जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

रविवार, 26 फ़रवरी 2017

सच्चे और अच्छे की पहचान

                

    नए साहब के आने से पहले ही उनके बारे में सच्ची और अच्छी खबरें आने लगी थीं । जितनी खुशी थी, उससे अधिक हैरानी थी लोगों के मन में । कौतूहल चरम पर था कि आज के जमाने में भी ऐसे लोग धरती की शोभा बढ़ाने के लिए अवतरित हो रहे हैं । साहब कितने न्यायप्रिय हैं, उसकी झलक उनके पदार्पण करते ही मिल गई थी । जब उन्हें रिसीव करने गया बाबू टैक्सी के पैसे देने लगा, तो उन्होंने मना कर दिया । वह मुस्कराते हुए उच्च कोमलता के साथ बोले कि एक के साथ अन्याय वह कदापि नहीं कर सकते । हवाई जहाज, टैक्सी और सफर में जो भी खर्च हुआ है, वह सब पर बराबर-बराबर वितरित कर दिया जाएगा...प्रसाद की तरह, ताकि किसी को यह न लगे कि कोई अन्याय-सा हो गया उनके साथ । खबरों से लोग हैरान तो थे ही, पर इस अवतरण-कथा से हैरानी का कद कुछ और बढ़ गया ।
    जल्द ही साहब के संयम का स्वाद भी लोगों को मिल गया । किसी खुशबूदार व्यंजन की गंध की तरह यह बात फैलने में देर न लगी कि कमाल का संयम है साहब के पास । क्या मजाल कि वह बाहर कुछ ग्रहण कर लें...मतलब खा-पी लें । ठेले-खोमचे वालों से तो उन्हें सख्त एलर्जी थी । उनके यहाँ खाने वालों से उससे भी अधिक । गोलगप्पे, भजिया, चाउमिन वगैरह के पास इतना दम न था कि उन्हें अपनी तरफ खींच सकें । जब भी गोलगप्पों के नाम पर मुँह में पानी आने लगता, तो उन्हें घर पर ही मंगा लेते । घर पर खाने से एक एक्स्ट्रा आनंद की प्राप्ति होती थी । बड़े-बड़े गोलगप्पे लबालब खट्टी-नमकीन पानी के साथ भरपूर मुँह खोलकर खाए जा सकते थे । ऐसी आजादी का स्वाद ठेले के बगल में खड़े होकर नहीं लिया जा सकता था, क्योंकि ठेला है तो सड़क की चीज । वह भीड़ को तो बुलाएगा ही ।
    सात्विक तो ऐसे थे वह कि प्याज-लहसुन पर नजर पड़ते ही तीन बार राम-राम बोलते थे, ताकि पाप का प्रायश्चित किया जा सके । इन चीजों को खरीदना और ग्रहण करना तो नामुमकिन सी बात थी । मांस-मछली तो आज तक भगवान भी नहीं खरीदवा पाए थे । सूरज की रोशनी में सब कुछ उजागर हो जाता है । अतः वह कड़ाई से दिन में सात्विकता का लिटमस-टेस्ट देते । लाख मान-मनुहार भी उन्हें टस से मस नहीं कर पाते । किन्तु आपद काल में मर्यादा कहाँ रहती है ! रात के अँधेरे में कैंडल लाइट के बीच मुर्गे की टांग और विदेशी की मांग शरीर में जान डाल देते थे । शरीर की रक्षा और पोषण भी तो आपद-धर्म ही है न !
    साहब कितने बड़े धर्मात्मा हैं, यह बात उस दिन स्पष्ट हो गई, जब सुबह सूर्य उगने के साथ ही नगर का सबसे बड़ा ठेकेदार रिश्वत की रकम लेकर पहुँच गया । साहब ने रिश्वत लेने से मना कर दिया । ठेकेदार हक्का-बक्का...आँखों और कानों को यकीन नहीं हुआ । उसे लेकर आए बाबू की हालत तो और भी दयनीय थी । बेचारा पसीने से तरबतर । रिश्वत की एसी से ठंडक पहुँचने से पहले ही मामला गरमा गया था । वह साहब की नजरों में ऊपर चढ़ने आया था, किन्तु तूफान का संकेत देने वाले बैरोमीटर के पारे की तरह धड़ाम हो गया था । इस वक्त वह न उधर का था, न इधर का । इधर ठेकेदार उसे भेड़िए की नजर से निहार रहा था ।
    ‘इतना सन्नाटा क्यों है भाई?’ कोई पूछता, उससे पहले ही साहब ने सन्नाटा तोड़ दिया । वह यह कहकर चले गए कि नहाने जा रहे हैं । साथ में यह इशारा भी टांग गए कि कोई वहाँ से टस से मस न हो । नहाने के बाद घंटी बजा-बजाकर पूजा करने में कब दो घंटे गुजर गए, उन्हें इसका इल्म ही नहीं रहा । ध्यान लगाकर पूजा करने पर आदमी के साथ ऐसा ही होता है । वह आए और आते ही उन्होंने ठेकेदार को निहाल कर दिया । रिश्वत का बैग अब उनके हाथों में शोभायमान था । एक बार फिर ठेकेदार हक्का-बक्का और बाबू बेचारा पसीने से तर-बतर । वाह, क्या धर्मात्मापना है ! रिश्वत भी पूजा-पाठ करने के बाद ही लेते हैं । वरना तो इस दुनिया में ऐसे-ऐसे अधर्मी हैं कि कभी भी रिश्वत पर चोंच मार देते हैं । न सुबह का लिहाज करते हैं, न शाम का । न शौच का, न स्नान-ध्यान का । रिश्वत को क्या साफ-सफाई के बाद नहीं लिया जा सकता?

