोड़े की तरह हिनहिनाता है और कभी भालू का अवतार
नजर आता है ।
सारथी, क्या दुख
है इसको, जो यह इस कदर बेचैन है ? बुद्ध का मुँह सारथी की ओर घूमता है ।
दुख नहीं
राजकुमार, सुख की आमद ने इसे इतना बेचैन कर दिया है कि यह लोटपोट हुआ जा रहा है ।
बहुत समय के बाद इसे हरियाली दिखाई दी है । आइए, इसी से जानते हैं । चन्ना के साथ
वह उस प्राणी के निकट पहुँचते हैं । उन्हें देखते ही उसकी खुशी फूट पड़ती है—आओ, आओ भइया,
एकाध गाल अपने घोड़े को भी मार लेने दो इन घासों पर । चारा ही चारा है चारों तरफ ।
इतना कहते हुए वह फिर लोटपोट होने लगता है ।
रथ आगे बढ़ जाता
है । काफी चलने के बाद एक अजीब सा महल दिखाई देता है । वहाँ दो रक्षक खड़े हैं ।
एक महल को पीछे से विध्वंस कर रहा है । अगला रक्षक उनकी नजरों में छिपे प्रश्न को
ताड़ लेता है और जवाब देता है—यह महल कोई साधारण महल नहीं है...यह विकास का महल है
।...मैं ही इसका वास्तुकार हूँ ।
किन्तु यह
विध्वंस ? राजकुमार की तरफ से चन्ना पूछता है ।
रक्षक हँसता है—विध्वंस
होगा, तभी तो सृजन होगा । लगातार यह होगा, तभी तो विकास का महल सदा-सर्वदा नूतन
दिखाई देगा ।
बुद्ध का असमंजस
और बढ़ जाता है । चन्ना रथ को आगे बढ़ाता है । कुछ दूर चलने पर ही उन्हें एक जंग
लगा रथ खड़ा दिखाई देता है । रथ पर एक गधा जुता हुआ है और उसपर एक महिला सवार है ।
पीछे से पच्चीस लोग उसे धक्का मार रहे हैं । गधा इतना अड़ियल है कि टस से मस नहीं
हो रहा है । पूछने पर महिला बताती है कि बहुत समय से रथ हमारा अँटका हुआ है । ये
पच्चीस लोग आ गये हैं...उम्मीद है, अब ये आगे बढ़ेगा ।
कितना दुख है इस
संसार में । बेचारी महिला...। बुद्ध गृह-त्याग का मन बनाते हैं और चन्ना को वापस
विदा करते हैं ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें