जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

संकट काल परमार्थ का



सेठ मालवाले प्रसन्न हैं, गद्गद् हैं । उनका दिल खुशी के अतिरेक में बल्लियों उछल रहा है, क्योंकि देश पर संकट आन पड़ा है । लोग घरों में दुबके हुए हैं, मगर पेट दुबकने को तैयार नहीं । हर तरफ लॉकडाउन है, पर पेट पर ताला लगाए नहीं लगता । कुछ ही समय में ताला टूट-टूट जाता है । वह रोटी-रोटी चिल्लाता है, दाल के नारे लगाता है । चावल के लिए हठयोग पर बैठता है, तो कभी सब्जी के लिए मायूस होता है ।

   इधर लॉकडाउन है, तो उधर सेठ ने भी अपने बड़े-बड़े गुप्त गोदामों पर दो-चार ताले और लगा दिए हैं । गुप्तचरों का कठोर, किंतु अदृश्य पहरा अलग से बिठा रखा है । मनुष्यों का क्या भरोसा ! खाली पेटों के साथ टूट पड़े, तो ? खाली पेट क्या-क्या नहीं करवाता । बस टूटना है और लूटना है । सेठ मालवाले को यही डर है कि जनता कहीं लूट न ले...भीड़ की शक्ल में आकर । भीड़ को किसी नियम-कानून का पालन करते हुए देखा है कभी आपने ? वैसे सेठ को अपने देश के नियमों-कानूनों पर भरोसा है, उसके रखवालों पर भरोसा है । संकट की इस घड़ी में भी उनका सहयोग हमेशा उपस्थित है ।

    दुकान पर अफरा-तफरी है । लोगों का हुजूम है । लंबा रेला है यहां से वहां तक । मगर यह सब दिखाई नहीं देता नंगी आंखों से । जैसे किसी जादूगर ने अपने जादू से गायब कर रखा हो पूरी भीड़ को, जबकि समूची भीड़ वास्तव में वहीं मौजूद है । पूरी भीड़ फोन में छिपकर दुकान पर दबाव बनाए हुए है । जितना अधिक दबाव होता है अंदर, ज्वालामुखी का विस्फोट भी होता है उतना भयंकर । इधर जितना दबाव बढ़ता है, उधर उतना ही मूल्य का लावा तेजी से धधकते हुए बाहर निकलता है और लोगों की ठंडी पड़ती जा रही कमाई पर जा गिरता है ।

    सेठ इस वक्त अपनी दुकान में बैठे हुए हैं और मैं उनके सामने माइक लेकर मौजूद हूँ । माइक उनके मुंह के पास करते हुए, 'संकट की इस घड़ी में आप कैसा महसूस कर रहे हैं ?' पूछता हूँ ।

    'बहुत ही अच्छा ।' वह जवाब देते हैं और चेहरे पर एक गंभीर मुस्कान उभर जाती है । थोड़ी देर रुककर, 'संकट भी एक अवसर है...एकता बनाने के लिए, नई चीजों को खोजने के लिए, और त्याग करने के लिए ।'

    'त्याग का समय है, तो रोटी की कीमत क्यों बढ़ गई है ? यह तो दो तरफा मार है जनता पर । एक तरफ वायरस की मार, दूसरी तरफ रोटी की मार ।'

    'एक अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता । पूरी जनता को मिलकर त्याग करना होगा । संकट सामूहिक त्याग की मांग करता है ।'

    'मतलब की जनता पैसे का त्याग करे ।' मैं पूछता हूँ, 'पर आप का त्याग किधर है ?'

    'समूची जनता घरों में दुबकी हुई है वायरस के डर से और हम अपनी जान को दांव पर लगाकर परमार्थ के लिए डटे हुए हैं । आपको हमारा त्याग क्यों नहीं दिखता ?'

    सेठ ने बड़ी चतुराई से परमार्थ की दीवार खड़ी कर दी थी । उसे भेदने का अभिलाषी नहीं था मैं, अत: वहां से रुखसत होकर उन तक आ पहुंचता हूँ, जिन पर व्यवस्था को अमल में लाने की जिम्मेदारी है । सेठ की शिकायत उनके सामने प्रस्तुत करता हूं ।

    शिकायत सुनकर वह खुश नहीं होते । 'क्या कहते हैं आप ?'  वह चौंकते हुए पूछते हैं, 'सेठ जी तो बड़े धर्मात्मा व्यक्ति हैं । वह तो सब का कल्याण करते हैं ।'

    'आपका भी ?' इस प्रतिप्रश्न से वह अचानक ही सतर्क हो उठते हैं और प्रशासन का संकट मोचक वाक्य प्रस्तुत करते हैं आवेश के साथ, 'किसी को मनमानी करने की छूट नहीं दी जाएगी, चाहे वह कोई भी हो ।'

    मैं इस जवाब का आकांक्षी नहीं था, अत: उन तक जा पहुंचता हूँ, जिनके कंधों पर व्यवस्था को बनाने की जिम्मेदारी है । वह जागरूक हैं, इसलिए सतर्क भी । वह हमारे चैनल के माध्यम से अपील जारी करते हैं आम जनता के कल्याणार्थ । 'संकट का यह समय शिकायत करने का समय नहीं है । सभी एक दूसरे का ख्याल रखें । सभी के अधिकारों की रक्षा हो ।'

    फिर वह मुझसे कहते हैं, 'चिंता की कोई बात नहीं है । सेठ हमारे आपदा कोषों में दान भी तो करते हैं । दो-चार पैसों का शोर मचाकर परमार्थ को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता ।'

    मैं पुन: सेठ की दुकान पर हूँ । मालवाले की हंसी पर एक फर्क अवश्य पड़ता है कि वह बढ़ जाती है । यह उनका तरीका है संकट का मुकाबला करने का । आपको भी करना है । अत: यह फैसला आपके ऊपर है कि रोटी के नाम पर आप स्वार्थ को तरजीह देते हैं या फिर सेठ के परमार्थ को ।

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