जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

मास्टरस्ट्रोक पर राजमाता की चिंता

              
   भूतपूर्व राजमाता लोमड़ी चिंता-शिविर में विराजमान हैं । अध्यक्षा की कुर्सी सुशोभित है उनसे । उनके पद-पंकज के एक तरफ युवराज बैठे हुए हैं । वे लगातार अपने कुर्ते की आस्तीन को चढ़ाए जा रहे हैं । दूसरी तरफ अ-भूतपूर्व प्रधानमंत्री सियार सदा की भाँति समाधि की मुद्रा में हैं । उनके एक-एक सफेद बाल धूप में सफेद नहीं हुए हैं । वे चाशनी में ईमानदारी के पगकर इस उज्ज्वल रूप को प्राप्त हुए हैं । उनकी ईमानदारी इतनी थी कि उनके शासन-काल में घोटालों के सभी रिकॉर्ड ध्वस्त हो गए । समाधि इतनी जबर्दस्त रही कि वह कभी नहीं टूटी । इन दोनों के अलावा बहुत से पूँछ हिलाने वाले प्राणी मौजूद हैं ।
   चिंता इस बात को लेकर है कि इस वन का वर्तमान प्रधानमंत्री दीमो नामक प्राणी क्रिकेट की क्रीज पर अड़ियल भाव से डटा हुआ है और स्ट्रोक-पे-स्ट्रोक मारे जा रहा है । अभी हाल ही में उसने वो मास्टरस्ट्रोक मारा है कि बॉल सीधे पाक वन में जाकर गिरी है । बॉल वहाँ गिरी है और स्ट्रोक का आघात राजमाता की छाती में आकर लगा है । उसकी जय-जयकार के नाद दिल में आह्लाद पैदा नहीं कर रहे ।
   तभी खबरी खरगोश शिविर में प्रवेश करता है । राजमाता की चरण-वन्दना के बाद खुश होकर कहता है-माता, यह हमारे वन के लिए गर्व की बात है कि हमारी तरफ से जबर्दस्त स्ट्रोक खेला गया ।
   काश, यह स्ट्रोक खेलने वाले हमारे युवराज होते, पर हम उसके स्ट्रोक की सराहना नहीं कर सकते । यह हमारे अस्तित्व का सवाल है ।
   पर...पंचशील का सहअस्तित्व हमारी ही विचारधारा है माता । हम उससे...। राजमाता बीच में ही बोल पड़ती हैं-वह थीन वन के लिए था । उसने हमारी जो जमीन कब्जे में ले ली, वह उसके पास रहे । उसकी जो जमीन हम कब्जा नहीं कर सके, वह हमारे पास रहे । सहअस्तित्व के कारण इस सच्चाई को पचाना हमारे लिए आसान हो गया । परन्तु यहाँ पर उस दीमो प्राणी के अस्तित्व को स्वीकार करना...माने अपने अस्तित्व को नकारना ।
   खबरी खरगोश को यह बात हजम नहीं होती । वह कह उठता है-पर जानकार लोगों का मानना है कि इससे अपने वन का कद ऊँचा हुआ है । हम और मजबूत होकर उभरे हैं ।
   यही तो दुख की बात है कि वह आउट नहीं हो रहा...छक्के-पे-छक्का लगाए जा रहा है । पर उसने यह छक्का लगाने से पहले हमसे कोई राय-मशविरा नहीं किया । यह सरासर वन के प्राणियों का अपमान है ।
   परन्तु राजमाता, वह इस वन का स्वाधीन प्रधानमंत्री है । वह हर बात में...
   लेना ही होगा । इस वन की आजादी हमारी वजह से है । हम हैं, तभी वन है । उसके हर अच्छे काम का विरोध करना ही होगा ।

   सभी अपनी कमर सीधी करते हुए राजमाता की हाँ में हाँ मिलाते हैं । खबरी खरगोश खबरों की खाक छानने के लिए बाहर प्रस्थान करता है । 

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

विपदा में दोनों मिले-माया और...

