जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

शुक्रवार, 10 जून 2016

गोली जो खनकी...बागों में

               
                
   वह अचानक बेंच से उठे और तेजी से बाग के एक्जिट की ओर कदम बढ़ाने लगे । मुझे आश्चर्य हुआ । हम दोनों घंटों बैठते थे बाग में...इधर-उधर की बातें करते, एक-दूसरे का सुख-दुख साझा करते, राजनीतिक मुद्दों पर बतियाते और कभी-कभी पड़ोसी धर्म का मान रखते हुए पड़ोसियों की बुराइयां खुर्दबीन से ढूँढते ।
   उनके पीछे दौड़ते हुए मैंने पूछा,'अरे-अरे, कहाँ चल दिए बुलेट ट्रेन से?’
   मुझे नहीं सैर करना अब बागों में । खैर होगा, तभी सैर होगा । मैं कोई और ठिकाना ढूँढ लूँगा । मैं तो कहता हूँ...आप भी निकल ही जाइए ।’ कहते हुए गति को उन्होंने और बढ़ा दिया ।
   मगर यहाँ क्या बुराई है?...ताजी हवा है, हरे-भरे पेड़ हैं, मखमली घास है, आते-जाते-चहचहाते पक्षी हैं, लोग-बाग हैं, और क्या चाहिए आपको?’
   मगर यहाँ सुरक्षा नहीं है । बाग अब महफूज नहीं रहे किसी के लिए ।’ तेज चलने से उनकी साँस फूलने लगी थी ।
   क्यों?...बाग में बाघ घुस आया है क्या, जो यह सुरक्षित नहीं रहा?’
   बाघ होता, तब भी गनीमत थी, क्योंकि बाघ बाग पर कब्जा नहीं करते । यह तो मनुष्य की पाशविकता है
   अच्छा...अब समझा । आप जवाहरबाग की बात कर रहे हैं ’ मैंने बात को अच्छी तरह समझने की कोशिश करते हुए कहा ।
   पर मुझे लगा कि उनका ध्यान मेरी तरफ नहीं है, क्योंकि वह अपनी ही बोलते चले गए । गति में कमी किए बिना वह बोले,‘वह तो भला हो सरकार का कि उसने कोई रोक-टोक नहीं लगाई । अपनों पर भी कोई रोक-टोक लगाता है भला ! अपना-पराया भी तो कोई चीज होती है कि नहीं
   पर सरकार ही तो...मैं नहीं मानता । सारा दोष अदालत का है । उसे क्या जरूरत थी शांत पानी में पत्थर फेंकने की?’
   कब्जा हुआ था वहाँ मैं भी तो वही कह रहा हूँ । तीन साल से कब्जा...माने सरकार का कब्जा, सरकार के आदमियों का कब्जा । कोई आम आदमी इतना लम्बा कब्जा किस बाप के दम पर करेगा !’
   मैं चुप रहा, ताकि उनकी गति में कोई बाधा न पड़े । एक पल रुककर वह फिर बोले,‘आम आदमी भी समझता है इस बात को और अदालत है कि हुक्म-उदूली नहीं चाहिए । जब आप सरकार को सरकार के खिलाफ खड़ा करेंगे, तो कोई कांड ही जन्म लेगा ।’
   ‘मैं समझा नहीं आपके कहने का अभिप्राय ।’ मैंने अपनी आँखों को उनके चेहरे पर गाड़ते हुए पूछा ।
   ‘इसमें न समझने वाली क्या बात है । सरकार का कब्जा था, तो छोड़ देना चाहिए था । अब सरकार है, तो उसको इतना हक तो होना ही चाहिए । वैसे भी कब्जों और लफ्जों के अलावा सरकार के पास काम ही कितना होता है ! या तो वह कहीं-न-कहीं कब्जा करती है, या फिर लफ्जों में आम-आदमी को उसी तरह फँसाती है जैसे गाढ़ी चाशनी में मक्खी ।’
   वाह, क्या बात कही आपने । मेरे मुँह से बेसाख्ता निकल पड़ा ।
   इस पर वह तनिक रुके और लम्बी साँस खींचते हुए बोले,‘मेरे एक फिल्म-निर्माता दोस्त कल आने वाले थे यहाँ । एक गाने का दृश्य फिल्माना था- चूड़ी जो खनकी...बागों में । मैंने मना कर दिया और समझाया कि चूड़ी अब बाग में नहीं खनक सकती, क्योंकि वहाँ तो गोलियां खनकने लगी हैं । दृश्य इस तरह हो लिया है- गोली जो खनकी...बागों में, याद पिया की (भगवान की) आने लगी...हाय काली-काली रातों में ।’
   उनसे सहमत होकर मैं भी उनके पीछे-पीछे चलने लगा था । 

8 टिप्‍पणियां:

  1. धन्यवाद, नियमित पढ़ते हुए रचनाओं का आनंद लेते रहें ।

    जवाब देंहटाएं
  2. यूँ ही अचानक कहीं कुछ नहीं घटता
    अन्दर ही अन्दर कुछ रहा है रिसता
    किसे फुरसत कि देखे फ़ुरसत से जरा
    कहाँ उथला कहाँ राज है बहुत गहरा
    बेवजह गिरगिट भी नहीं रंग बदलता
    यूँ ही अचानक कहीं कुछ नहीं घटता

    जवाब देंहटाएं
  3. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "११ जून का दिन और दो महान क्रांतिकारियों की याद " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

    जवाब देंहटाएं
  4. उत्तर
    1. धन्यवाद, अगले लेखों पर भी आपकी नजर बनी रहेगी, ऐसी उम्मीद के साथ...

      हटाएं

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

लोकप्रिय पोस्ट