राजमाता लोमड़ी इस वक्त अपने सिंहासन से चिपक
कर बैठी हुई हैं । दोनों हाथ उसे कसकर पकड़े हुए हैं । हालांकि सिंहासन के छिन
जाने का कोई डर नहीं है । जो भी हैं दल में, वे सब दास हैं मन, वचन और कर्म से ।
उनकी वाणी देववाणी है और उनके संग बैठने का अवसर किसी महा-सत्संग के बराबर है ।
उनकी टेढ़ी भृकुटि किसी भी अंदरूनी विवाद रुपी मेढक को खा जाने के लिए साँप के
समान है । कहने की जरूरत नहीं कि उनके दल में बल है, अर्थात गजब की एकता है ।
बीच-बीच में दादुर, चातक, पपीहे बोलते रहते हैं, पर कुल मिलाकर एकता का साम्राज्य
है । खुशी की इस बात के बीच चिंता की बात ये है कि उनका वास्तविक साम्राज्य सिकुड़
रहा है । चुनावों ने नाक में दम कर रखा है । हर चुनाव में जमीन खिसक जा रही है ।
उधर जमीन खिसकती है, इधर दल के दादुर प्राण-रक्षा के लिए टर्राने लगते हैं...यज्ञ,
आहुति, ऑपरेशन, सर्जरी की बातें करने लगते हैं ।
दरबारी दासों का मन रखने के लिए ही इस खास सभा
का आयोजन किया गया है । न केवल उत्तम कोटि के दरबारी उपस्थित हैं, बल्कि स्वयं
युवराज और भूतपूर्व प्रधानमंत्री भेड़ भी दरबार की शोभा को चार-चाँद लगा रहे हैं ।
कुर्ते की आस्तीनों को बार-बार चढ़ा-चढ़ाके युवराज अपनी विशेष पहचान को रूपायित कर
रहे हैं । पूर्व प्रधानमंत्री मौन की माला फेरने में व्यस्त हैं ।
तभी राजमाता की कठोर और कर्कश आवाज गूँजती
है-कुछ वन-क्षेत्रों में हमें हाल के दिनों में विफलता का सामना करना पड़ा है,
जिससे हमारे सेवक हतोत्साह की मुद्रा में हैं । उनके मन में शक का कीड़ा कुलबुलाने
लगा है कि अब हमारा साम्राज्य विस्तार को प्राप्त नहीं होगा । मैं उनसे कहना चाहती
हूँ कि यह विफलता बहुत दिनों तक नहीं चलने वाली...शास्त्रों में भी यही लिखा है ।
आप सब हमारे साथ यह मंत्र पाँच बार दोहराइए ।
पूरा दरबार मंत्र की ध्वनि से गूँज उठता है ।
दरबारियों में अजब चेतना व गजब उर्जा का समावेश हो जाता है । इस उर्जा से लबरेज एक
राज्य-पोषित सांड उठ खड़ा होता है । उसकी विशेषता है कि वह दूसरे के खेतों में
मुँह मारने का उस्ताद है । कोई और खेत दिखाई नहीं पड़ता, तो वह अपने ही खेत में
मुँह मारकर जुगाली करने लगता है । इस वक्त उसके मुँह में अपने ही खेत की सूखी घास
भरी हुई है । वह राजमाता की ओर सिर झुकाते हुए कहता है-माते, आज आपको कठोर निर्णय
लेना ही होगा । दरबार में बहुत सारे सफेद हाथी हो गए हैं, जिनका भार दल पर शत्रु
की मार की तरह पड़ रहा है । इन्हें अब संन्यास में भेज देना चाहिए ।
बहुत अच्छा सुझाव है आपका, पर ये हाथी हमारे
दरबार की शोभा हैं । इनकी बदौलत ही हमारा दरबार दीर्घायु को प्राप्त हुआ है ।
दरबार चलता रहे, इसके लिए हमेशा ऐसे दरबारियों की जरूरत होती है । संन्यास में चले
जाने पर ये हमारा गुण-गान कैसे करेंगे?
राजमाता के इतना कहते ही पूरा दरबार तालियों
की गूँज से भर उठता है । सभी राजमाता की महाअक्ली की प्रशंसा करने लगते हैं ।
पर
राजमाता, चुनावों में निरन्तर हार एक सच्चाई है । हार का फोड़ा नासूर भी बन सकता
है । सांड एक बार फिर खड़ा हो गया है । लोकतंत्र की मर्यादा का ध्यान रखते हुए उसकी
आवाज और विनम्र हो गई है । उसकी नजरें जमीन में गड़ी जा रही हैं । राजमाता की
आँखों में आँखें डालकर वह लोकतंत्र के हनन की हिमाकत नहीं कर सकता ।
लोकतंत्र और अपने प्रति उसकी निष्ठा देखकर
राजमाता गद्गद् हो उठती हैं । वे ऐलान करती हैं-ऑपरेशन होगा और बहुत बड़ा ऑपरेशन
होगा । आप सब की इच्छाओं का असम्मान हम नहीं करेंगे । अभी तक छोटे-मोटे ऑपरेशन
होते रहे हैं, पर इस बार सचमुच बड़ा होगा...इतना बड़ा कि शत्रु की बोलती बंद हो
जाए ।
सारे दरबार में खुसर-पुसर होने लगती है ।
राजमाता जो भी करेंगी, अच्छा करेंगी । दल को आगे ले जाने का सवाल जो ठहरा । उनका
इशारा पाते ही सेवक दौड़ लगाते हैं । तत्क्षण पंडित उपस्थित हो जाते हैं । राजतिलक
की सारी सामग्री पलक मारने की देरी में दिखाई देने लगती है । दरबारी सारी बात
समझते ही खुशी के अतिरेक में गधे की तरह लोट-पोट होने लगते हैं ।
सिंहासन लाया जाता है । पंडित मंत्रोच्चार से
दरबार को फाड़ने लगते हैं । राजमाता युवराज को सिंहासन पर आसीन होने का इशारा करती
हैं । युवराज आगे बढ़ते हैं, किन्तु सिंहासन पीछे खिसक जाता है । वे और आगे बढ़ते
हैं, वह और पीछे खिसक लेता है । तभी लपककर दरबारी सिंहासन की टांगें पकड़ लेते हैं
और खींचा-खिंची शुरु हो जाती है । इस धक्कमपेल में युवराज पीछे धकेल दिए जाते हैं,
पर ऑपरेशन राजतिलक चलता रहता है ।
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