                
   साधो, विपदा आने पर बहुत से लोग दुख के भँवर में डूब जाते हैं । कुछ ऐसे महान लोग भी होते हैं, जो विपदा आने पर खुशी के मारे झूमने लगते हैं । दुख में डूबने वाले लोग भाग्यवादी किस्म के होते हैं । विपदा आने पर भाग्य को कोसना ही उनका एकमात्र काम होता है । खुशी से झूमने वाले लोग कर्मयोगी टाइप के होते हैं । विपदा के समय अपनी कर्म- साधना से योग को प्राप्त होते हैं । यह योग राम से नहीं, बल्कि राम की माया से होता है । माया से योग कुछ खास कर्म के बलबूते होता है ।
   दुख से पीड़ित लोग विपदा के समय राम से निकटता की अनुभूति करने लगते हैं । इस घड़ी में उनके अलावा कोई और मानसिक आश्रय दिखाई नहीं देता । केवल मन में स्मरण मात्र से एक अजीब उर्जा का संचार होता है । कई मानवीय दिशा-निर्देशों की भी प्राप्ति होती है । पड़ोसी-धर्म जाग उठता है । आज तक जो पड़ोसी फूटी आँखों नहीं सुहाता था, उसके प्रति दया की भावना उमड़ने लगती है । उसका दुख अपना दुख नजर आता है । उसे हर तरह से सहायता पहुँचाने की बेसब्री मन में घुमड़ने लगती है ।
   उसे प्रकृति की सत्ता का एहसास होता है । यह भी एहसास होता है उसे कि प्रकृति से ऊपर कोई नहीं । वह कितना भी दावा करे प्रकृति को वश में करने का, मगर खोखले दावे तो खोखले ही होते हैं । मानव की शक्ति की एक सीमा है, वहीं प्रकृति की शक्ति अपार है । इसी समय उसे सरकार की घोषित-अघोषित शक्ति का भी पता चलता है । जनता से वह कितनी जुड़ी हुई है-इसका भी भांडा फूटता है ।
   जाति, धर्म और अन्य मानव-निर्मित दीवारें स्वत: चकनाचूर हो जाती हैं । बाहर विपदा की गंदगी होती है, तो मन के अंदर साफ-सफाई हो जाती है । सभी अपने नजर आने लगते हैं । विपदा के बावजूद मानव संपदा पर भरोसा और गौरव बढ़ जाता है । इसी समय कर्मयोगियों का भरोसा भी सेंसेक्स की तरह उछाल मारता है । जैसे-जैसे सरकारी व अन्य राहत में तेजी आती जाती है, उनके राहत का सेंसेक्स भी उँचाईयाँ छूने लगता है । कर्मयोग जितना प्रबल होता है, राहत उतनी ही प्रबल होती है ।

   राम और माया की प्राप्ति विपदा के समय न हो, तो उसे विपदा कदापि नहीं मान सकते । भाग्यवादी लोगों को राम-नाम की प्राप्ति होती है और कर्मवादी माया को प्राप्त करते हैं । माया मिली न राम वाली कहावत विपदा के समय चरितार्थ नहीं होती, क्योंकि राम का भी आभास होता है और माया तो साक्षात दर्शन देती है । अभी चेन्नई की विपदा ने इस बात को साबित नहीं किया ?

मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

महाभारत के चक्रव्यूह में भारत

             
   हमारी मान्यता है कि भारत में कभी महाभारत हुआ था । वैसे कुछ लोग महाभारत से महान भारत का अर्थ निकालते हैं । महान वही होता है जो महाभारत पैदा कर दे । भारत ने महाभारत की सौगात इस धरती को दी, अत: महान कहलाने का हक उससे कोई नहीं छीन सकता । महानता का क्षरण न हो, इसलिए महाभारत का चलते रहना आवश्यक है । इस मंत्र-वाक्य को भारत के राजनीतिज्ञों ने पूर्ण आस्था के साथ आत्मसात कर लिया है और महाभारत चालू आहे का नया दृश्य निरंतर मंचित किया जा रहा है ।
   वह वाला महाभारत कुरूक्षेत्र में लड़ा गया था । यह वाला महाभारत इन्द्रप्रस्थ में जारी है । इन्द्रप्रस्थ पांडवों के राज्य की राजधानी थी, मगर आज के इन्द्रप्रस्थ में पांडव नहीं हैं । वह वाला महाभारत कौरवों और पांडवों के बीच लड़ा गया था । यह वाला कौरवों और कौरवों के बीच लड़ा जा रहा है । उस वाले महाभारत के लिए कुरूक्षेत्र का खुला मैदान था । इस वाले के लिए संसद का बंद मैदान है ।
   जब वह महाभारत लड़ा जा रहा था, तो कौरवों की तरफ से धृतराष्ट्र भी हुआ करते थे । वे आँख से अंधे अवश्य थे, पर उनके कान सही-सलामत थे । वे हमेशा अनुचित बात ही नहीं सुना करते थे । कई बार उन कानों ने उचित बातों को भी सुना । उनके मुँह से पांडवों के लिए कटु बचन ही नहीं निकले, वरन मीठे बोलों के झरने भी फूटे । आज के धृतराष्ट्र न केवल आँखों से अंधे हैं, बल्कि कानों से भी बहरे हैं । इसलिए कुछ देखने और सुनने का सवाल ही नहीं उठता । उनके पास मुँह है, जो सुरसा की तरह खुला रहता है । सब कुछ खाए जाओ और कुछ भी बोले जाओ ।
   एक विदुर भी थे कौरवों की तरफ से उस समय । समय कैसा भी आया, पर उन्होंने अनुचित को उचित नहीं कहा । सत्य के अपने धर्म की सदैव रक्षा करते रहे । इस बात ने कौरवों पर कम प्रभावी ही सही, एक तरह का अंकुश लगाए रखा । दुर्योधन भी एक था उस काल में । उसकी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं थीं । आज के महाभारत में विदुर कहीं दिखाई नहीं देते और दुर्योधनों की संख्या हजारों में है । उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की तलहटी में आर्थिक महत्वाकांक्षाओं की कोरल बस्ती फैली हुई है ।
   चक्रव्यूह की रचना महाभारत का अनिवार्य अंग है । उस वाले महाभारत में अर्जुन की अनुपस्थिति में शेष पांडवों को फँसाने के लिए ऐसा किया गया था, किन्तु इस वाले में जो चक्रव्यूह रचा गया है, उसमें एक अकेले निहत्थे अभिमन्यु की जगह करोड़ों निहत्थे आम जन फँसे हुए हैं । बेशर्मी-रूपी-विष बुझे तीरों की बौछार जारी है । चक्रव्यूह-भेदन का कोई मंत्र हो, तो कृपया जरूर बताइए । 

