जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

मंगलवार, 7 जून 2016

नीरो बंसी बजा रहा है

              
                 
   साधो, कंस की नगरी जल रही है । कंस के किसी वंशज के अत्याचार से, पुलिस की शुतुरमुर्गी व्यवहार से । यह जल रही है प्रशासन की अमिट लापरवाही से, राजसत्ता की अहंकारी अकर्मण्यता से । जब कंस का शासन था, तब भी यह जल रही थी उसकी अमरता की इच्छाओं से, अनंत आकाक्षांओं से । जनता के दहकते तन-मन पर किसी तपते रेगिस्तान में वर्षा की शीतल बूँद बन उतरी थी श्रीकृष्ण की बंसी । उनकी बंसी बजती गई थी और अनाचार के अंगार अपने अस्तित्व की अंगीठी से ओझल होते गए थे । उनकी बंसी तब तक बजती रही, जब तक नगरी ने पूर्ण शीतलता का अनुभव न कर लिया ।
   उधर जब रोम जल रहा था, तो नीरो बंसी बजा रहा था...चैन की बंसी । कुछ लोग समझते हैं कि गैर-जिम्मेदारी और अकर्मण्यता के चलते वह वैसा कर रहा था । पर यह भी तो हो सकता है कि वह रोम के जलने से दुखी हो और जनता के मन की दाहकता को दूर करने के लिए बंसी बजाने लगा हो । तन तो जल ही रहा है, कम-से-कम मन को तो कुछ राहत दे दी जाए । राज्य के प्रति उसकी उस असंदिग्ध निष्ठा को नजर-अंदाज करने के लिए ऐसे लोगों को कतई माफ नहीं किया जा सकता ।
   नीरो तो नहीं रहा, पर उसके वंशज हर जगह मौजूद हैं । कंस की नगरी पर  शासन का ठेका नीरो के एक वंशज के ही हाथों में है । वह पिछले काफी समय से चैन की बंसी बजा रहा है । श्रीकृष्ण ने तो कुछ किया-धरा था, तब जाके चैन की बंसी बज पाई थी । पर इसके बंसी बजाने के पीछे गहरी सोच है । बंसी बजा-बजाकर जनता को इतना मदहोश कर दिया जाए कि वह किए-धरे का हिसाब ही भूल जाए । नीरो के पास बंसी बजाने का एक ही तर्क था...आग ! तुम चैन की बंसी क्यों बजा रहे हो?’ क्योंकि रोम इत्मीनान से जल रहा है ’ पर आज के नीरो के पास तर्क की टकसाल है । अराजकता, अत्याचार, अनाचार, अपराध रुपी आग कभी इधर-कभी उधर न लगती रहे, तो बोरियत का बोध होता है । तब भी बंसी बजाना बनता है, जब उसे लगे कि उसने इतना काम कर दिया है कि किसी के लिए कुछ बचा ही नहीं । उसकी दूर-दृष्टि के दोष के कारण जब मैदान में कोई शत्रु दिखाई नहीं देता, तो वह बंसी बजाता है । बंसी बजाने के लिए आत्म-मुग्धता का एक तर्क और है । आत्म-मुग्ध व्यक्ति चैन की बंसी ही बजाता है ।
   कंस की नगरी की आग क्या यह समझने के लिए पर्याप्त नहीं कि आज का नीरो बंसी बजाने में मशगूल है?

1 टिप्पणी:

  1. शुक्रिया.. आप ब्लॉग में आए..
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    यदि नहीं... तो फॉलो करिए...
    लिखते अच्छा हैं आप
    समयानुसार आपके ब्लॉग के रचनाओं का लिंक भी दिया जाएगा
    पुनः आभार
    सादर

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