जब दानों के
सौगात की बात होती है, तो किसान भी जेहन में आते हैं । जहाँ दाना है, वहाँ किसान
है और जहाँ किसान है, वहाँ दाना है । दोनों का अस्तित्व एक दूसरे से है । हमारे
देश में किसान ही किसान हैं । सौभाग्य से अनाज के दाने भी भरपूर मात्रा में होते
हैं । इसीलिए हमारे देश में न तो किसानों की इज्जत है और न अनाज के दानों की ।
आदमी की फितरत होती है कि जो उसके पास है और भरपूर है उसकी चिंता या इज्जत वह नहीं
करता । इसके उलट वह उन चीजों की चिंता करता है और उनके पीछे दौड़ता है, जो उसके
पास नहीं है ।
किसानों की
आत्महत्या पर लोग बिना सोचे-समझे सरकार को कोसने लगते हैं, जबकि सरकार सोची-समझी
रणनीति के तहत किसानों को मरने देती है । किसान तेजी से मरेंगे, तभी उनकी संख्या
कम होगी । इस देश की सरकार किसानों की संख्या के अभाव के लिए लालायित है, ताकि वह
उनकी इज्जत कर सके ।
अनाज के दानों
और किसानों के बीच दलाल हैं, नौकरशाह हैं और सरकार भी है । किसानों की तुलना में
इनकी संख्या नगण्य है, इसीलिए मामूली शरीर हिलाकर सारी मलाई खाने के हकदार हैं ये
। इसे बहुमत पर अल्पमत के लाभ का सिद्धान्त कहते हैं । इस देश का लोकतंत्र इसी खास
सिद्धान्त से संचालित है ।
पिछले सालों की
तरह इस बार भी अनाज के दाने सड़ रहे हैं, उन्हे कीड़े खा रहे हैं । ये चीजें सरकार
की दयालुता और बुद्धिमत्ता को ही प्रदर्शित करती हैं । आदमी का क्या है ! वह सक्षम प्राणी है, विवेकशील है, अपने खाने
का जुगाड़ किसी भी तरह कर सकता है । कचरे में रोटी का टुकड़ा ढूँढ सकता है, गोबर
में दाने खोज सकता है, नालियों के पानी से पके अन्न के दाने निकाल सकता है, किसी
के हाथ से छीन सकता है, भीख मांग सकता है, चोरी कर सकता है । ढेरों विकल्प हैं
उसके पास । पर बेचारे कीड़े-मकोड़े अक्षम जीव हैं । उनके लिए तो सरकार उसी तरह है
जैसे किसी भक्त के लिए मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई । ऐसे में सरकार उनकी चिंता क्यों न करे ? सरकार को दयालु होना चाहिए । क्रूरता सरकार का
धर्म नहीं है ।
अत: किसानों का मरना
और दानों का सड़ना अबाध गति से चलते रहना चाहिए । किसानों की भलाई इसी में है और
देश-धर्म की भी ।
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