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

आ अब लौट चलें

                        
   उस दिन एक पुराने पड़ोसी से अचानक मुलाकात हो गई । वे काफी तेजी में थे । बहुत समय के बाद बिहार शिफ्ट हो रहे थे । हमने मिलते ही पूछा—फिर बिहार चल दिए ? अभी यह शहर चेन्नई थोड़े न बना है कि बारिश से घबराकर...
   अरे, नहीं-नहीं भाई, यह शहर तो बहुते ठीक है, पर क्या है कि बिहार बहुत-बहुत ठीक होने वाला है । इतना कहकर वे फिर सामान समेटने लगे ।
   ऐसा क्या, कोई चमत्कार होने वाला है क्या ? मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी । वे हँसते हुए बोले—चमत्कार होने वाला नहीं, हो गया है । जैसे समोसे को आलू की आदत लग चुकी है, वैसे ही बिहार को लालू की लत पड़ चुकी है ।
   पर लालू से चमत्कार का क्या रिश्ता ? मैंने पूछने को तो पूछ लिया, पर पूछने के बाद लगा कि कुछ गलत पूछ लिया । उन्होंने भी कुछ अजीब सा चेहरा बनाया, पर नियंत्रित स्वर में बोले—लालू चमत्कार का ही दूसरा नाम है । उनके आने से रोजगार का सेंसेक्स रातोंरात आसमान पर जा पहुँचा है ।
   वह कैसे, क्या लालू रोजगार बाँटने वाले हैं ? मैंने फिर एक मूर्खतापूर्ण प्रश्न पूछा ।   रोजगार बाँटने का काम मोदी जैसे छोटे-मोटे लोग करते हैं । लालू के तो आने मात्र से रोजगार बढ़ जाता है । उनकी भाषा में गर्व की मिश्री घुलने लगी थी ।
   मैं कुछ समझा नहीं, कृपया साफ-साफ बताइए तो...
   मेरी अज्ञानता पर अब उन्हें मजा आने लगा था । वे एकदम साफ स्वर में बोले—धंधा दो तरह का होता है भाई । एक दिन के उजाले वाला और दूसरा रात के अंधेरे वाला । कहते-कहते उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान उभर आई ।
   पर वहाँ नीतीश कुमार भी तो हैं । ऐसा कहकर उनकी मुस्कराहट पर ब्रेक लगाने की कोशिश की मैंने, जिसे उन्होंने तुरन्त असफल कर दिया । डबल मुस्कराहट के साथ बोले—वे अपनी जगह हैं, लालू अपनी जगह । दिन का जिम्मा उनका, रात का जिम्मा इनका ।
   पर सुशासन और विकास का क्या होगा ? ब सुशासन ही नहीं होगा, तो विकास कैसे आगे बढ़ेगा ?
   सुशासने के लिए नीतीश कुमार हैं । विकास लालू के हाथ में है । आप का समझते हैं कि मोदी की तरह चार ठो व्यापारी लोगों का विकास कर दिया, तो हो गया विकास ? विकास माने, गरीब-गुरबा का विकास...हर हाथ को काम । बिहार के विकास के लिए बारह घंटा नहीं, चौबीसों घंटा काम का जरूरत है और इस बात का भी जरूरत है कि बाहर रह रहा बिहारी लोग वहाँ लौटने के बारे में यथाशीघ्र सोचे ।

   बिहार में रोजगार पर क्या अब भी कोई संशय शेष रहना चाहिए ?  