    ठेकेदार प्रसन्न । बाबू अति प्रसन्न । ऐसे सच्चे और अच्छे आदमी...बोले तो साहब की छत्रछाया में सब कुछ अच्छा ही अच्छा होने वाला है । सत्संग कभी निष्फल जाता है क्या?

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

काम बोलता है...

                              
    पिछली बार भइया जी जब सत्ता में आए थे, तो अपने सारे नेताओं को निर्देश निर्गत किया था कि वे प्रत्येक कम से कम एक महंगी गाड़ी अवश्य ही हस्तगत कर लें । पूछने पर बताया था कि ऐसा दो कारणों से नितांत आवश्यक था । एक, नेता से लेकर आम जनता तक यह संदेश जाए कि सत्ता कोई सस्ती आइटम गर्ल नहीं है, जिसे कोई भी नचा ले । दो, विकास को रफ्तार दिया जा सके । गाड़ियाँ और गाड़ियों में नेता विकास के ज्वलंत उदाहरण हैं । इस बार उनका सपना है कि विकास को चौगुनी मात्रा और चौगुनी रफ्तार से जनता तक लेकर जाया जाए । इसके लिए जरूरी है कि कम से कम चार महंगी नई गाड़ियाँ एक नेता को प्राप्त हों । विकास जब नंगी आँखों से दिखाई देता है, तभी जनता यकीन करती है ।
    भइया जी का दावा है कि उन्होंने काम इतना किया है कि गणेश जी की कलम भी लिखते-लिखते थक जाए । काम बोले तो...विकास, विकास और केवल विकास । जिधर देखिए, उधर विकास की नदी प्रवाहित हो रही है । यह अलग बात है कि प्रकृति प्रदत्त नदियाँ या तो सूख रही हैं, या विकास की गंदगी से जूझ रही हैं, या जिनके प्रवाह येन-केन-प्रकारेण बाधित हो रहे हैं ।
    हम भी भइया जी के काम को खुर्दबीन से खोजते हुए उनके शानदार बंगले तक पहुँच गए । हमें देखते ही वह खदबदा उठे । कैमरे की नजर अपने ऊपर महसूस करते ही बोले, ‘सुना है कि हमारे सारे विरोधी बह गए हमारे विकास की दरियाओं में?’
    ‘कौन सी विकास की बात करते हैं आप?’ हमने पूछा, ‘हम तो ढूँढ़ते आ गए आपके घर तक, पर हमें तो कुछ नहीं दिखा ।’
    ‘कमाल करते हैं आप भी । चारों तरफ हमारा ही काम बिखरा पड़ा है । क्या उन कामों ने आपसे कुछ नहीं कहा?’ वह थोड़ा आक्रामक होते हुए बोले ।
    ‘रास्ते में तो हमें कोई काम नहीं मिला । इसीलिए हम जानना चाहते हैं कि आपने कौन-कौन सा काम किया?’ हमने माइक उनके मुँह के आगे कर दिया ।
    ‘जब काम हजार हों, तब उन्हें गिनवाने की गलती कोई समझदार इंसान कर सकता है भला? न हम उतना बोल पाएंगे, न आप उतना सुन पाएंगे ।’
