यकीन नहीं था कि गली के नुक्कड़ पर पहुँचते ही
मुझे नुक्कड़-नाटक के दर्शन साक्षात होने लगेंगे । सौभाग्य इतना होगा कि मुझे भी
उस नुक्कड़-नाटक में शामिल कर लिया जाएगा । हुआ यह कि नुक्कड़ पर पहुँचते ही मेरी
साइकिल को किसी ने ठोंक दिया । ठुँकना अच्छा नहीं लगता, पर वहाँ यह देखकर अच्छा
लगा कि चलो, साइकिल या रिक्शा से तो नहीं ठुँके । वो क्या है कि हीनता महसूस होती
है । ठुँके भी, तो साइकिल से...रिक्शा से । सामने एक ही बाइक पर चार नौजवान सवार
थे । शायद यह कहना अब सही नहीं था, क्योंकि बाइक तो मुँह के बल गिरी जमीन सूँघ रही
थी । चारों नौजवान चारों खाने चित्त पड़े हुए थे । मैं उन पर हँसने की स्थिति में
नहीं था । जो गति तोरी, सो गति मोरी । पर एक बात जरूर था । मैं धूल झाड़कर उनसे
पहले उठ खड़ा हुआ था । मेरा जीवन-अनुभव उस वक्त मेरे काम आया था । ऐसे मौकों पर
बिजली की गति से उठ जाना ही फायदेमन्द होता है, वरना आपके ऊपर हँसी के पटाखे फूटते
देर नहीं लगती ।
जिस नुक्कड़-नाटक की भूमिका बँध गई थी, उसका
आनन्द लेने के लिए बीसियों लोग इकट्ठा हो गए थे । गम कम, हँसी के ज्यादा छींटे
पड़ते ही नौजवान अपने आपे से बाहर हो गए । पर तुरंत ही उन्हें अपनी गलती का अहसास-जैसा
हुआ । इस मौके का फायदा उठाते हुए मैंने उन पर हमला बोल दिया । ‘देख कर नहीं चल
सकते क्या.. मेरी टांग टूट जाती तो?’
‘ओए अंकल, ज्यादा नहीं टर्राने का । अपनी टांग
खुद बचाने का । हमें अपने फ्रीडम से समझौता नहीं करने का । समझ गए या समझाने का?’
मुझे समझते देर नहीं लगी कि उनकी भी आजादी है
। मैं अपनी साइकिल को समेटने लगा । अब वह मुझे नहीं, बल्कि मैं उसे खींच रहा था ।
घर पर आकर अभी घुटनों पर हल्दी-चूने का लेप लगा ही रहा था कि बाहर दरवाजे पर दस्तक
होने लगी । बिना लेप के लगाए जाना मुझे अच्छा नहीं लगा । वैसे भी वह दस्तक मेरी
आजादी पर सवाल बनकर उत्पन्न हुआ था । मैं अपनी आजादी के गुमान में लेप लगाता रहा ।
उधर आगन्तुक को भी अपनी आजादी का मुझसे अधिक गुमान था । वह तबले की थाप-सा दस्तक
देता रहा । आजादी के बीच कर्त्तव्य का भान मुझे तब हुआ, जब लगा कि अब दरवाजा नहीं
बचने वाला । मैंने लपकते हुए दरवाजा खोल दिय़ा । सामने पड़ोसी खड़ा था । उसने मुझे
हिंसक निगाहों से घूरा । गोया पूछ रहा हो कि किस कब्र में दफन पड़े थे अब तक । फिर
प्रकटतः पूछा, ‘आजादी का जश्न मनाना है शर्मा जी, बोलिए कितना दे रहे हैं?’ मेरे
बोलने से पहले ही वह फिर बोला, ‘नहीं-नहीं, चिरकुटई नहीं चलेगी इस बार । पूरे दो
हजार ढीले करने होंगे ।’
मैं दो सौ तक अपनी मर्जी से देने वाला था,
किन्तु आजादी के नाम पर नाक-कटाई का दबाव बनाकर दो हजार हड़प ले गया । वह हँसते
हुए निकल गया और मैं मन ममोस कर हल्दी-चूने के लेप को खा जाने वाली निगाह से घूरने
लगा ।
अभी आजादी के उधेड़-बुन से ठीक से बाहर भी
नहीं निकला था कि पड़ोस में हंगामा मच गया । घर से बाहर आते ही रोंगटे खड़े हो गए
। पड़ोसन अपनी आजादी का खुल्लम-खुल्ला प्रदर्शन कर रही थी । वह दौड़ा-दौड़ाकर अपने
पति की ठुकाई कर रही थी । पति ने अपनी आजादी के बेजा इस्तेमाल की चेष्टा की थी ।
वह इस वक्त दौड़-दौड़कर अपनी प्राण-रक्षा के कर्त्तव्य-निर्वहन में संलग्न था ।
ठीक इसी समय मुझे उन लोगों की याद आई, जो स्त्री की आजादी के लिए अक्सर विलाप करते
रहते हैं । यह दृश्य उन्हें निश्चय ही राहत प्रदान करेगा । आजादी अब बहुत दूर की
बात नहीं रही ।
वापस घर में घुसते ही एक और कोहराम का सामना हुआ
। कहना गलत न होगा कि एक बार फिर आजादी से मुठभेड़ हुई । दृश्य कुछ यूँ था-पत्नी
रोए जा रही थी । पुत्रवधु भुनभुना रही थी और पुत्र मौन की मूर्ति बन खड़ा था ।
पत्नी आजादी का पूर्ण उपभोग करना चाहती थी । यह तभी सम्भव था, जब पुत्रवधु इसी घर
में रहकर चौका-चूल्हा करे । पुत्रवधु आजादी की नई हवा में साँस लेना चाहती थी, जो
उसके अनुसार अलग घर में रहकर ही सम्भव था । उधर पुत्र का मौन इन आजादियों से
निपटने का रास्ता तलाश रहा था ।
बिना कुछ बोले मैं अपने कमरे में चला आया ।
मैं आजादी के साथ विचार करना चाहता था हर उस आजादी पर, जिसका सामना हमें सुबह से
लेकर रात तक करना पड़ता है । क्या आजादी के पीछे आतंक की ही अभिव्यक्ति होती है? जब
आजादी किसी गली के नुक्कड़ पर खड़ी होकर अट्टहास करने लगे, तो क्या उसे आजादी ही
कहेंगे?
आजादी
जवाब देंहटाएंआजादी
और फिर
आजादी
सादर
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 14 अगस्त 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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