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

आप के झंडाबरदार नीले सियार

                       
   महाराज नीले सियार आज प्रफुल्लित मुद्रा में हैं । अब जाकर राजसिंहासन का पूरा लुत्फ आने लगा है । राज-सत्ता का जब तक पूरा उपयोग न हो, तब तक कैसा लुत्फ ! अभी मखमली खयालों में न जाने कब तक खोए रहते कि प्रधानमंत्री मंकी दरबार में नमूदार होते हैं । घुटनों तक झुकते हुए,महाराज का इकबाल बुलंद हो । महाराज आज इतने प्रसन्न..कहीं दखल तो नहीं दे दिया हमनें ?’ इतना कहकर प्रधानमंत्री बैठ जाते हैं ।
   ऐसी कोई बात नहीं मंकी जी, महाराज अब भी प्रसन्न हैं । वे आगे कहते हैं, बताइए, प्रजा सियारों का क्या हाल है ?’
   प्रजा अब भी आपके पीछे पागल है महाराज, पर वे तीनों नीले सियार...
   अपनी आदत से बाज नहीं आ रहे,महाराज बीच में ही टोकते हैं,शरम आनी चाहिए उन्हें । आम आदमी होकर सत्ता के लिए इतने लालायित !’
   यही आरोप वे हम पर लगा रहे हैं प्रधानमंत्री बात को आगे बढ़ाते हैं,आश्चर्य है कि उन्हें इतना तक नहीं पता कि अब हम आम आदमी नहीं रहे । सत्ता-प्राप्त व्यक्ति खास हो जाता है ।
   ‘शाबाश प्रधानमंत्री जी, आपने मेरे मुँह की बात छीन ली । वे थोड़ी देर रुककर पुन: कहते हैं,हमें याद आता है भ्रष्टाचार के विरुद्ध वह आंदोलन, जिसका नेतृत्व गुरु अन्ना कर रहे थे । कलयुग में शिष्य का ही यह दायित्व है कि गुरु को गुड़ मिले न मिले, पर शिष्य चीनी को अवश्य प्राप्त हो जाए । गुरु जी ने तो आश्रम पकड़ ली, पर हम आम आदमी को कैसे छोड़ देते !’
   तभी खबरी खरगोश दरबार में प्रवेश करता है । महाराज की जय हो, वह घुटनों तक झुकता है और आगे कहता है,हुजूर, आम आदमी का कोई भरोसा नहीं । कुछ प्रजा जन आपके खिलाफ बोलने लगे हैं । उधर वे तीनों विद्रोही डटे हुए हैं मैदान में । कहते हैं कि आप एक जोकपाल का सृजन करने जा रहे हैं ।
   खबरी, हमारा यह दायित्व है कि हम प्रजा का मनोरंजन करते रहें । साथ ही हम इतने मूर्ख भी नहीं कि महिषासुर का सृजन कर दें, जो हमीं को भस्मीभूत करने के लिए दौड़ पड़े ।
   ‘क्या खूब कहा हुजूर आपने । खबरी गद्गद् हो उठता है । उधर प्रधानमंत्री भी इसी अवस्था में आकर पूछते हैं,आगे के लिए क्या आदेश है महाराज ?’
   उन विद्रोही सियारों को चिल्लाने दीजिए, पर प्रजा सियारों से थोड़ी दूरी बनाकर रखा जाए । यह सत्ता का तकाजा है । सत्ता अपनी जगह रहे और आम आदमी अपनी जगह ।
   प्रधानमंत्री राजाज्ञा-पालन के लिए उठते हैं और खबरी खरगोश अगली खुफिया जानकारी के लिए बाहर निकलता है ।


शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

एक समाजवादी नेता की ताकत

                
   साधो, लोग उसे समाजवादी कहते हैं । वह भी अपने को समाजवादी ही मानता है । उसका मानना है कि समाजवाद के लक्षण अपने अंदर वह तभी से महसूस करने लगा था, जब वह पहली बार भैंस पर बैठा था । भैंस की पीठ से ही उसे गरीब-गुरबा की गुरबत और दुख-दर्द के दर्शन होने लगे थे । तभी से उसने ठान लिया कि पूरे समाजवाद को अपने अंदर उतारकर ही दम लेगा ।
   मन-वचन-कर्म से समाजवादी बनने के लिए गरीब-गुरबा की आसक्ति को छोड़कर सत्ता रुपी समाधि की शरण में जाना एक अनिवार्य विधान है । जब आप खुद ही गरीब-गुरबा बने रहेंगे, तो गरीब-गुरबों की सेवा क्या खाक करेंगे ! समाजवादी वही होता है, जो तन-मन-धन से गरीबों की सेवा करे । तन-मन तो अपनी जगह है ही । जरूरत धन को अपनी जगह लाने की होती है । धन सत्ता के गोमुख से स्वत: नि:सृत होने लगता है । चारों तरफ चारागाह ही चारागाह बनने लगते हैं । अत: उसने गरीब-गुरबों के लिए अपनी गरीबी का बलिदान कर दिया तथा एड़ी-चोटी का जोर लगाकर सत्ता-सिंहासन का काँटों भरा ताज पहन लिया । उनके लिए घोटाले तक किए । घोटाला करते वक्त भी वह भैंस को नहीं भूला । सच्चा समाजवादी अपनी जड़ों से कभी नहीं उखड़ता ।
   आधी आबादी का ध्यान रखना भी समाजवाद का ही काम है । वह सदियों से दबाई गई है । अधिकार-विहीनता तथा वर्जनाओं का बोझ न जाने कब से ढो रही है । इनके उत्थान के लिए समाजवाद आगे आया...मतलब वह आगे आया । उसने अपने बाद अपनी पत्नी को राजसिंहासन पर बिठा दिया । एक योग्य व्यक्ति को तो कोई भी सिंहासन पर बिठा सकता है, किन्तु एक अयोग्य को राजगद्दी सौंपने का काम सच्चा समाजवादी ही कर सकता है, क्योंकि योग्य-अयोग्य, ईमानदार-भ्रष्ट, सुशासन-कुशासन—सब उसकी नजर में एक समान हैं । अपनी पत्नी को राजा बनाकर उसने समूची स्त्री जाति का महिमामंडन तथा सशक्तिकरण कर डाला ।
   इतना सबकुछ करने के बाद अब लोकतंत्र का फर्ज बनता है कि वह उसके पुत्रों को सिर झुकाकर अंगीकार करे । बाल की खाल कदापि न निकाले । इन पुत्रों के माध्यम से यह समूचे युवाओं का सम्मान है । बूढ़ों के बाद युवाओं को स्थान देना समाजवाद का तकाजा है । इन पुत्रों को अवतरित करके उसने समाजवाद को और मजबूत किया है । दसेक वर्षों से उसके राज्य में समाजवाद पर छाया धुंध अब मिटने लगा है ।
   

मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

क्यों मजबूत है अपनी शिक्षा का स्तम्भ ?