    ‘चलिए, मान लेता हूँ कि यह संभव नहीं है । पर दस काम तो आप निश्चय ही गिनवा देंगे ।’ मैंने उनके आगे हथियार...मतलब माइक डालते हुए कहा ।
    ‘अपने मुख मियाँ मिठ्ठू बनना हम नहीं चाहते ।’ वह आत्म-मुग्ध होते हुए बोले, ‘हम अपने मुख से अपने काम का बखान क्यों करें, जब हमारा काम खुद बोल रहा हो । आप आँख बंद करके देखिए, हमारा काम हर तरफ दिखाई दे रहा है । कान बंद करके सुनिए, उसी की गूँज है चारों ओर ।’
    आँख बंद करते ही हमें अँधेरे के सिवा कुछ भी दिखाई नहीं दिया । अँधेरे से डर या डिस्टर्ब होकर हमने आँखें खोल दीं और पुनः काम पर चले आए । अपने काम को बढ़ाते हुए उनके काम के बारे में पूछा, ‘आप बताना नहीं चाहते, तो न सही । कम से कम दो काम तो गिनवा दीजिए, जो आपकी नजर में बहुत ऊँचा स्थान रखते हों ।’
    ‘देखिए, मेरे काम मेरी संतानों के समान हैं । कोई भी आदमी केवल दो की गिनती करवाकर बाकी को नालायक या नाजायज नहीं कह सकता । उसके लिए तो उसकी सभी संतान समान महत्व के होते हैं । अतः हम अपने दो कामों को गिनवाने की भूल कतई नहीं कर सकते । वैसे भी काम करने वाला इन गिनतियों के फेर में नहीं पड़ता ।’
    हम उनकी भावनाओं की कद्र करते हुए उनके द्वारा किए गए केवल दो कामों से पुनः पीछे हट गए और उन्हें उनकी महानता का लाभ देते हुए केवल एक पर आ टिके । मुख पर मुस्कान लाकर हमने पूछा, ‘कोई बात नहीं । आप केवल एक काम का नाम बता दीजिए, जो आम जनता की नजरों में भी काम ही हो ।’
    एक सुनते ही वह अनेक हो गए । वह इतनी जोर से हम पर चिल्लाए कि उनके  ही आदमी चारों तरफ । मैं एक, वह अनेक । हथियार ही हथियार । उनके हाथों में काम, मेरे मुँह में राम । वह मेरी आँखों में आँखें डालते हुए बोले, ‘एक...केवल एक काम पूछकर हमारा अपमान करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? क्या तुम्हें अभी भी सुनाई नहीं दे रही हमारे कामों की आवाज?’
    शायद पहली बार मुझे उनके बोलते काम दिखाई दिए थे । मैंने उनसे झूठ नहीं कहा कि उनके काम सचमुच बोलते हैं । मेरी आँखों में आगे के कामों के चित्र तथा कानों में उनकी आवाजें सिमटने लगे थे । शक काफूर हो चला था । अब उसका स्थान यकीन लेता गया था...चौगुनी रफ्तार से ।
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