जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

बुधवार, 9 नवंबर 2016

अंधेरा धमका रहा है

                   
   यहाँ स्थानान्तरित होकर आने के बाद मैंने अपने कार्य-क्षेत्र के पड़ोसियों पर एक जासूस की तरह निगाह दौड़ाई । पड़ोसियों से अभिप्राय अलग-अलग कार्यों के प्रभार वाले मेरे सहकर्मी । आपसी बातचीत के बाद मुझे सौ टका यकीन हो गया कि मुझसे अधिक योग्य, कर्मनिष्ठ, पदरक्षक और ईमानदार कोई नहीं है । मुझे यह कहने में भी हिचक नहीं है कि मैं एक किस्म के अहंकार से लद गया । कोई भी टक्कर में नहीं है दूर-दूर तक । मैं अंदर ही अंदर अपने को प्रशंसा का पात्र मानकर अपनी पीठ ठोंकने लगा तथा शाबाशियों के गुलदस्ते समेटने लगा ।
   आदमी जब किसी बात पर आत्मविभोर हो, तो समय निकलते देर नहीं लगती । एक माह बीत गया और कुछ पता ही नहीं चला । अचानक बड़े साहब आ धमके उस रोज । यहाँ से दो किलोमीटर दूर एक दूसरे अहाते में उनका दफ्तर था । आते ही लगभग छापामार शैली में उन्होंने मेरे टेबल पर धावा बोल दिया । जैसे-जैसे एक फाइल से दूसरी फाइल पर उनकी निगाह दौड़ने लगी थी, वैसे-वैसे उनके चेहरे का रंग भी बदलने लगा था । मुझे लगा कि मेरे लिए प्रशंसा के शब्द साहब के मुँह से निकलने में अब देर नहीं । मेरी छाती टाइट होने लगी और ललाट उन्नत अवस्था को प्राप्त हो गया । कान बेसब्र हो उठे । अपने सुनने से ज्यादा अड़ोसियों-पड़ोसियों को सुनाने की बेचैनी मन पर हथौड़े मार रही थी ।
   मगर साहब के मुँह से बस इतना निकला, ‘मेरे घर पर हाजिर होइए शाम को...सभी फाइलों के साथ ।’ इसके बाद वह पड़ोसियों की ओर मुड़ गए । आँखें फाइलों पर थीं और हाथ उनकी पीठ पर । ‘शाबाश-शाबाश के शब्द कई बार उछले हवा में । मेरे कानों में भी पहुँचे गर्मागर्म पिघले सीसे की तरह । मुझे ऐसा आभास हुआ, जैसे मेरे भीतर की ही कोई चीज मुझे चिढ़ाने के लिए व्यग्र हो उठी हो ।
   शाम ढलते-ढलते मैं पहुँच गया था साहब के घर । ड्राइंग रूम में कदम रखते ही मुझे जोर का झटका लगा । पहले से उछल रहा टेंशन और उछल गया । दो-एक पड़ोसी यहाँ भी मौजूद थे । पता नहीं साहब क्या करने वाले हैं । उनका दोपहर का मूड भाँपकर कोई अज्ञानी ही मानेगा कि मैं ‘सु-गति’ को प्राप्त होने वाला हूँ । अपनी दुर्गति तब ज्यादा अच्छी नहीं लगती, जब पड़ोसी इर्द-गिर्द ही मौजूद हों ।
   साहब के ड्राइंग रूम में आते ही पड़ोसी खड़े हो गए, पर मैं ऐसा नहीं कर सका । पड़ोसियों की तरह उठकर मैं साहब का स्वागत नहीं कर पाया, क्योंकि मैं अभी बैठा ही कहाँ था । पड़ोसियों की उपस्थिति ने मुझे बैठने ही नहीं दिया था । साहब का इशारा पाते ही मैं बैठ गया । कुछ देर चुप्पी छाई रही । पड़ोसी आनन्द के भाव में थे, किन्तु एक-एक पल का भाव मेरे ऊपर भारी पड़ रहा था । तभी गला साफ करते हुए साहब की आवाज उभरी, ‘हाँ तो सरमा जी, इतना तो आप समझ ही गए होंगे कि मैंने आपको क्यों बुलाया है । हमें आपके खिलाफ ढेरों शिकायतें मिली हैं ।’
   ‘मगर, मेरा कसूर...?’
   वह बीच में ही बोल उठे, ‘एक हो तो बताऊँ । ये लोग लगभग रोज ही हमारी बैठक में उपस्थित होते हैं, पर शायद आपको इन चीजों में यकीन नहीं है ।’
   ‘मैं कुछ समझा नहीं ।’ मैंने अपनी अज्ञानता दिखाई ।