            
   साधो, सुना है कि अमेरिका में प्रतिभा की बड़ी पूछ है । हमारे देश में भी प्रतिभा की ही पूछ होती है । समाजवादी लोग तो इसके अलावा किसी और चीज को घास तक नहीं डालते । प्रतिभा-निर्धारण का अमेरिकी मानदंड अति संकीर्ण है । सुव्यवस्थित, स्व-अनुशासन और स्व-परिश्रम से पढ़े-लिखे लोगों को ही वह योग्य और प्रतिभावान मानता है । इस तरह से प्राप्त योग्यता को छोड़कर अन्य सारी चीजें हमारे यहाँ प्रतिभा की श्रेणी में आती हैं । अत: इस देश का प्रतिभा-निर्धारण का मानदंड वास्तव में बहुत व्यापक है ।
   शिक्षा का क्षेत्र, जहाँ योग्यता और प्रतिभा की सख्त जरूरत होती है, हम केवल प्रतिभाशाली लोगों का ही चयन करते हैं । यह तो स्पष्ट ही है कि हमारे अपने व्यापक मानदंड हैं । एक शिक्षक के लिए सबसे पहली योग्यता यह है कि वह उच्च कोटि का नकलनवीस हो । नकल करके पास हुआ हो, नकल करने की सूक्ष्म-से-सूक्ष्म तकनीक को जानता हो, नकल में इनोवेशन को सदैव प्रयासरत हो तथा नकल के क्षेत्र में हो रही खोजों से अपने को अपडेट रखता हो । हमारे यहाँ यूँ ही नहीं कहा गया है कि नकल के लिए अकल की जरूरत होती है । एक नकलनवीस शिक्षक ही अपने विद्यार्थियों में नकल की प्रतिभा की बुनियाद रख सकता है ।
   एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति शिक्षक बनने के अयोग्य होता है, क्योंकि वह उचित-अनुचित, ईमानदार-भ्रष्ट, विश्वास-धोखा आदि के बीच भेद करने लगता है । समाजवाद इन भेदों को स्वीकार नहीं करता । वह सभी को एक नजर से देखता है । इस देश को समाजवाद की जरूरत है, इसलिए पढ़े-लिखे व्यक्ति अयोग्य साबित होते हैं ।
   जुगाड़ और सेवा-भाव में पारंगत होना एक अन्य योग्यता है । पहले शिक्षकों की नियुक्ति प्रबंधक या स्थानीय नेताओं के हाथ में हुआ करती थी । सेवा-भाव से समर्पित या जुगाड़ का धनी व्यक्ति मेवा की मलाई मार लेता था । नियुक्त करते समय यह नहीं देखा जाता था कि बंदा पढ़ा-लिखा भी है या नहीं । अगर देख लिया जाता, तो समाज में प्रचलित उस कहावत का क्या होता कि शिक्षक बनने के लिए पढ़ने-लिखने की जरूरत नहीं होती है । अब नियुक्ति के तरीके बदल गये हैं । मेरिट देखा जाता है या परीक्षा होती है । यह परीक्षा वास्तव में इस बात की जाँच के लिए होती है कि सामने वाला जुगाड़ में कितना मेरिटवान’ है ।
   अब अगर इतनी योग्यता न रखने वाला व्यक्ति प्रतिभा-पूछक अमेरिका में चला जाए, तो इसमें अपने देश का क्या कसूर है ?

  

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

गरीबी का धंधा


                      

   आज बाबा को हल और हाथ की बड़ी याद आ रही है । कांग्रेस का हाथ खाली है । कहने को कुछ है भी, तो बेरोजगारी की थाली है । वह गरीबी का धंधा करती थी । होल-सेल रेट पर गरीबी-हटाओ के सपने बेचती थी । बीस-सूत्री कार्यक्रम का आयोजन उसकी तरफ से महा-सेल था । डिस्काउंट तो न जाने कितनी बार दिया गया । गरीबी के साथ बेरोजगारी एक पर एक फ्री ऑफर की तरह था । साठ सालों तक धंधा खूब चोखा चला । पर इधर ग्राहकों का टेस्ट बदलने लगा । इस धंधे में मंदी आने लगी । सामान बिकना बन्द हो गया ।

   एक समय था, जब हल और हाथ के सहकार की जरूरत थी । किसान हल चलाता था और निराई-गुड़ाई-कटाई के लिए मजदूर की जरूरत पड़ती थी । हल की जगह ट्रैक्टर आ गये और किसानों की बेरोजगारी की नींव पड़ गई । अब खेत में केवल मजदूर का काम था । इस तरह किसान आधा मजदूर बन गया । हाथ...मतलब मजदूर के दिन फिर गये । डिमांड इतनी बढ़ी कि ये कई राज्यों को निर्यात होने लगे । हाथ का आयात करने वाले किसान उद्योगपति की भूमिका में आ गये । उद्योग की अच्छाई तो न आई, किन्तु बुराई सरपट दौड़ती आई । हल हाथ का शोषक बन गया ।

   हाथ पर एक और बिजली गिरी । मनरेगा तड़ित बनकर उतरा । हाथ को काम देने के लिए आया, किन्तु ग्राम-प्रधानों के हाथ का हथियार बनकर हाथ का शिकार कर डाला । वे हाथ जो हल से अलग काम कर रहे थे, राज्यों की राजनीतिक पाटों के बीच पिसने के लिए अभिशप्त होते चले गये । उद्योग तो पहले से ही उन्हें पीस रहा था ।

   ऐसे में बाबा की हुंकार बहुत मायने रखती है । वे खेतों में किसानों के बीच जा रहे हैं । हल और हाथ की पुकार होने लगी है । हल के साथ समस्या यह है कि ट्रैक्टर वाले ही आ रहे हैं । हाथ की कमी नहीं है । ये सारे हाथ तो थे ही, अब कांग्रेसी-हाथ भी आ जुड़े हैं । बाबा हल और हाथ के साथ शेक-हैंड करना चाहते हैं । सभी बेरोजगारों, अर्ध-बेरोजगारों का महामिलन होगा, तभी कोई गुल खिलेगा । आँसू बहाना नहीं...उस राज्य में गठबंधन का गुल खिलाना याद है...

   लोग कहते हैं कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती, पर उस राज्य में तो चढ़ी ही चढ़ी है । गरीबी का एक बार फिर धंधा कर कांग्रेसी बेरोजगारी दूर करने की बाबा की कोशिश एकदम सही दिशा में है ।       

  

मंगलवार, 1 दिसंबर 2015

अजीब ठिकाना है उसका

                         
   महाराज सियार इस वक्त चिंता के भँवर में हैं । पिछले कुछ दिनों से अजीब-अजीब खबरें आ रही हैं । आरोप-दर-आरोप लग रहे हैं और कुछ उसी अनुपात में प्रत्यारोप भी गुंजित हो रहे हैं । राजसिंहासन पर महाराज के पहलू बदलते ही प्रधानमंत्री शेर अलर्ट हो जाते हैं और राज-वाणी की प्रतीक्षा करते हैं ।
  कुछ पता चला प्रधानमंत्री जी ? आखिर ये वापसी-कांड है क्या ?’ महाराज प्रधानमंत्री की ओर मुखातिब होते हैं ।
   हाँ, महाराज,सिर झुकाते हुए, बहुत कुछ पता चला है । अभी तक तेरह उल्लूओं, पच्चीस कौवों और सात लोमड़ियों ने अपने-अपने सम्मान वापस किए हैं ।
   मगर क्यों ?’ कौन सा गुनाह किया था उन्होंने कि सम्मान वापस करना पड़ा ?’ महाराज की जानने की इच्छा और प्रबल हो उठती है ।
   दो बातें हैं महाराज । एक, उन्हें अचानक लगने लगा है कि वे उस सम्मान के पात्र नहीं हैं । अतीत ने शायद उन्हें कुछ ज्यादा ही सम्मान दे दिया था । दो, कोई असहिष्णुता है, जो उनके कान फूँक रही है ।
   यही तो...मैंने पहले भी कहा था कि असली कारण को मेरे सामने हाजिर किया जाए । महाराज का चेहरा तनिक लाल हो उठता है ।
   खबरी खरगोश उसे लाता ही होगा । मैंने इशारा कर दिया है । प्रधानमंत्री महाराज को आश्वस्त करते हुए कहते हैं ।
   तभी खबरी खरगोश दरबार-ए-खास में प्रवेश करता है और घुटनों तक झुकते हुए, हुजूर की जय हो । असहिष्णुता नहीं मिली महाराज ।
   मगर यह तुम्हारे पीछे कौन खड़ी है ?’ पीछे खड़ी महिला को देखते हुए महाराज का प्रश्न उभरता है ।
   यह सहिष्णुता है महाराज, खबरी खरगोश जवाब देता है,हर गली-हर कूचा, क्या गाँव-क्या शहर—बस यही और यही दिखाई दी मुझे । असहिष्णुता इसी की सौतेली बहन है ।  अत: इसे ही पकड़ लाया ।’
   ‘सच-सच बता, कहाँ है असहिष्णुता ?’ महाराज की आवाज कठोर हो उठती है ।
   महाराज, सच्चाई यह है कि उसके और मेरे बीच छत्तीस का आँकड़ा है । जो वह करती है, वह मैं नहीं करती और जो मैं करती हूँ, वह तो वह कदापि नहीं करती । अत: वह कहीं भी हो, मेरी बला से ।सहिष्णुता अभी इतना ही कह पाती है कि महाराज बीच में ही बोल उठते हैं, ‘मगर वह कहीं तो होगी !’
   ‘अवश्य होगी महाराज, वह तो केवल उन लोगों के दिमाग में रहती है, जिन्हें या तो खुराफात करना है या अपना कोई हित-साधन करना है ।
   अजीब ठिकाना है उसका । वे असहिष्णुता से निपटने के लिए प्रधानमंत्री को आवश्यक बैठक बुलाने का निर्देश देते हैं ।