   ‘अब इतने अज्ञानी तो आप नहीं दिखाई देते कि आपको मिलने-मिलाने का मतलब भी पता न हो । आज कोई लैला-मजनूँ का जमाना नहीं है । तब जितना वियोग होता था, उतना ही प्रेम बढ़ता था । आज योग से प्रेम बढ़ता है । जितना मिलते जाओ, प्रेम उतना ही गाढ़ा होता है ।’
   मुझे उनका इशारा समझ में आने लगा था, पर मुझे नहीं पता था कि शाम को साहब के घर पर जाकर ही नौकरी पूरी होती है । मैं अभी यही सब सोच रहा था कि उनकी फिर आवाज उभरी । वह मेरी आँखों में आँखें गाड़ते हुए बोले, ‘शाम को करते क्या हैं आप?’
   ‘कुछ खास नहीं जी ।’ मैं सकुचाते हुए बोला, ‘रेलगाड़ी की पटरियों के इधर-उधर रहने वाले भूखे-नंगे बच्चों को देख मेरा मन द्रवित हो उठता है । उन्हीं को घर का बचा-खुचा खाना देने जाता हूँ । रोज वे मेरी राह देखते हैं । कभी-कभार फटे-पुराने कपड़े भी...।’ कहते हुए मैंने अपना सिर नीचे कर लिया था ।
   भूखा अगले दिन फिर भूख की ही बात करेगा साहब ।’ इस बार एक पड़ोसी बीच में उछल पड़ा था, ‘हमें देश की बात करनी चाहिए ।’
   ‘इसीलिए तो रोज शाम को हमारा मिलना होता है ।’ यह दूसरे पड़ोसी की आवाज थी, ‘हम साहब के आशीर्वाद से स्प्राइट की घूँटों के बीच अपने विभाग से लेकर देश की विदेश नीति तक की चर्चा करते हैं । अर्थनीति, राजनीति, कूटनीति...किस नीति पर हम चर्चा नहीं करते ।’
   सचमुच पहली बार मुझे अपनी अयोग्यता का आभास हुआ । मैं दो-चार बच्चों पर अँटका हुआ हूँ और ये लोग पूरे देश को छान रहे हैं । तभी साहब ने अपनी भारी आवाज में बोलना शुरु किया, ‘आप अपने पद के अनुरूप योग्य दिखाई नहीं देते । किसी भी फंड का व्यय विवेक व मौलिकता की माँग करता है । फंड जारी करते समय  अधिकतम लाभ की प्राप्ति ही सरकार की मंशा होती है । काम आप कर रहे हैं, तो ये लोग भी करते हैं ।’ उनका इशारा पड़ोसियों की तरफ था । तनिक रुकते हुए पुनः बोले, ‘आप घिसी-पिटी राह पर चलकर सीमित लोगों के हित की बात सोच रहे हैं, किन्तु ये लोग स्वविवेक का प्रयोग करते हुए अधिकतम लोगों को लाभ पहुँचा रहे हैं । इनके काम में मौलिकता भी है और सरकार की मंशा का पोषण भी । समाज व देश के हित से क्या अपना हित अलग हो जाता है?’
   अब मुझे अपनी ईमानदारी पर भी शक होना शुरु हो गया था । एक तरफ जिन कुछ लोगों के लिए फंड आ रहा है, सिर्फ उन्हीं लोगों को लाभ पहुँचाना और दूसरी तरफ अधिक से अधिक लोगों को लाभ पहुँचाना ! अधिकतम लाभ का सिद्धान्त तो मैंने भी पढ़ा है अर्थशास्त्र में । कहीं मेरी ईमानदारी से कोई चूक तो नहीं हो रही?
   मुझे अंदर से हिलता हुआ मानकर एक पड़ोसी धक्का देने की नीयत से बोला, ‘जब आदमी स्वस्थ होगा, तभी समाज व देश स्वस्थ होगा । आप न खाकर या कम खाकर अंततः देश का ही नुकसान करेंगे ।’
   ‘आप फाइल रख जाइए । मैं उसे बाद में देखता हूं ।’ इस बार साहब की आवाज आई थी । वह मुझे एक अभिभावक की तरह समझाते हुए बोले, ‘मुझे उम्मीद है कि आप अपनी अयोग्यताओं का परित्याग अवश्य करेंगे । ज्ञान जहाँ से मिले, आदमी को ग्रहण कर लेना चाहिए ।’
   कुछ देर बाद मैं सड़क पर खड़ा था । बाहर फैल चुका अंधेरा मुझे अपने आगोश में समेटने के लिए तेजी से मेरी ओर बढ़ने लगा ।

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