     

शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

समाजवाद की रामलीला

                   
    महाराज सियार बात से बलशाली हैं । हर जगह वे पूरी निडरता से कहते फिरते हैं कि अगले चुनाव में सरकार उनकी ही बनेगी, पर उनकी आत्मा सहमी-सहमी सी है । अंदर चिंता का वाइरस चित्त को खाए जा रहा है । वे राजसिंहासन पर पहलू बदलते हैं । तभी प्रधानमंत्री हाथी का प्रवेश होता है । झुकते हुए,महाराज का इकबाल बुलंद हो । आपने जो जिम्मेदारी सौंपी थी, उसे कर दिया गया है
   मतलब...रामलीला के मंच पर चीयर लीडर्स का आगमन हो गया ?’ महाराज की बाँछें खिल उठती हैं ।
   ‘हाँ महाराज, बहुत समय से आरोप था कि हम लोग समाजवाद से दूर हटते जा रहे हैं । भक्ति संगीत से पक्षपाती ढंग से चिपके हुए हैं और चीयर लीडर्स के साथ अन्याय कर रहे हैं  
   समाजवाद की नजर में सब बराबर हैं । क्या झूमते भक्त और क्या नाचती बालाएं !’ महाराज झूमते हुए कहते हैं कि तभी खबरी खरगोश दरबार में प्रवेश करता है ।हुजूर की जय हो, घुटनों तक झुकता है और आगे कहता है, महाराज, गजब हो गया । रामलीला में रावण की लीला शुरु हो गई है । वह अब किसी की नहीं सुन रहा...
   खबरी, तुम्हारी यही बात हमें पसन्द नहीं महाराज झल्ला उठते हैं, तुम पहेलियाँ बहुत बुझाते हो
   पहेली नहीं महाराज, सच्ची कह रहा हूँ । रामलीला के मंच पर कुछ ऐसा ही दृश्य उभर आया है उसके अनुसार पहला दृश्य इस तरह है—रावण सीता का अपहरण करने पहुँचा हुआ है कि तभी उसकी नजर मंच के किनारे खड़ी चीयर लीडर्स पर पड़ती है । वह आव देखता है न ताव, एक चीयर लीडर को कंधे पर लादकर भागने लगता है । सीता चिल्लाती हैं, खबरदार जो उसे लेकर भागा । अपहृत होने के लिए मैं आरक्षित हूँ । मेरा हक यह चीयर लीडर नहीं छीन सकती । रावण उनकी एक नहीं सुनता और उसे लेकर निकल जाता है ।
   महाराज की उत्सुकता बढ़ती है । वे आगे सुनाने को कहते हैं । खबरी खरगोश अगला दृश्य कुछ यूँ उपस्थित करता है—राम और रावण का युद्ध चल रहा है । इकत्तीस बाण लग चुके हैं और बत्तीसवें पर उसे धराशायी होना है । तभी उसकी नजर युद्ध-भूमि से फिसलती हुई एक सुंदर चीयर लीडर के चेहरे पर जा गिरती है । वह मरने से इंकार कर देता है । डंके की चोट पर ऐलान करता है कि अब रावण नहीं मरेगा । हर बार जिंदा करके लोगों ने उसका मजाक बना दिया है । अब तो थक-हार कर राम को ही मरना होगा ।

   रामलीला के मंच पर उपस्थित समाजवादी प्रश्नों को महाराज सियार कैसे हल करते हैं, यह देखने वाली बात होगी ।      

मंगलवार, 24 नवंबर 2015

बाबा पर यूँ शक ना लाओ

    
                     
   वे कोई ऐरे-गैरे बाबा नहीं हैं, हमारे-आपके घरों के बाबाओं की तरह । वे देश के बाबा हैं, इसीलिए खास हैं । मामूली घरों के बाबा भी प्यार-दुलार तो खींच ही लेते हैं । खिलौनों से खेलना और जी भर जाए, तो उसे तोड़ देना उनका हक बनता है । तो क्या बाबा का हक नहीं बनता कि वे भी खेल खेलें । उनके लिए तो पूरा देश ही खिलौना है ।
    हमें आभार मानना चाहिए उन साहेबान का, जिन्होंने देशवासियों को बताया कि अपनी माँ के अतिरिक्त देश की भी एक माता होती है । उन्हीं की बदौलत देशवासी देश की माता को जान-समझ पाए, अन्यथा वे तो विस्मृति और अज्ञानता के गर्त में डूबे हुए थे । देश के बाबा होंगे, तो क्या देश की माता का अस्तित्व नहीं होगा ?
    पार्टी या देश का सर्वोच्च पद तब तक अपने को धन्य नहीं मान सकता, जब तक बाबा उस पर सुशोभित न हों । सोचने वाली बात ये है कि उस पद के लिए ऐसे कौन से गुण हैं,  जो बाबा में नहीं हैं । बाबा तो सर्वगुणसम्पन्न हैं । सबसे पहले तो वे उस परिवार से आते हैं, जिसकी सेवा यह देश पिछले साठ सालों से लेता आया है । सेवा के मेवा पर उन्हीं का हक है । वे झूठ बोलने में उस्तादी ग्रहण करने के निकट हैं । झूठ बोलना राजनीति का खास स्तम्भ है । उनकी दृढ़ता कमाल की है । एक बार मुँह से सूट-बूट निकल गया, तो उस पर युगों तक अटल बने रहेंगे । अज्ञातवास में जाने की उन्हें महारत हासिल है । वे अक्सर अपने लोगों को बीच मझधार में छोड़ विदेशी अज्ञातवास में चले जाते हैं, शारीरिक और मानसिक शक्ति संग्रहित करने । यहाँ यह आरोप प्रथम-दृष्टया सही नजर आने लगता है कि बाबा को ब्रिटेन की नागरिकता हासिल है ।
    बाबा पर उनकी नेतृत्व क्षमता को लेकर उनकी अपनी ही पार्टी के लोगों को शक है ।  नेतृत्व सृजन के लिए भी होता है और विध्वंस के लिए भी; किसी को आगे बढ़ाने के लिए भी होता है और किसी की टांग खींचने के लिए भी । ध्यान से देखा जाए, तो उन्होंने प्रधानमंत्री की टांग को मजबूती से पकड़ रखा है और उसे अनवरत खींचने के उपक्रम में लगे हुए हैं । क्या यह उनकी नेतृत्व क्षमता का सुबूत नहीं है ?

    बाबा पर शक करना देश पर शक करना है और देश पर शक नहीं किया जाता ।

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

ये कहाँ आ गये हम

               
    महल में बुद्ध का मन बहुत बेचैन है । तमाम बंदिशों को दरकिनार कर वे बाहर निकल पड़ते हैं । साथ में उनका सारथी चन्ना भी है । रथ को हाँकता हुआ चन्ना उन्हें बहुत दूर ले जाता है । सड़क मार्ग से होते हुए वे एक विशाल मैदान में आ पहुँचते हैं । अचानक उनकी नजर एक विचित्र प्राणी पर पड़ती है । वह हरी-हरी मखमली घासों पर लोटपोट हो रहा है । वह कभी गधे की तरह रेंकता है, कभी घोड़े की तरह हिनहिनाता है और कभी भालू का अवतार नजर आता है ।
    सारथी, क्या दुख है इसको, जो यह इस कदर बेचैन है ? बुद्ध का मुँह सारथी की ओर घूमता है ।
    दुख नहीं राजकुमार, सुख की आमद ने इसे इतना बेचैन कर दिया है कि यह लोटपोट हुआ जा रहा है । बहुत समय के बाद इसे हरियाली दिखाई दी है । आइए, इसी से जानते हैं । चन्ना के साथ वह उस प्राणी के निकट पहुँचते हैं । उन्हें देखते ही उसकी खुशी फूट पड़ती हैआओ, आओ भइया, एकाध गाल अपने घोड़े को भी मार लेने दो इन घासों पर । चारा ही चारा है चारों तरफ । इतना कहते हुए वह फिर लोटपोट होने लगता है ।
    रथ आगे बढ़ जाता है । काफी चलने के बाद एक अजीब सा महल दिखाई देता है । वहाँ दो रक्षक खड़े हैं । एक महल को पीछे से विध्वंस कर रहा है । अगला रक्षक उनकी नजरों में छिपे प्रश्न को ताड़ लेता है और जवाब देता है—यह महल कोई साधारण महल नहीं है...यह विकास का महल है ।...मैं ही इसका वास्तुकार हूँ ।
    किन्तु यह विध्वंस ? राजकुमार की तरफ से चन्ना पूछता है ।
    रक्षक हँसता है—विध्वंस होगा, तभी तो सृजन होगा । लगातार यह होगा, तभी तो विकास का महल सदा-सर्वदा नूतन दिखाई देगा ।
    बुद्ध का असमंजस और बढ़ जाता है । चन्ना रथ को आगे बढ़ाता है । कुछ दूर चलने पर ही उन्हें एक जंग लगा रथ खड़ा दिखाई देता है । रथ पर एक गधा जुता हुआ है और उसपर एक महिला सवार है । पीछे से पच्चीस लोग उसे धक्का मार रहे हैं । गधा इतना अड़ियल है कि टस से मस नहीं हो रहा है । पूछने पर महिला बताती है कि बहुत समय से रथ हमारा अँटका हुआ है । ये पच्चीस लोग आ गये हैं...उम्मीद है, अब ये आगे बढ़ेगा ।

    कितना दुख है इस संसार में । बेचारी महिला...। बुद्ध गृह-त्याग का मन बनाते हैं और चन्ना को वापस विदा करते हैं ।
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